क्या फिल्म और क्लासिक में भी कोई रिश्ता हो सकता है?
जब-जब गंभीर सिनेमा की चर्चा होती है, एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठता है। हिंदी में गंभीर सिनेमा का भविष्य है भी या नहीं ..हिंदी सिनेमा की जो मुख्यधारा है—उसे पढ़े-लिखे लोग बाजारू कह देते हैं। एक दौर था- जब बाजार शब्द सतही था। लेकिन आज विद्वत्तजनों की तमाम चिंताओं और अरण्य रूदन के बावजूद ना सिर्फ बाजार शब्द स्थापित हो चुका है, बल्कि इसने पर्याप्त ताकत भी हासिल कर ली है। और तो और ..असल में जो बाजार है भी, वह भी बाजार से उठकर किताब, साहित्य,संस्कृति और क्लासिक की दुनिया में प्रतिष्ठित होता जा रहा है। बहरहाल बाजार चर्चा यहीं तक...आज हिंदी में मुख्यधारा का जो सिनेमा है, उसे अब बाजारू नहीं कहा जा सकता। अगर किसी प्रबुद्ध ने कह भी दी तो हो सकता है, आज के संजय लीला भंसाली, फरहान अख्तर और करण जौहर सामने वाले का मुंह नोंच लें। रूमानियत और असलियत से दूर का जो संसार आज मुख्यधारा का सिनेमा रचता है, ये सच है कि उसमें कम से कम हिंदीभाषी समाज के जीवन की संवेदना और उसकी जिंदगी की कड़वी हकीकतें नहीं ही होतीं। शायद यही वजह है कि आज के हिंदी के मुख्यधारा के सिनेमा को कम से कम क्लासिक की दुनिया में नहीं रखा जाता।
एक सवाल ये भी है कि किसी बेहतरीन किताब को पढ़ते वक्त जो सुख – जो आनंद मिलता है, वैसा ही क्या किसी फिल्म को देखते हुए आनंद उठाया जा सकता है। आज हिंदी के कुछ अखबारों में ऐसी चर्चाएं हो रही हैं। कुछ मशहूर हस्तियों से पूछा जा रहा है कि उन्हें कौन सी फिल्म किसी किताब जैसा आनंद देती है। लोग जवाब दे भी रहे हैं। नामचीन हस्तियां कभी किसी हालीवुड की फिल्म को तो कभी किसी मुंबईया फिल्म को इस श्रेणी में रखती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या किसी फिल्म के बारे में ऐसा सवाल पूछा जा सकता है। इसलिए भी कि – ये दोनों अभिव्यक्ति की दो भिन्न विधाएं हैं और जाहिर है, जिस तरह एक कविता पढ़ने या सुनने से जो आनंद मिलता है, वह आनंद किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ने से हासिल नहीं किया जा सकता। आपने से अधिकांश ने अपनी मनपसंद किताब, कहानी या कविता पढ़ते हुए देखा-महसूस किया होगा। हम अपनी तरह से किताब या कहानी के पात्रों का एक रोमानी संसार अपने मन-मस्तिष्क में रचते हैं। साहित्य के पंडित इसे ही बिंब विधान कहते हैं। प्रेमचंद ने गोदान लिखते वक्त होरी-धनिया या गोबर के चरित्रों को जिस अंदाज में भोगा-समझा या फिर देखा होगा, ये जरूरी नहीं कि हम सब पढ़ते हुए गोबर-धनिया या होरी का वैसा ही चरित्र और बिंब अपने मन में रचें। हम सबका गोबर-होरी या धनिया हमारे मनों में अलग-अलग होते हैं।
दुनिया की सभी भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य पर फिल्में बनती और चलती भी रही हैं। हिंदी में दुर्भाग्यवश क्लासिक पर बनी फिल्में नहीं चलीं। उन्हें व्यापक दर्शक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया। चाहे फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम या लाल पान की बेगम पर बनी फिल्म तीसरी कसम हो या फिर राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म सारा आकाश, दर्शकों का वह प्यार उन्हें नहीं मिला, जैसा कि किसी दूसरी भाषा के क्लासिक पर बनी फिल्मों को उन भाषाओं में मिलता रहा है। हां, एक अपवाद है – केशव प्रसाद मिश्र के आंचलिक उपन्यास कोहबर की शर्त पर बनी फिल्म नदिया के पार। लेकिन जो किताब से रूबरू हुए हैं और उन्होंने फिल्म भी देखी है – उन्हें पता है कि फिल्म के लिए उपन्यास की मूल कथा में कितना नाटकीय तत्व डाला गया है। शायद फिल्म चलाने के लिए ये जरूरी भी था। क्योंकि फिल्म बनाना किताब लिखने जैसा सहज पूंजीहीन धंधा नहीं है। बहुत कम लोगों को पता है कि अस्सी के दशक में बीआर चोपड़ा ने एक फिल्म तवायफ बनाई थी। ये फिल्म उर्दू के ही एक क्लासिक बहुत देर कर दी पर आधारित है। इस उपन्यास के लेखक अलीम मसरूर थे। लेकिन इस फिल्म में भी उपन्यास की कहानी से थोड़ा अलग किया गया है। कई लेखक होते हैं- जो इसे स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि फिल्म विधा के लिए ये बदलाव जरूरी हैं। लेकिन अपना खून जलाकर लिखी रचना से छेड़छाड़ कई रचनाकार बर्दाश्त नहीं कर सकते। आप में से कई लोगों ने ए के हंगल के अभिनय वाली फिल्म सुराज देखी होगी। हिंदी कथाकार हिमांशु जोशी की रचना पर ये फिल्म आधारित है। लेकिन हिमांशु जी की कलम से निकली रचना इस फिल्म में कुछ हेरफेर के साथ दिखती है। यहां ये बताना गलत नहीं होगा कि हिमांशु जी भी ये बदलाव सहन नहीं कर पाए और भविष्य में किसी फिल्म के लिए अपनी कोई कहानी देने से ही इनकार कर दिया।
वैसे रचनाकार चाहे जिस भाषा का हो, उसके मन में एक दबीकुचली आकांक्षा तो रहती है कि उसकी रचना ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इसके लिए वे टेलीविजन या फिर फिल्म विधा का भी सहारा लेते हैं। आर्थिक पक्ष तो खैर है ही, लेकिन सिनेमा की भाषा के मुताबिक खासतौर पर क्लासिक लेखक स्वीकार नहीं कर पाते और फिर उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। हर किसी को सत्यजीत रे,श्याम बेनेगल, या सागर सरहदी तो मिल नहीं सकते। प्रकाश झा ने भी दामुल फिल्म से क्लासिक रचनाओं को सेल्युलायड पर उतारने की शुरूआत की थी। लेकिन कोयला और गंगाजल की दुनिया तक आते-आते उनकी सेल्युलायड की रचनाओं को देखिए, उनकी भी भाषा बदल जाती है।
हिंदी का लेखक अपनी रचनाओं से छेड़छाड़ भले ही बर्दाश्त नहीं कर पाता हो, और इस वजह से अपनी रचनाओं पर फिल्म बनाने की अनुमति ना देता हो। लेकिन आप जानते हैं, आज के दौर के दुनिया के मशहूर रचनाकार, उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्ख्वेज ने अपने मशहूर उपन्यास पर फिल्म बनाने के अरबों डॉलर के बीसीयों प्रस्ताव अब तक नकार चुके हैं। उनके उपन्यास वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालिट्यूड की अब तक दुनियाभर में करोड़ों प्रतियां बिक चुकी हैं। जाहिर है इस उपन्यास की लोकप्रियता को भुनाने के लिए कई निर्माताओं ने मार्क्वेज के दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन मार्क्वेज ने इसे मंजूरी नहीं दी। वजह जानकर आप चौंक जाएंगे। मार्क्वेज का कहना है कि उनके इस उपन्यास को पढ़कर हर पाठक अपनी-अपनी तरह से इसके पात्रों और वातावरण की दुनिया अपने अंतर्मन में रचता है। लेकिन अगर एक बार फिल्म जो बन गई – तो उसके पात्रों को उनकी भूमिका निभा चुके कलाकारों की दुनिया तक ही सिमट जाएगी। आप इसे यूं समझ सकते हैं कि रामायण या महाभारत सीरियल आने से पहले राम, कृष्ण या ऐसे ही दूसरे पात्रों के बारे में हमारे मन में जो चित्र था, वह बहुत हद तक राजा रवि वर्मा के बनाए चित्रों पर आधारित था। लेकिन टेलीविजन सीरियल बनने के बाद हमारे मन में राम-सीता का जो बिंब बनता है, वह अरूण गोविल और दीपिका चिखलिया के आधार पर ही बनता है। गैब्रियल का कहना है कि अगर फिल्म बन गई तो उनके वन हंड्रेड इयर ऑफ सालिट्यूड की दुनिया हर पाठक के लिए सिमट जाएगी। उसका बिंब सिमट जाएगा और दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी रचना ही सिमट जाएगी।
आप कहेंगे कि विदेशी धरती पर कैसे-कैसे रचनाकार हुए हैं। अब तक अगर किसी क्लासिक पर फिल्म बनी है तो वह सिर्फ फिक्शन यानी कथा-कहानी पर ही बनी है। वह अपनी मूल साहित्यिक कृति से कितनी अलग रही या कितनी बेहतर, इस पर सवाल खड़े हो सकते हैं। लेकिन ये भी सच है कि फिक्शन से अलग किसी विषय पर कोई फिल्म ना तो बनी और ना ही बनाने का विचार भी हुआ। लेकिन तारकोव्स्की ने तय किया था कि वे दास कैपिटल पर फिल्म बनाएंगे। क्लासिकल फिल्म की दुनिया में रूस के तारकोव्स्की का बड़ा नाम है। उन्होंने कार्ल मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक दास कैपिटल को फिल्म बनाने के लिए चुना था। दास कैपिटल मूलत: विचार और दर्शन की किताब है। इसी दर्शन के आधार पर आज दुनियाभर में मार्क्सवाद का विस्तार हुआ है। जिस विचार ने पूरी दुनिया का नजरिया ही बदल डाला, उस पर भी फिल्म बन सकती है – ऐसा तारकोव्स्की ही सोच सकते थे। लेकिन दुनिया ये देखने से वंचित ही रह गई कि विचार प्रधान साहित्य पर भी कोई क्लासिक फिल्म कैसे बन सकती है और अगर बनती भी है तो वह कैसी होगी। क्योंकि ये फिल्म बनाने से पहले ही तारकोव्स्की इस दुनिया से ही कूच कर गए।
साहित्य और किताब से फिल्मों के रिश्ते पर फुटनोट तो लिखे ही गए हैं, बड़ी-बड़ी चिंताएं भी जाहिर की गई हैं। लेकिन इस रिश्ते का क्या मानक हो सकता है ? अभी तक कोई ठोस रूप नहीं बन सका है। लेकिन ये सच है कि पाठक और दर्शक की जो मूल भावना है, किसी रचना का आनंद लेना, वह अपनी तरह से उठा ही रहा है। लेकिन उसने कभी फिल्म और क्लासिक रचना के आपसी रिश्ते के नजरिए से अब तक शायद ही कोई रचना पढ़ी है या फिर कभी फिल्म को देखा है। लेकिन सच कहूं तो अगली बार आप इस नजरिए से फिल्म देखकर या किताब पढ़कर देखें, आपका रोमांच भी बढ़ जाएगा, अनुभव तो खैर अलग होगा ही।
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