बुधवार, 9 जनवरी 2008

अप मार्केट की अवधारणा

अप मार्केट-डाउन मार्केट

उमेश चतुर्वेदी

चाहे रीति काल की हाला और प्याला वाली कविता रही हो या फिर वीर गाथा काल की बहादुरी भरी रचनाएं,अलंकारों के जरिए भाषा को मांजने और चमकाने की जो परंपरा शुरू हुई, वह आधुनिक काल के कवि मैथिलीशरण गुप्त तक चलती रही। आधुनिक साहित्य में काव्य शास्त्र के इस अहम आभूषण की एक बार फिर से जोरदार वापसी हुई है। आपको भरोसा नहीं हो रहा है तो देखिए ना खबरिया चैनलों की स्टोरियां। काव्यशास्त्र के विद्वान और अलंकारों के सिद्धांतकार आचार्य कुंतक की आत्मा अगर स्वर्ग में होगी तो अपने अनुप्रास अलंकारों के इस नए अवतार को देखकर खुश हो रही होगी। आप भी जरा याद कीजिए ना - आफत में आशियाना, जिंदगी की जंग,मनमोहन की मनुहार,सिंगुर का संग्राम, नंदीग्राम में संग्राम, जासूस कहां है जसवंत,मम्मी मैं आ रहा हूं, निठारी के नरपिशाच ....।

टीआरपी की दौड़ में आगे बने रहने के लिए भाषा भी हथियार बन रही है। इसके पीछे अंग्रेजी के तीन शब्दों की बड़ी भूमिका है। ये शब्द हैं-अप मार्केट और डाउन मार्केट। अब आप सोचेंगे कि शब्दों के इस विवेचन खेल में अंग्रेजी के ये तीन शब्द कहां से आ गए। लेकिन टीआरपी को खुश रखने के लिए इन तीनों शब्दों का ही सहारा लिया जाता है। दरअसल आज की बदलती दुनिया में खाए-अघाए लोगों एक वर्ग भी विकÊसत हो चुका है, टीआरपी की माया भी इसी वर्ग को लुभाने और खुश करने की है- क्योंकि यही वह वर्ग है-जिसके पास खरीद की क्षमता है। खबरिया चैनलों को विज्ञापन देने वाले तभी विज्ञापन देंगे,जब उनके सामानों और उत्पादों की खरीददारी करेगा। इस वर्ग के पास क्रीम - पाउडर से लेकर स्नो,साबुन,टीवी,फ्रिज और कार सब कुछ खरीद सकता है। इस वर्ग को भूख,गरीबी और अभाव की खबरें नहीं पसंद आतीं। उन्हें सावन के अंधे की तरह पूरी दुनिया हरी-भरी ही नजर आती है। इसी बाजार को टीवी की अंदरूनी भाषा में अप मार्केट कहा जाता है। कहना न होगा-आचार्य कुंतक के अनुप्रास की कोशिश इन्हीं लोगों को लुभाना होती है।

अप मार्केट का विस्तार दिल्ली-मुंबई से शुरू होता और उत्तर भारत के कुछ नगरों तक जाते-जाते खत्म हो जाता है। उत्तर पूर्व और दÊक्षण की ज्यादातर घटनाएं डाउन मार्केट की श्रेणी में आती हैं। मेरे एक मित्र मणिपुर से हैं। राज्य में मंत्री भी रह चुके हैं। उनकी खबरिया चैनलों से एक ही शिकायत है-उनके समेत उत्तर पूर्व की अधिकांश घटनाएं राष्ट्रीय कहे जाने वाले खबरिया चैनलों पर जगह नहीं बना पातीं। अब उन्हें कौन समझाए कि ये सब डाउन मार्केट की माया है।

राजधानी दिल्ली के जिस इलाके में मैं रहता हूं-वह कभी गांव हुआ करता था। गांव वालों की बनिस्बत किराएदारों की यहां अच्छी-खासी संख्या आ चुकी है। सही मायनें में कहें तो अब गांव के मूल निवासी भी अल्पसंख्यक तबके में शामिल हो गए हैं। लेकिन ये इलाका बैंकों,क्रेडिट कार्ड कंपनियों और वित्तीय संस्थानों के लिए डार्क जोन है-यानी यहां पैसे देना खतरे से खाली नहीं है। आप आवेदन पर आवेदन भेजते रहें-क्रेडिट कार्ड और पर्सनल लोन यहां के पते पर मिलना असंभव है। कुछ यही हालत टेलीविजन के डाउन मार्केट इलाकों की भी है। खबरें हों तो हों अपनी बला से-भैया जब अप मार्केट ग्राहक को ये खबर पसंद ही नहीं है तो क्यूं भला वह आपकी खबर देखेगा। ऐसे में टीआरपी जी को गिरना ही है और टीआरपी जी गिर गईं तो भला विज्ञापन कौन देगा और विज्ञापन ना मिला तो ...फिर भला भूखे-नंगों की दुनिया को दिखाने,उनकी खबरें देनें का जोखिम क्यों उठाना चाहेगा।

टीआरपी की माया देखिए,गांव भी डाउन मार्केट की ही श्रेणी में आते हैं। टीआरपी का बक्सा वहां नहीं लगा है-लिहाजा वे भी डाउन मार्केट हैं। इसलिए खबरिया चैनलों से गांव सिरे से ही नदारद हैं-कुछ वैसे ही, जैसे बीसवीं सदी तक लंदन के पूर्व इलाके मुख्यधारा से गायब थे। तब ये इलाका भी डाउन मार्केट या ब्लैक जोन हुआ करता था। क्योंकि वहां ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौर में भी गरीब रहते थे। गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने लंदन गए गांधीजी ने तब इस पूर्वी इलाके का दौरा किया था।

बहरहाल गांवों में टेलीविजन चैनलों को भले ही अपना बाजार नहीं दिख रहा है-लेकिन उद्योगपतियों को अपना बाजार नजर आने लगा है। आईटीसी के चेयरमैन योगी देवेश्वर ने दो साल पहले ही नारा दिया था- चलो गांव की ओर। बेसन और आटे के बाजार में योगी जी इसी नारे के बाद कूदे थे। डाउन मार्केट वालों के लिए योगी भले ही पूर्वी लंदन वालों के गांधी की तरह नहीं हैं- लेकिन ये सच है कि इसका असर आने वाले दिनों में दिखेगा-जब योगी जैसे दूसरे उद्योगपतियों के विज्ञापनों के लिए खबरिया चैनल गांवों की ओर अपना रूख करेंगे।

1 टिप्पणी:

सुभाष मौर्य ने कहा…

उमेश जी आपका विश्लेषण बहद सटीक है। दरअसल जिस टीआरपी को लेकर चैनलों खबरों की ऐसी तैसी की जाती है, उसकी पूरी कार्यप्रणाली ही भ्रामक है। केवल कुछ हजार घरों की निगरानी के आधार पर किसी कार्यक्रम को देश भर की पसंद या नापसंद करार दिया जाता है। अब समय आ गया है कि टीआरपी के पूरे खेल को सबके सामने रखा जाए।