उमेश चतुर्वेदी
यहां ये जान लेना जरूरी है कि टैम के किसी भी अधिकारी ने कभी-भी आधिकारिक तौर पर अपने इन डब्बों की जानकारी ना तो मीडिया को ना ही चैनलों को मुहैय्या कराई है। जबकि अखबारों की प्रसार और पाठक संख्या मापने के तौर –तरीकों की जानकारी इंडियन रीडरशिप सर्वे और नेशनल रीडरशिप सर्वे अखबारों को मुहैय्या कराते हैं।
अब ये जानने की कोशिश करते हैं कि टैम किस तरह चैनलों की रेटिंग तय करता है। टैम की रेटिंग में मनोरंजन, खेल, खबरिया और लाइफस्टाइल समेत हर तरह के चैनलों की रेटिंग गिनी जाती है। जहां टैम के डब्बे लगे हैं, उस परिवार में टैम का रेटिंग सिस्टम सिर्फ चार सदस्यों को मानता है। सबके हिस्से में एक-एक बटन होता है.. जब जो टीवी देखे, अपने हिस्से का बटन दबा दे। यहां ये सवाल उठता है कि कई बार अपना पसंदीदा चैनल परिवार का एक सदस्य देख रहा होता है। इसी बीच वह काम से उठ जाता है। और घर के दूसरे सदस्य बैठक में आ जाते हैं। उन्हें भी वह कार्यक्रम पसंद आता है। लेकिन वे बटन बदलते नहीं और पहले की ही तरह ये कार्यक्रम चलता रहता है। लेकिन टैम का पैमाना उसे एक ही हिट मानता है।
टैम ने चैनलों के बाजार को दो भागों में बांट रखा है। पहली श्रेणी में आते हैं एक लाख से दस लाख की जनसंख्या वाले शहर और इलाके, जबकि दूसरी श्रेणी में आते हैं दस लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले शहर। महानगरों को इसी श्रेणी में रखा गया है। जिन राज्यों में टीआरपी के बक्से लगे हैं – उन्हें मोटे तौर पर इसी तरह दो हिस्सों में बांट रखा गया है। इसी वजह से हर हफ्ते उनकी स्थिति में बदलाव भी होता रहता है। इससे भी दिलचस्प बात ये है कि डीटीएच के बढ़ते विस्तार के इस दौर में उसके ग्राहक टैम की रेटिंग से वैसे ही गायब हैं- जैसे गधे के सिर से सींग। दूरदर्शन की टेरिस्ट्रियल प्रसारण सेवा यानी घरों तक इसकी सीधी पहुंच भी टीआरपी से दूर है। यानी टैम सिर्फ केबल देखने वालों से ही किसी कार्यक्रम की सफलता और असफलता की गणना करता है।
सबसे मजेदार ये है कि टैम मानता है कि उसका एक डब्बा पूरे मुहल्ले का प्रतिनिधित्व करता है। टैम ने गणना के लिए आम तौर पर 15 से 45 साल के बीच के लोगों को ही रखा है, यानी अपने पसंदीदा कार्यक्रम को देखते हुए टीआरपी का बटन सिर्फ इसी आयुवर्ग के लोग दबा सकते हैं। गिनती भी मिनट के हिसाब से की जाती है.. 'अ' ने 5 मिनट देखा, 'ब' ने 2 मिनट देखा, 'स' ने एक ही मिनट देखा और तब उस कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की REACH निर्धारित की जाती है। फिर गिनती भी सिर्फ कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की ही होती है, पूरे चैनल की नहीं। टीआरपी मापने के लिए समय को मौटे तौर पर तीन हिस्से में बांटा गया है.. सुबह 8 बजे से 4 बजे दिन तक, 4 बजे से रात 12 बजे तक(प्राइम टाइम) और रात 12 बजे से सुबह के 8 बजे तक।
रेटिंग प्वाइंट्स में सबसे बड़ा खेल मिनट का होता है.. इस रेटिंग प्वाइंट के मुताबिक अगर किसी कार्यक्रम को औसतन 5 मिनट देख लिया गया तो वो कार्यक्रम धन्य है.. मतलब उस कार्यक्रम की पहुंच इसी हिसाब से तय होती है कि कितने लाख घरों तक इस कार्यक्रम की पहुंच है। सबसे बड़ी बात ये कि हर दिन की रेटिंग अलग-अलग होती है। वैसे मोटे तौर पर ये तीन हिस्सों में होता है - सोमवार से शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
जिन साप्ताहिक आंकड़ों के दम पर चैनल खुद को नंबर 1 या नंबर 2 होने का दम भरते हैं उसे जांचने का तरीका भी जान लेना मौजूं होगा। टैम का सॉफ्टवेयर हफ्ते भर की रेटिंग के लिए एक समय विशेष को चुनता है.. जैसे 7 बजे किस चैनल पर कितने लोग ट्यून्ड थे और इसके हिसाब से गिनती होती है। इस वक्त का चुनाव भी हर हफ्ते रैंडमली किया जाता है। अगर एक हफ्ते ये समय 7 बजे शाम का हो तो अगले हफ्ते ये समय 10 बजे रात का भी हो सकता है। टैम का दावा है कि उसका सॉफ्टवेयर हर मिनट की गिनती करता है। इसी आधार पर वह बता सकता है कि कितने बजे कितने लोग उसके डब्बे के बटन को दबाए हुए थे और उसके हिसाब से कितने लोग उस समय विशेष पर कौन सा चैनल देख रहे थे।
टैम की इस गिनती और आंकड़ेबाजी से सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जिस देश में कम से कम आठ करोड़ घरों तक दूरदर्शन की सीधी पहुंच है। दूरदर्शन, डिश टीवी और टाटा स्काई समेत तमाम डीटीएच सर्विस प्रदाताओं के चलते डीटीएच की संख्या भी करोड़ घरों की संख्या छूने को है, उनका पैमाना महज 69 हजार लोगों की पसंद के आधार पर ही कैसे तय किए जा सकते हैं। लेकिन आज के दौर में ये चल रहा है। विज्ञापनदाता इसी पर मेहरबान हैं और इसके दबाव में चैनलों के कर्ता-धर्ता अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने को मजबूर हैं। क्योंकि टीआरपी गई नहीं कि चैनल के कर्ताधर्ता की नौकरी दांव पर लग जाती है।
वैसे चैनलों की रेटिंग नापने का काम एक और कंपनी कर रही है। दिल्ली के रवि अरोड़ा की एमैप नाम की ये कंपनी विज्ञापन एजेंसियों और ब्रॉडकास्टरों को लुभाने की कोशिश कर रही है। लेकिन उसे टैम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सामने अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। शायद यही वजह है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने टीआरपी मापने का अलग से पैमाना निर्धारित करने को कहा है। जिसके लिए भारतीय प्रसारकों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन ब्रॉडकास्टर फेडरेशन तैयार भी हो गई है। लेकिन क्या ये संस्था हकीकत में बन पाएगी। मीडिया संगठनों और सरोकारों से साबका रखने वाले लोगों को इसका शिद्दत से इंतजार है।
( इस लेख में ज़ी बिजनेस के संवाददाता अमित आनंद की भी मदद ली गई है। क्योंकि ये आंकड़े टैम अधिकारियों से निकालना आसान काम नहीं था। )
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