पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - मीडिया टुडे
लेखक - विभूति नारायण चतुर्वेदी
प्रकाशक - फ्लेयर बुक्स
सी-6, वसुंधरा एंक्लेव,
दिल्ली-110096
मूल्य - 160 रूपए
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार रहे एच वाई शारदा प्रसाद ने भारतीय जनसंचार संस्थान के निदेशक रहते वक्त छात्रों से कहा था-मैं आपको कुछ सिखा नहीं सकता, लेकिन आप सीख सकते हैं। पत्रकारिता के छात्रों के लिए एच वाई शारदा प्रसाद की कही गई बातें तकरीबन सभी कलाओं पर लागू होती है। पत्रकारिता आज भले ही एक पेशा बन गई है-इसे सिखाने का दावा करने वाले ढेरों संस्थान भी अचानक उग आए हैं-लेकिन शारदा प्रसाद की बातें आज भी उतनी ही खरी हैं-जितनी करीब तीस साल पहले थीं।
इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने इस कथन का उल्लेख करके एक बार फिर इसी तथ्य को साबित करने की कोशिश की है कि चाहे पत्रकारिता हो या फिर रूपंकर कलाएं-सीखी तो जा सकती हैं,लेकिन उन्हें सिखाया नहीं जा सकता। मधुकर ने जाने-अनजाने इस मीडिया टुडे की उपयोगिता को जाहिर भी किया है तो उसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह भी लगा दिया है। हकीकत ये है कि विभूति चतुर्वेदी ने अपनी इस पुस्तक में पत्रकारिता के छात्रों को पत्रकारिता के दैनंदिन जीवन में आने वाले तथ्यों की आधारभूत जानकारी देने की कोशिश की है-कुछ उसी अंदाज में-जिस तरह हम पूजा करते वक्त अपने देवताओं को पल्लव से जल छिड़क कर उन्हें अर्पित किया हुआ मान लेते हैं। प्रिंट पत्रकारिता की दैनंदिन की जरूरतों और उसमें काम आने वाली शब्दावली और तकनीक की जानकारी देने का प्रयास है ये पुस्तक। उन्होंने ये बताने की कोिशश की है खबर क्या होती है,खबर का मुखड़ा क्या होता है, रिपोर्टर और उप संपादक क्या होते हैं और उनका काम क्या है। रिपोर्टिंग चाहे आर्थिक हो या फिर राजनीतिक या अपराध की-उसमें कब कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। विभूति ने ये बताने की कोशिश की है। विभूति चूंकि एजेंसी पत्रकारिता में सक्रिय हैं-लिहाजा एजेंसी की कार्यप्रणाली और उसकी पत्रकारिता की सीमाओं पर भी खासतौर पर कलम चलाई है।
पत्रकारिता पर मीडिया टुडे को सूचनात्मक किताब मान सकते हैं। जाहिर है इसका उद्देश्य पत्रकारिता के अध्येताओं तक पहुंचना नहीं,बल्कि पत्रकारिता के छात्रों को पत्रकारिता की उबड़-खाबड़ जमीन की पहचान कराना है। यही किताब की सीमा है और उपलब्धि भी। भूमिका लेखक मधुकर उपाध्याय ने किताब की इस खूबी और खामी को बेहतरी से पहचाना है-शायद यही वजह है कि उन्होंने इस किताब को कुछ-कुछ शारदा प्रसाद के वक्तव्य के मुताबिक पढ़ने की सलाह दी है।
किताब की सबसे बड़ी खामी है - प्रूफ की भयानक गलतियां । पत्रकारिता जहां भाषाई अनुशासन पर खास जोर की अपेक्षा की जाती है-वहां ऐसी गलतियां कम से उस पाठक वर्ग को तो गुमराह कर ही सकती हैं-जिन्हें ध्यान में रखकर ये किताब तैयार की गई है।
उमेश चतुर्वेदी
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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