उमेश चतुर्वेदी
हिंदी के खबरिया चैनलों की इन दिनों नाग नचाने और बेवजह राखी सावंत के चुंबन दृश्यों के साथ ही कपड़ा उतारू लटके-झटके दिखाने के लिए जब-जब आलोचना की जाती है, बचाव में खबरिया टीवी चैनलों के कर्ता-धर्ताओं का एक ही जवाब होता है कि उन्हें ये सब टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के दबाव में ऐसा करना पड़ता है। हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल आजतक के संपादकीय प्रमुख क़मर वहीद नक़वी ने 16 मई 2007 को भारतीय जनसंचार संस्थान के एक कार्यक्रम में ये स्वीकार किया था कि उन्हें बिना ड्राइवर की कार दिखाने का शौक नहीं है। पटना के लव गुरू प्रोफेसर मटुकनाथ और उनकी शिष्या से प्रेमिका बनी जूली की प्रेम कहानी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने इस प्रेम कहानी को चैनल पर न दिखाने का फैसला किया और इसका खामियाजा टीआरपी में गिरावट के रूप में भुगतना पड़ा। एनडीटीवी इंडिया को छोड़ दें तो हिंदी के तकरीबन सभी खबरिया चैनलों के प्रमुख हमेशा ऐसी ही मजबूरी गिनाते रहते हैं। लेकिन खबर की दुनिया में विचरण करने वाले प्रोफेशनल लोगों से लेकर आम आदमी तक को ये पता नहीं है कि आखिर टीआरपी क्या है। खबरिया चैनल जो दिखा रहे हैं – वह गलत है या सही, इसकी चर्चा बाद में। पहले ये जान लेते हैं कि आखिर टीआरपी है क्या !
टीआरपी दुनिया की मशहूर कंपनी टैम का भारत में दर्शकों की पहुंच चैनलों तक नापने का पैमाना है। जिसे भारतीय ब्रॉडकास्टरों के सहयोग से करीब एक दशक पहले शुरू किया गया था और देखते ही देखते इसे ना सिर्फ मीडिया इंडस्ट्री, बल्कि विज्ञापनदाताओं के प्रमुख संगठनों ने मान्यता दे दी। आज हालत ये है कि दर्शकों की ज्यादा संख्या तक पहुंच की बजाय क्वालिटी के दर्शकों तक टेलीविजन कार्यक्रमों की पहुंच ही विज्ञापन देने और पाने का अहम जरिया बन गया है। यही वजह है कि टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट के पैमाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। अगस्त-सितंबर 2007 तक देशभर में टैम के सिर्फ 4555 पीपुल्स मीटर लगे हुए थे। लेकिन अब देशभर में इसके पीपुल्स मीटरों की संख्या 9970 तक पहुंच गई है। टैम की ओर से देशभर में लगे इन टीआरपी नापने वाले डब्बों को ही पीपुल्स मीटर कहते हैं। सबसे ज्यादा मुंबई में 1245 पीपुल्स मीटर लगे हुए हैं। जबकि दिल्ली में 1186। कोलकाता में इनकी संख्या 881 है। लेकिन इन शहरों की तुलना में जरा राज्यों की हालत देखिए। पूरे गुजरात में सिर्फ 993 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं, जबकि जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 1273 पीपुल्स मीटर लगाए गए हैं। वहीं महाराष्ट्र में इनकी संख्या 1019 है। यहां ये भी गौर करने वाली बात है कि टीआरपी के पैमाने में पंजाब, हरियाणा,चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश चारों राज्य एक इकाई हैं और यहां कुल 1165 पीपुल्स मीटर ही लगे हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश में 722, पश्चिम बंगाल में 703, राजस्थान में 441 और उड़ीसा में 342 पीपुल्स मीटर लगे हैं। TAM (टैम) के वैल्यू के हिसाब से ये 9970 डब्बे लगभग 69 हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मजे की बात ये है कि ये सारे के सारे डब्बे सिर्फ और सिर्फ घरों में लगे हुए हैं। वैसे तो आदमी अपनी जिंदगी का काफी ज्यादा वक्त ऑफिस और बाहर भी गुजारता है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि टीआरपी मापने वाले ये डब्बे किसी दफ्तर,होटल, रेस्तरां, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट जैसी जगहों पर नहीं लगे हैं। टैम की रेटिंग के मानकों के मुताबिक उत्तर पूर्वी, दक्षिणी भारत और पश्चिम बंगाल को छोड़कर पूरा इलाका हिंदी भाषी माना जाता है। उत्तरी पूर्वी राज्यों के नेताओं और मंत्रियों के साथ ही आम आदमी की शिकायत रहती है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर उनके इलाके की खबरें नहीं रहतीं। जब वहां उनकी टीआरपी मापी ही नहीं जाती तो कोई साहसी चैनल ही उत्तर पूर्वी राज्यों की खबरों को दिखाने की हिम्मत दिखा पाएगा। उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब को भी गैर हिंदी भाषी राज्यों की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन ये राज्य उत्तर पूर्वी राज्यों के मुकाबले भाग्यशाली हैं। क्योंकि इनकी खबरों को गाहे-बगाहे और कई बार ज्यादा भी जगह मिल जाती है। टैम की रेटिंग में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलुरू को महानगरों की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन हिंदीभाषी महानगर सिर्फ दिल्ली, मुंबई और कोलकाता को ही माना गया है।
लोगों को शिकायत है कि हिंदी के खबरिया चैनलों पर तीन सी और एक एस यानी क्राइम, क्रिकेट और सिनेमा के साथ सेक्स का ही बोलबाला है। उनमें भी बॉलीवुड की खबरों की बहुतायत है। इसकी भी वजह टीआरपी की रेटिंग का पैमाना ही है। इसके मुताबिक मुंबई हिंदी खबरिया चैनलों का सबसे बड़ा बाजार है, दूसरे स्थान पर दिल्ली आता है, जबकि तीसरे स्थान पर कोलकाता है। बाजार के लिहाज से टैम के मुताबिक गुजरात हिंदी खबरिया चैनलों का चौथा बड़ा बाजार है और उत्तर प्रदेश पांचवां। हालांकि सिवा मुंबई और दिल्ली की हालत में, हर हफ्ते इस नंबर में हेरफेर होता रहता है । हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के लिए बिहार भले ही बाजार नंबर एक कहा जाता हो, लेकिन आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि बिहार में टीआरपी मापने वाला एक भी बक्सा नहीं है। यही हालत उत्तरी पूर्वी राज्यों की भी है। क्रमश:
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2 टिप्पणियां:
achchhi jaankari di hai.
यह सब चोंचलेबाजी है. टीआरपी झूठ का फ़ंडा है.
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