बुधवार, 5 दिसंबर 2018

बच्चों के मुद्दों पर रिपोर्टिंग से जुड़ी राष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला


दिल्ली पत्रकार संघ एवं नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (इंडिया) ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग के साथ मिलकर “मीडिया रिपोर्टिंग और बाल अधिकार” विषय पर आज एक मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया। कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में आयोजित इस कार्यशाला में बाल अधिकारों से जुड़ी खबरों के प्रति संवेदनशीलता के बारे में पत्रकारों को जानकारी दी गयी। इस अवसर पर उपस्थित राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो ने बताया कि आयोग बच्चों के अधिकारों को लेकर बेहद सजग है और इस संदर्भ में पत्रकारों का सहयोग बेहद अहम है। उन्होंने मीडिया की सहभागिता पर जोर देते हुए कहा कि आयोग बाल शोषण की किसी भी खबर पर तुरंत कार्रवाई करता है। उन्होंने पत्रकारों से अपील की कि वे बाल अधिकारों के संरक्षण से संबंधित किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पहले अथवा बाद में यदि आयोग को उस संबंध में सूचित करते हैं तो आयोग उस पर तुरंत कार्रवाई कर दोषियों को दंडित कराने का प्रयास करेगा। उन्होंने कहा कि कोई भी व्यक्ति सीधे 1098 नंबर पर अथवा आयोग के मुख्यालय में किसी भी मामले की जानकारी दे सकता है। उन्होंने बताया कि आयोग ने इस साल जिन मामलों में कार्रवाई की है उनमें करीब 10 प्रतिशत मामलों में मीडिया में प्रकाशित खबरों का स्वतः संज्ञान लिया गया है। राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग की सदस्य सचिव गीता नारायण ने बाल अधिकारों के संरक्षण से संबंधित महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों से पत्रकारों को अवगत कराया। उन्होंने विस्तार से बताया कि किस कानून के तहत दोषी के लिए कितनी सजा का प्रावधान है और किस अपराध के लिए कौन सा कानून है। उन्होंने पत्रकारों से विशेष आग्रह किया कि वे किसी भी परिस्थिति में पीड़ित की पहचान को सार्वजनिक न करें जो न केवल कानूनन गलत है कि बल्कि पीड़ित के साथ घोर अन्याय भी है। नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट (इंडिया) के महासचिव मनोज वर्मा ने सुझाव दिया कि आयोग को इस तरह की कार्यशाला का आयोजन देशभर में करना चाहिए, जिससे पत्रकारों को बाल संरक्षण से जुड़े कानूनों के बारे में अधिक जानकारी मिल सके। उन्होंने मुजफ्फरपुर और कठुआ की घटनाओं का जिक्र करते हुए न्यायालय द्वारा उन पर लिये गये संज्ञान और मीडिया के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर की गयी टिप्पणियों का भी जिक्र किया। प्रसार भारती में सलाहकार एवं वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेन्द्र बरतरिया ने कहा कि मीडिया बहुत ताकतवर है और उसकी इस शक्ति का उपयोग बाल अधिकारों के संरक्षण हेतु किया जाए। उन्होंने कहा कि बाल अधिकारों के हनन का कोई भी मामला ध्यान में आता है तो उसकी सूचना राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग को देकर खबर को और असरकारी बनाया जा सकता है। पाञ्चजन्य संपादक हितेश शंकर ने कहा कि राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग के नियम जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होते. क्या वहां महिलाओं एवं बच्चों के अधिकार मायने नहीं रखते और सिर्फ अलगाववादियों के अधिकार ही महत्त्वपूर्ण हैं। दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष मनोहर सिंह ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग को सुझाव दिया कि वह मीडिया को आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराने के साथ साथ सही रिपोर्टिंग के लिए कुछ पत्रकारों को प्रतिवर्ष पुरस्कृत भी करे। दिल्ली पत्रकार संघ के महासचिव डॉ प्रमोद सैनी ने कहा कि दिल्ली पत्रकार संघ पत्रकारों के कौशल विकास के लिए सतत प्रयासरत है और आज की यह कार्यशाला उसी कौशल विकास का अंग है। उन्होंने ऐसी ही कार्यशाला डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों के लिए भी आयोजित करने का सुझाव दिया। उन्होंने आयोग को यह भी सुझाव दिया कि पत्रकारों के लिए उपयोग दिशानिर्देश हिन्दी में तैयार करके पूरे देश में प्रसारित करे और दिल्ली पत्रकार संघ इसमें पूर्ण सहयोग करेगा। कार्यशाला में उपस्थित प्रैस एसोसिएशन के अध्यक्ष जयशंकर गुप्ता ने दिल्ली पत्रकार संघ एवं नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के इस प्रयास की प्रशंसा की। कार्यशाला में दिल्ली पत्रकार संघ के उपाध्यक्ष अनुराग पुनेठा एवं राकेश आर्य, पूर्व अध्यक्ष अनिल पांडे, कोषाध्यक्ष नेत्रपाल शर्मा, सचिव सचिन बुधौलिया, वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी, संतोष सूर्यवंशी, विजय लक्ष्मी, निशि भाट सहित 100 से अधिक पत्रकार उपस्थित थे।

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

बृजलाल द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान अरूण तिवारी को


भोपाल। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष ‘प्रेरणा’ (भोपाल) के संपादक
अरूण तिवारी को दिया जाएगा। अरूण तिवारी साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ संस्कृतिकर्मी,कवि एवं लेखक भी हैं। 21 वर्षों से वे समकालीन लेखन को समर्पित साहित्यिक पत्रिका ‘प्रेरणा’ का संपादन कर रहे हैं। श्री तिवारी का सम्मान समारोह 3 फरवरी, 2019 (रविवार) को गांधी भवन, भोपाल में आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्यकार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेंगे। पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव(पूर्व संपादकः नवभारत टाइम्स,मुंबई), रमेश नैयर (पूर्व निदेशकः छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी, रायपुर), तथा डा. सच्चिदानंद जोशी( सदस्य सचिवः इंदिरा गांधी कला केंद्र,दिल्ली) शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज, व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय,कला समय (भोपाल) के संपादक विनय उपाध्याय, संवेद (दिल्ली) के संपादक किशन कालजयी, अक्षरा (भोपाल) के संपादक कैलाशचंद्र पंत, अलाव (दिल्ली) के संपादक रामकुमार कृषक को दिया जा चुका है।सम्मान का यह ग्यारहवां वर्ष है। त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिल भारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

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गुरुवार, 26 जुलाई 2018

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मंगलवार, 3 जुलाई 2018

My Perspective: Futile Use of Political Power : Vijay Sanghvi


Sages have said for ages that political power and morality cannot walk together. Similarly history tells from its experience that economy and morality cannot coexist. Systems collapse only with entry of dishonesty in corruption of either. The Prime Minister Narendra Modi seems to be flexing his political muscle to cause an impression of using political power to introduce morality in economy. It is inculcating character in child with a cane. With drastic step of demonetisation in November 2016, his entire attention has been focused on the campaign to eliminate use of black money in business world without touching the corrupt elements within the administration. Futility of his approach has driven the second known Indian economist settled in America to run away from him. The chief Economic Adviser, Arvind Subramaniam to the Modi government resigned last week. Earlier Raghuram Rajan preferred to go away rather than contribute his abilities to moving the economy forward. Both were apparently exasperated by his dictums and came to conclusion that he had no use of their expertise. The Prime Minister focused his efforts to eliminate menace of black money from the Indian system with demonetisation. Does he really want or can be really end the menace without corrective reforms in political arena? From where can political parties get funds for expenditures in elections that they cannot put down in their account books without inviting risks of disqualifications? To circumvent the election law on ceiling of expenditure by candidates on election and thus eliminate risk of revocation of election, the Prime Minister Indira Gandhi amended the election law to exxclude the party expenditure from expenditure by the candidate though both expenses are essentially by the party. In last few elections expenditures in each constituency have run over several crore rupees, far beyond the prescribed ceilings. Limits cannot be enhanced without causing disenchantment in masses about the election system. If the party and candidates mobilise only accounted money as resources, then they have to put every kind of expenditure that they cannot. Given the needs, at least in thinking of parties and candidates for kind of expenditures needs, full scale purification is not possible. It would mean the ruling party can and will continue to use unaccounted resources but opponents cannot as they will be barred by law. Morality in politics cannot be introduced in such truncated form. It is not equality but partiality though money does not ensure victory in any election. Political leaders in general and in power in particular suffer from false sense of their ability to influence voters through money power, muscle pressure or caste consideration though it has been proved in every landslide mandate to be mirage. Factors that constitute voters’ political minds are beyond comprehension of political entities. NaMo ought to know it. He fought state elections in 2002, 2007 and 2012 as well as the Lok Sabha polls in 2014. A hired plane was attending to his needs for 46 days during the intense and stormy campaign for the Lok Sabha polls. Hire charge for each hour was Rs 4.50 lakh for the plane. It amounted to be Rs.1.08 Crore a day. He addressed 108 meetings and each cost heavily for arrangements so that he can be seen and heard by everyone in the audience. Even his campaigns in the state assembly polls cost the party, if the party paid for, heavily. In addition the extensive usage of social media to catch young could not have been possible without heavy costs. The format of his fight against corruption or for instilling morality in politics and economic world leaves enough scope to suspect his intents. Fight against corruption cannot and will not succeed if goose is killed and gander is allowed to escape unhurt. Without attributing the authority, it was claimed that two and half lakh licenses to industrial and business units were cancelled by the government on suspicions of corruption involved obtaining them. But it was not followed up with information as to how many officials involved in granting those licenses were punished or even questioned. Corruption cannot be one ended business. There have to be takers of undue advantages as givers in cash or kind. It leaves an uncanny feeling that fight against corruption is one ended for punishing business class and that happens to have overwhelming numbers as traditional supporters of the Bharatiya Janata Party. No leader would indulge in harassing his party’s traditional vote banks. Political compulsions obviously forced him to adopt economic stances adverse to interests of the middle class. International image of Indian wealthy was already sullied. The sustained campaign over the black money by the Prime Minister further confirmed that they are dishonest and tax evades. No people were condemned by their own elected Prime Minister as they were in India. Political science student would easily see a threat in the stance to indicate he was ready with alternatives o overcome any hindrance to his seeking the second term. He will not be seeking approval but forcing the decision. His advantage is in reading by others that no alternate merged inside our outside the ruling campus to challenge him. His selective campaign against corruption clearly indicates that it was not to end corruption but equip the self with a political bludgeon to beat opponents. He has a strong reason to be weary of big wigs in his camp who forced him to abandon his original plans of establishing as the shining star of Indian youth with rapid economic transformation of India. He will force not only his selection for the second term but also usurp authority to select candidates of his choice to gain a personal majority in the next parliamentary party. He would not like anymore to make his survival in office to dictates of forces outside his band. He paid price for allowing the centre of power to go out of his hands in the current terms He may be product of democratic process but he has no pretense to be democratic by nature He firmly believes in sole personal rule. It alone can deliver results. That is his motto. He proved it by reducing stature and political power of his colleagues in the Cabinet and the party soon after he took over.

दैनिक ट्रिब्यून में


सुबह-सवेरे में


सन्मार्ग में


शुक्रवार, 22 जून 2018

सन्मार्ग में


सोज का गिरगिटिया रंग


1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान से डिप्लोमा मिलने के बावजूद हिंदी विभाग के छात्रों से नौकरियां दूर ही रहीं..इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ दें तो मेरे जैसे प्रवासी लोग फ्रीलांसिंग कर रहे थे..उन दिनों हम जैसे फ्रीलांसरों को दैनिक हिंदुस्तान के तत्कालीन सहायक संपादक कृष्णकिशोर पांडेय बहुत सहयोग देते थे.. आज पत्रकारिता में एक खास धारा के लोगों के लिए लालू यादव मसीहा हैं..लेकिन ढाई दशक पहले बिहार में जिस तरह शासन चल रहा था, उससे मीडिया के बड़े धड़े की नजर में लालू की छवि सिर्फ हंसोड़ राजनेता की थी.. उस माहौल में कृष्णकिशोर पांडेय पहले सहायक संपादक थे, जिन्होंने अपने संपादकीय में लालू के लिए लालू जी शब्द का इस्तेमाल किया.. उन दिनों उनके दफ्तर में कई राजनेता भी आते थे, अपना लेख देने और छपवाने.. दैनिक हिंदुस्तान की पहली मंजिल पर स्थित उनके काठ के केबिन में ही चरण सिंह सरकार में विदेश मंत्री रहे श्यामनंदन मिश्र, रूसी विद्वान पी ए बारान्निकोव, नंदकिशोऱ त्रिखा, सैफुद्दीन सोज से मुझे मुलाकात का मौका मिला..वही सैफुद्दीन सोज, जो कश्मीर पर दिए अपने बयान को लेकर विवाद खड़ा कर चुके हैं.. तब वे आज की तरह कांग्रेस में नहीं, नेशनल कांफ्रेंस के तीन में से एक सांसद होते थे...उन्हें हुमायूं रोड पर घर मिला था, जिसमें वे रहा करते थे..उन दिनों उनकी हालत खास अच्छी नहीं थी..वह दौर कश्मीर में आतंकवाद के तेजी से पैर पसारने का था..लिहाजा कश्मीर पर लिखने वालों की मांग बढ़ गई थी.. सैफुद्दीन सोज चूंकि कश्मीरी हैं, लिहाजा उन्हें भी लिखने का चस्का लग गया था...लेखन के जरिए वे कुछ पैसे भी कमाना चाहते थे..इसलिए उन्होंने कृष्ण किशोर पांडेय से मुलाकात की थी..तब फ्रीलांसरों में के के पांडेय के तौर पर मशहूर पांडेय जी ने उनके पास जाने और उनसे उनके लेख लाने की जिम्मेदारी मुझे दी थी.. तब इंटरनेट नहीं था..लिहाजा वे अपने सहयोगी से अंग्रेजी में टाइप किया हुआ लेख तैयार रखते और मेेरे पीपी नंबर पर मैसेज दे देते। मैं इस उत्साह में जाकर उनके लेख ले आता, क्योंकि उसके अनुवाद की भी जिम्मेदारी मेरी होती थी...जिसके एवज में कभी साढ़े तीन सौ तो कभी चार सौ रूपए बतौर मेहनताना मिलता था...जिससे उस फाकामस्ती के दौर में कुछ दिन के गुजारे के लिए सहूलियत हो जाती... मुझे कभी याद नहीं है कि सोज ने उन दिनों कभी भारत विरोधी बात की हो...उलटे वे भारतीयता की ही बात करते थे..कभी ठीक से बैठने को भी नहीं बोलते थे..लेकिन लेख निकलने में देर होती तो मैं ही निर्लज्जता से उनकी बैठक में बैठ जाता... उनके दिन बहुरे तब, जब देवेगौड़ा सरकार में वे जलसंसाधन मंत्री बने..बाद में जब नेशनल कांफ्रेंस एनडीए में शामिल हुई तो सोज ने नेशनल कांफ्रेंस छोड़ कांग्रेस का दामन थाम लिया....इसके बाद जब उनसे संसद परिसर में मुलाकात भी हुई तो वे अनचीन्ह होने की कोशिश करते थे... कश्मीर के नेताओं की दरअसल हकीकत यही रही है, जब तक उनकी हैसियत नहीं रहती, चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक...तब तक वे भारत का गुण गाते नहीं थकते..उन्हें भारत में ही भविष्य नजर आता है.. लेकिन जैसे ही उनकी हैसियत बदलने लगती है, उनके सुर बदलने लगते हैं..सोज इसके अकेले उदाहरण नहीं हैं..कश्मीर को कूट-कूट कर खाने वाले फारूक़ अब्दुल्ला के बयान भी सोज के बयान से अलहदा नहीं हैं..बस तरीका अलग है.. ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि आखिर क्या वजह है कि कश्मीरी नेताओं के ताकत में आते ही बयान बदल जाते हैं...इतने कि वे भारत विरोधी हो जाते हैं..क्या इसके पीछे कुछ और पाने की लालसा होती है...या फिर कहीं से कुछ और मिल जाता है...जरूरी है कि अब इस नजरिए से सोज जैसे नेताओं के बयानों की चीरफाड़ हो..अगर वे दोषी हों, तो उनके भी खिलाफ वैसी ही कार्रवाई हो, जैसे ऐसे बयान देने वाले किसी दूसरे गैर कश्मीरी भारतीय नागरिक के खिलाफ होती रही है...

गुरुवार, 21 जून 2018

योग से योगा और आगे क्या ??


मेरे बिगड़ने के दिन शुरू हो चुके थे...हालांकि तब लगता था कि जिस राह पर चल रहे हैं, वही बहुत शानदार राह है..उस राह में गोष्ठियां थीं, प्रेस कांफ्रेंस थी, ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की बैठकें थीं...साहित्यिक समारोह थे...जिनमें शामिल होने पर शुरू में बड़ा उत्साह रहता था, लेकिन कई बार मिली उपेक्षाएं आहत भी कर देती थीं.. उन्हीं दिनों कुछ लोग ऐसे भी मिले, जिन्होंने खूब उत्साहित किया...उन्हीं में से एक थे नर्मदेश्वर चतुर्वेदी..उसी कुल-गोत्र के, जो मेरा-मेरे खानदान का है... अमर्त्य सेन के नाना, गुरूदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन के ऋषि अध्यापक आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से संत साहित्य का अवगाहन करने वाले पंडित परशुराम चतुर्वेदी नर्मदेश्वर जी के बड़े भाई थे.. क्या संयोग है कि हिंदी के दो बड़े संत कवियों की रचनाधर्मिता, उनके योगदान और उनकी महत्ता से हिंदी साहित्य को परिचित कराने वाले इतिहासकार-समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी और परशुराम चतुर्वेदी बलिया के ही थे... दोनों का गांव गंगा के किनारे, बस अंतर इतना कि द्विवेदी जी गंगा के उत्तरी तट के वासी थे तो परशुराम जी का गांव द्विवेदी जी के गांव के ठीक सामने गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है...द्विवेदी जी ने कबीर के अवदान से दुनिया को परिचित कराया तो परशुराम चतुर्वेदी ने मीरां से.... यह बात और है कि परशुराम चतुर्वेदी की कीर्ति पताका उतनी ऊंचाई पर नहीं फहर पाई, जैसा मान द्विवेदी जी को हासिल हुआ... बात बिगड़ने के दिनों की हो रही थी...तो उन्हीं दिनों बलिया के टाउन हाल में हिंदी पर एक कार्यक्रम हुआ...उसमें किसी विद्वान ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के नाम का उच्चारण नरसिंहा राव कर दिया...जैसा कि आजकल चलन ही हो गया है.. जब नर्मदेश्वर जी की बारी आई तो उन्होंने उस विद्वान पर कटाक्ष किया...अंग्रेजी के प्रभाव में नरसिंह , नरसिंहा हो गए, राम, रामा हो गए और गुप्त जी गुप्ता हो गए...जबकि गुप्ता, गुप्त शब्द का स्त्रीलिंग होता है... ऐसी ढेर सारी भाषा विज्ञान और व्याकरण विषयक उन्होंने बातें की.. नर्मदेश्वर जी से जुड़ा यह वाकया आज मुझे योग दिवस के उपलक्ष्य में आकाशवाणी समाचार मुख्यालय में हुए एक कार्यक्रम में याद आ गया। योग सिखाने वाली विदुषी ने आकाशवाणी समाचार में योग दिवस के मौके पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि योग अंग्रेजी के ए अक्षर के चलते, योगा हो गया है और इसमें डे भी मिल गया है.. मैं सोचने लगा कि अंग्रेजी ने किस तरह हमारे मूल शब्दों को भी बदल कर रख दिया है... हिंदी को मान सकते हैं कि वह अंग्रेजी के साथ समानांतर विकसित हुई है...इसलिए वह अंग्रेजी के असर में आ गई..लेकिन योग शब्द तो विशुद्ध रूप से संस्कृत का है...वैदिक संस्कृत हो या लौकिक, हर जगह योग ही शब्द के रूप में विद्यमान है.. कहा जाता है कि उदारीकरण की आंधी ने मूल्यों को उड़ा दिया है...हकीकत भी यही है..लेकिन इसने अपने डंडे भी लगाए हैं..ए का डंडा, जो राम को रामा, नरसिंह को नरसिंहा, और योग को योगा कर देती है...अगर यही चलन रहा तो किसी दिन यह योग को योगर्ट भी कर देगी तो हैरत नहीं होगी..और गुलाम मानसिकता को पीढ़ियों से ढो रहा हमारा समाज इसे ही गर्वोन्नत भाव से स्वीकार कर लेगा... वैसे योग संकुचित भी हो गया है...यह आसन और प्राणायाम का ही पर्याय बनकर रह गया है..जिन महर्षि पतंजलि को योग का आविष्कारक माना जाता है, उन्होंने योग के बारे में कहा है, यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि। यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के आठ अंग हैं। भारत में जिन षड्दर्शन की परंपरा है, जिनमें प्रमुख हैं, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत हैं। विश्वविद्यालयों में बाकायदा दर्शन शास्त्र की पढ़ाई होती है...स्कोरिंग यानी ज्यादा नंबर देने वाला विषय माना जाता है दर्शन शास्त्र...इसलिए सिविल सेवा की परीक्षाओं में भी इसके जरिए लोग कामयाबी हासिल करते हैं.. उनमें से कई आईएएस हैं, आईपीएस हैं..दूसरे सेवाओं के भी अधिकारी हैं..लेकिन लगता है कि परीक्षाएं पास करने के बाद वे भी योग दर्शन को भूल गए हैं..अगर ऐसा नहीं होता तो योग के इस एकांगी रूप पर वे सवाल जरूर उठाते.. यानी योग सिर्फ आसन और प्राणायाम नहीं, जीवन का एक दर्शन है..लेकिन हम हैं कि योगा के जरिए सिर्फ प्राणायाम और आसन के पीछे ही दौड़ रहे हैं... भारतीयता की परंपरा, सर्वांग जीवन की परंपरा है, जिसमें इह भी है और पर लोक भी...योग दोनों से अपने आठों अंगों के जरिए आत्मा को जोड़ता है...इसमें परमात्मा से जुड़ने की राह भी है..जब यह जुड़ना परम यानी क्लाइमेक्स पर पहुंचता है तो एक तरह से खुद को तिरोहित करना होता है...जिस बिंदु पर यह उपलब्धि हासिल होती है, उसे परमानंद कहते हैं.. काश कि हम योग को इस अंदाज में समझ पाते...उदारीकरण की आंधी से दूर..भारतीयता के दर्शन के एकदम करीब...

रविवार, 17 जून 2018

प्रेस विज्ञप्ति


मूंग और उड़द को भावांतर योजना में शामिल करने की मांग
नई दिल्ली 17 जून। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह से उनके कार्यालय में मुलाकात कर चना, मसूर और सरसों को प्राइस सपोर्ट स्कीम में रबी विपणन के लिए दिये गये सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। जिसके कारण मध्यप्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा दलहन उत्पादन संभव हो सका है। श्री चौहान ने केन्द्रीय मंत्री को प्रदेश में फसलों के जबरदस्त उत्पादन के बारे में जानकारी दी और खरीदी की सीमा को 50 हजार मीट्रिक टन और बढ़ाने का अनुरोध किया। केन्द्रीय मंत्री राधामोहन सिंह ने मुख्यमंत्री के अनुरोध पर खरीदी की सीमा को बढ़ाकर 17 लाख मीट्रिक टन करने का आश्वासन दिया। श्री चौहान ने बताया कि नेफेड से 05 हजार करोड़ की राशि अपेक्षित है। उन्होंने आग्रह किया कि इसे शीघ्र जारी करवाया जाय क्योंकि उपार्जन कार्य होने के उपरांत किसानों को समय पर राशि नहीं मिलने पर किसानों में आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो रही है। श्री चौहान ने कृषि मंत्री से ग्रीष्मकालीन मूंग का 100 लाख मीट्रिक टन और ग्रीष्मकालीन उड़द का 20 हजार मीट्रिक टन उपार्जन के लिए लक्ष्य तत्काल प्रदान किये जाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि भावांतर भुगतान योजना के अंतर्गत ग्रीष्मकालीन मूंग और ग्रीष्मकालीन उड़द उपार्जन को भी इस योजना के अंतर्गत शामिल किया जाय और उक्त योजना के अंतर्गत भुगतान के व्यय की राशि को 50 प्रतिशत राज्यांश तथा 50 प्रतिशत केन्द्रांश की मांग की। इसके साथ ही चौहान ने केन्द्रीय मंत्री को 23 जून से 06 जुलाई तक होने वाले विकास पर्व समारोह में आमंत्रित किया।

सुबह सवेरे अखबार में


बुधवार, 13 जून 2018

बिंदेश्वर पाठक को निक्की एशिया सम्मान


टोकियो, 13 जून। जाने-माने भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और सुलभ शौचालय जैसी सस्ती तकनीक के जनक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को यहां इस साल के प्रतिष्ठित निक्की एशिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह पुरस्कार संस्कृति और समुदाय श्रेणी के लिए दिया गया। जापान का प्रतिष्ठित निक्की-एशिया पुरस्कार एशिया की उन हस्तियों और संगठनों को दिया जाता है, जिन्होंने लोगों के सामुदायिक जिंदगी में क्रांतिकारी और सकारात्मक बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है। 1996 में निक्की इंडस्ट्री द्वारा स्थापित यह पुरस्करार एशिया में क्षेत्रीय विकास, विज्ञान, तकनीक और नवाचार के साथ ही संस्कृति और समुदाय की श्रेणी में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है। भारत से पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह और इन्फोसिस के चेयरमैन एन आर नारायणमूर्ति इस पुरस्कार से पहले सम्मानित हो चुके हैं। निक्की इंडस्ट्रीज ने अपने जापानी भाषा के अपने अखबार की 120वीं सालगिरह पर 1996 में इस पुरस्कार की स्थापना की थी। यह कंपनी जापान के प्रमुख आर्थिक अखबार का प्रकाशन करती है। जिसके अंग्रेजी और चीनी भाषा में भी संस्करण हैं। सुलभ इंटरनेशल के संस्थापक को आज सुबह यह सम्मान निक्की इंडस्ट्रीज के प्रेसिडेंट नाओतोशी ओकादा ने दिया। सम्मान की घोषणा करते हुए सम्मान समिति के अध्यक्ष फुजियो मितराई ने कहा कि डॉक्टर पाठक को यह सम्मान उनके देश की दो बड़ी चुनौतियों खराब साफ-सफाई व्यवस्था और भेदभाव की चुनौती का मुकाबला करने के लिए दिया जा रहा है। डॉक्टर पाठक के साथ चीन के पर्यावरण विद् मा जून को जहां इंटरनेट के जरिए सफाई व्यवस्था को सुधारने के लिए सम्मानित किया गया, वहीं वियतनाम के प्रोफेसर न्ग्यें थान लीम को विज्ञान और तकनीकी श्रेणी में बच्चों के लिए सस्ती दवाओं के विकास के लिए दिया गया। गौरतलब है कि डॉ पाठक ने दो गड्ढों वाले फ्लश और पर्यावरण अनुकूल कम्पोस्ट बनाने वाले सुलभ शौचालय का आविष्कार किया है। जिसने विकासशील दुनिया के करोड़ों लोगों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसके साथ ही इसने ग्रामीण महिलाओं और हाथ से मैला सफाई करने वाली जिंदगी में भी सकारात्मक बदलाव लाने में भूमिका निभाई है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विशेषज्ञ इस पुरस्कार के लिए अपनी तरफ से नामांकन दाखिल करते हैं। हालांकि वे स्वयं अपना नामांकन नहीं दाखिल कर सकते। इस पुरस्कार के लिए जापानी नागरिक और संगठन अपना नामांकन नहीं दे सकते। डॉ पाठक ने यह पुरस्कार समाज के उस कमजोर वर्ग को समर्पित किया जिसकी बेहतरी के लिए वे पांच दशकों से अधिक समय से अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कहा, "यह पुरस्कार विशेष रूप से एशिया में समाज की सेवा के प्रति मेरी प्रतिबद्धता में एक और मील का पत्थर साबित होगा।"

रविवार, 10 जून 2018

आलोचना से पहले विचार करें


भारतीय व्यवस्था में नवाचार का हमेशा विरोध होता है..यह अंग्रेजी राज में विकसित मानसिकता की देन है..सरकार ने संयुक्त सचिव स्तर पर सीधे भर्तियां करने की जो शुरूआत की है, उसका विरोध भी नवाचार का विरोध है... अतीत ही क्यों, आपके आसपास कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जिनका शैक्षिक स्तर कमजोर है, लेकिन व्यवहारिकता या तकनीक की दुनिया के बादशाह हैं... पश्चिम को ही लीजिए, थॉमस अल्वा एडिशन कितने पास थे, जेम्स वाट ने कितनी पढ़ाई की थी, रिचर्ड ट्रैविथिक ने कितनी पढ़ाई की थी, अब्राहम लिंकन का शैक्षिक स्तर भी जांचिए, लेकिन उन्होंने दुनिया को बदल दिया... शिक्षा का अपना महत्व है..लेकिन उसकी भी अपनी जड़ता है। संघ लोकसेवा आयोग द्वारा देश की बेहतरीन प्रतिभाएं चुनी जाती हैं, लेकिन ये प्रतिभाएं नैतिकता और व्यवहारिकता के धरातल पर कितनी खरी हैं, आए दिन सामने आने वाली भ्रष्टाचार कथाएं इसी सोच को आइना दिखाती हैं। राजनीति के बारे में कहा जाता है कि एक बार चुनाव जीत गए तो समृद्धि की राह खुल जाती है, संघ लोकसेवा आयोग के जरिए चुनी गई प्रतिभाओं के लिए भी यही कहा जाता है। आखिर क्या वजह है कि एक-डेढ़ लाख तनख्वाह पाने वाली इन प्रतिभाओं के राज्यों की राजधानियों में आलीशान मकान जल्द ही बन जाते हैं, उनके बच्चे विदेशों में पढ़ने लगते हैं और उनके घर में शानो-शौकत की सारी सुविधाएं जल्द ही आ जाती हैं। गांवों में स्थित उनके घर भी चमक जाते हैं। क्या यह सब नैतिकताओं के चलते होता है। मैक्सवेबर ने नौकरशाही के लिए स्टील फ्रेमवर्क की जो अवधारणा दी है, उसकी एक कमी यह भी है। अव्वल तो देश में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जो जिस काम के लिए काबिल हो, चाहे उसकी उम्र जितनी भी हो, चाहे उसका उच्च शैक्षिक स्तर वैसा ना भी हो, तो उसे वह काम करने देना चाहिए। अमेरिका में यह सोच विकसित हो गई है। इसलिए वहां उम्र के पांचवें दशक में भी लोग जिंदगी के नए अध्याय शुरू करने में नहीं हिचकते..जबकि अपने यहां लोग उस वक्त दुनिया से गुजरने की तैयारी करने लगते हैं.. संयुक्त सचिव स्तर पर सीधे भर्तियों की योजना की चीरफाड़ करते वक्त इन तर्कों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

हरिभूमि अखबार में...


सोमवार, 28 मई 2018

देस की भाषा में मेडिकल की पढ़ाई


डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल मैं इंदौर में हूं। यहां के अखबारों में छपी एक खबर ऐसी है कि जिस पर पूरे देश का ध्यान जाना चाहिए। केंद्र सरकार का भी और प्रांतीय सरकारों का भी। चिकित्सा के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी कदम है। पिछले 50 साल से देश के नेताओं और डाॅक्टरों से मैं आग्रह कर रहा हूं कि मेडिकल की पढ़ाई आप हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शुरु करें। ताकि उसके कई फायदे देश को एक साथ हों। एक तो पढ़ाई के आसान होने से डाॅक्टरों की संख्या बढ़ेगी। गांव-गांव तक रोगियों का इलाज हो सकेगा। दूसरा, इलाज के नाम पर अंग्रेजी के जादू-टोने से जो ठगी होती है, वह रुकेगी। तीसरा, दवाइयों के दामों में जो लूट-पाट मचती है, वह रुकेगी। हिंदी में नुस्खे लिखे जाएंगे तो वे मरीज के भी पल्ले पड़ेंगे। चौथा, स्वभाषा में पढ़ाई होने पर छात्रों की मौलिकता में वृद्धि होती है। यदि वे अनुसंधान अपनी भाषा में करेंगे तो भारत में पैदा होनेवाले रोगों का मौलिक इलाज़ ढूंढ सकेंगे। विदेशों पर होनेवाली उनकी पूर्ण निर्भरता घटेगी। इन सब बुनियादी कामों की शुरुआत अब मध्यप्रदेश में हो रही है। यहां की मेडिकल युनिवर्सिटी के बोर्ड आॅफ स्टडीज ने फैसला कर लिया है कि सभी चिकित्सा परीक्षाएं अब हिंदी में भी होंगी। मेरी बधाई ! ऐसी अनुमति देनेवाली दिल्ली की मेडिकल कौंसिल को भी धन्यवाद ! और सबसे ज्यादा आभार, धन्यवाद और बधाई भारत के स्वास्थ्य मंत्री जगतप्रकाश नड्ढा को, जिनसे इस मामले में बराबर मेरी बात होती रही और जिन्होंने लगभग दो माह पहले ही मुझसे कहा था कि अब मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में ही नहीं, कई भारतीय भाषाओं में शुरु होने ही वाली है। यह मप्र में सबसे पहले शुरु हुई है, इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज चौहान भी बधाई के पात्र हैं। मप्र के डाॅक्टर बंधुओं से मेरा निवेदन है कि वे मेडिकल की हिंदी पाठ्य-पुस्तकें जल्दी से जल्दी तैयार करें ताकि मप्र चिकित्सा-क्रांति का अग्रदूत बन सके।

रविवार, 27 मई 2018

प्रिय पाठक/ फाइनेंसर


बरसों से इच्छा थी कि अपनी एक साहित्यिक, सांस्कृतिक और मीडिया की अभिरूचि पर केंद्रित वेबसाइट हो। जिसमें स्तरीय किताबों की समीक्षा, देश-दुनिया की बड़ी सांस्कृतिक घटनाएं और उन पर टिप्पणियों के साथ ही भारतीय समाज और दुनिया में आ रहे बदलावों पर चर्चा हो। खबरें और विमर्श भी हो। लेकिन आर्थिक कारणों से यह कार्य हो नहीं पा रहा है। अगर आप चाहते हैं कि आज की दुनिया में ऐसी किसी वेबसाइट की जरूरत है तो आप फाइनेंस में सहयोग करके या विज्ञापन दिलाकर इस कार्य में मदद करें...आपका सहयोग वर्चुअल दुनिया के सहारे विश्व और भारत को समझने-समझाने में मददगार हो सकता है।

शुक्रवार, 25 मई 2018

जीवन : शब्दों के बीच और शब्दों से परे


गिरीश्वर मिश्र आज सभी संचार माध्यमों द्वारा हमारा पूरा परिवेश शब्दमय हो रहा है। चारो ओर तरह-तरह के शब्द गूँज रहे हैं। चूँकि शब्द महज़ प्रतीक होते हैं इसलिए ध्वनि से अधिक इनकी व्यंजना या अर्थ का महत्व होता है । इन शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए सिर्फ़ एक माध्य
म की ज़रूरत होती है। माध्यम पर सवार ये शब्द अपने मुक़ाम की ओर आगे चल पड़ते हैं। उन्हें थोड़ा सा सहारा चाहिए फिर वे ग़ज़ब ढाते हैं। वे दूसरों तक संदेश पहुँचाने, निर्देश देने, सहारा पहुँचाने, इंगित करने का काम आसान कर देते हैं। इसके अलावे इनकी बड़ी भूमिका हमारे मनोभावों की व्यापक दुनिया रचने, बसाने और अनुभव करने में सहायक के रूप में हैं। प्रशंसा, उत्साह, विषाद, हर्ष, माधुर्य, आह्लाद, शोक, पीड़ा, साहस, निंदा, लज्जा, आक्रोश, स्तुति, दया, वात्सल्य, भक्ति, घात, प्रतिघात, आसत्ति (उलझन), स्फाल (घबराहट), करुणा, कृतज्ञता, प्रेम, प्रणय, ममत्व, औदार्य, मृदुता, आनंद, आह्लाद, स्पृहा, ईर्ष्या, जुगुप्सा, द्वेष, घृणा, क्रूरता, हिंसा, ग्लानि, अनुनय, हास-परिहास, कुतूहल, विराग, प्रतिपत्ति, विस्मय, कौतुक, परिताप, व्यंग, कुंठा, विनय, प्रार्थना, पूजा, आराधना, पश्चाताप, वियोग, आदि जाने कितने भावों और रसों को व्यक्त करने के लिए अनेकानेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य जीवन की इबारत हर क्षण इन्हीं सबके साथ से पढ़ी लिखी जाती है। यही सब तो होता रहता है प्रतिदिन। अहर्निश इन्हीं से हम परिचालित होते रहते हैं। जीवन-व्यापार में नफ़ा नुक़सान और कुछ नहीं इन्हीं की कारस्तानी होती है। भावों से ही जीवन में रंग भरे जाते हैं और इन भावों को सजीव करने वाले शब्द ही हैं । शब्द हमें अलौकिक ढंग से समृद्ध करते चलते है। कभी ये शब्द आमने-सामने बोल कर या फिर लिखित रूप में सजीव हुआ करते थे। लिपि के आविष्कार के साथ लोग वाणी को लिखित रूप मिला। वह भौतिक वस्तु के क़रीब आई। लोग अभिव्यक्ति के संचार के लिए पत्र लिखने लगे। वाणी का भी विस्तार हुआ। टेलीफ़ोन, मोबाइल, स्काइप, फ़ेस टाइम के ज़रिए वाणी और वक्ता की निकटता देश कल की सीमाओं को पार करती जा रही है। अब ई-माध्यम (इंटरनेट) इनको और द्रुत गति से लिखित सामग्री को तुरत-फुरत देश-विदेश सर्वत्र पहुँचाते रहने का कार्य करते हैं। शब्दों की सत्ता और व्याप्ति के नित्य नए आयाम खुलते जा रहे हैं। पर शब्द केवल अभिव्यक्ति या प्रस्तुति तक ही सीमित नहीं रहते। हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्द लेंस की तरह भी काम करते हैं और उनके माध्यम से हम दुनिया का दूसरा रूप भी देख पाते हैं। तभी भर्तृहरि ने कहा शब्द से ही दुनिया हमें विदित हो पाती है ( सर्वं शब्देन भासते!) यों भी कहा जा सकता है कि जब हम अपने पार जाकर अपना अतिक्रमण करना चाहते हैं या फिर जो हैं उससे आगे जा कर कुछ और होना चाहते हैं, तो उसे भी संभव करने में ये शब्द बड़े मददगार होते हैं। शब्द हमारी कल्पना शक्ति को ऊर्जा देते हैं और रूपांतरण को संभव बनाते हैं। पूरा सर्जनात्मक साहित्य शब्दों की इस विलक्षण रचनाधर्मिता का प्रमाण है। काव्य, नाटक, कथा और उपन्यास जैसी विधाओं में रचे साहित्य से समाज का न केवल मानस बनता बिगड़ता है बल्कि कार्य करने की दिशा भी तय होती है। वस्तु न हो कर प्रतीक होने के कारण शब्दों के प्रयोग को लेकर बड़ी गुंजाइश रहती है। प्रतिभाशाली लेखक और कवि छंद, लय और अलंकारों की सहायता से अपनी प्रस्तुति में विचित्रता लाते हैं। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, यमक जैसे अलंकार ध्वनि और शब्दार्थ की अद्भुत जोड़ी बैठाते हैं। इनके प्रयोग से वाक्चातुर्य कुछ ऐसा समाँ बाँधता है कि सुनने वाले चकित हो उठते हैं। प्रकट रूप से कहते हुए भी कुछ न कहना और न कहते हुए भी बहुत कुछ कह डालना और कहते हुए भी छुपा ले जाने की क्षमता परम्परागत कवि-कुशलता या निपुणता में परिगणित होती है। इस तरह जोड़ने और जुड़ने का अवसर पैदा करते ये शब्द हमारे निजी और सामाजिक जीवन का मानचित्र तैयार करते हुए हमारे अस्तित्व के साथ अभिन्न रूप से सम्बद्ध होते हैं। जब शब्द कार्यों से जुड़ते हैं तो हमारी दुनिया की कायापलट करते हैं। ये शब्द हमारे मानस के स्तर पर पहले और भौतिक स्तर पर पर उसके बाद बदलाव लाते हैं क्योंकि उनका ग्रहण हम मानस से ही करते हैं। ऐसे में यदि शब्दों कि दुनिया अक्षर-विश्व कही जाय (अनादिनिधनं देवं शब्दतत्वं यदक्षरं ) जो कभी समाप्त न हो तो, यह स्वाभाविक ही है। वैसे तो शब्दों का खेल और जादूगरी जीवन में हमेशा ही चलती रहती है पर चुनाव जैसे राजनैतिक-सामाजिक महत्व के मौक़े पर उसके नए रंग-ढंग और तेवर दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तब बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश बड़ी शिद्दत से की जाती है। समय का दबाव शब्दों की दौड़ को गति दे कर तीव्र बना देता है। तब भाषा विरोधी को परास्त करने का उपकरण बन जाती है। उठापटक वाली इस दौड़ में वाक्युद्ध शुरू हो जाता है। हास्य-व्यंग, तर्क-कुतर्क, तथ्य और संभावना सबका दौर चलता है। ढूँढ-ढूँढ कर तथ्य जुटाए जाते हैं और उनका नए-पुराने संदर्भों में चूल गाँठ फ़िट की जाती है। कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ घटा कर दिन-प्रतिदिन चुनावी माहौल की गर्माहट बनाए रखने की कोशिश रहती है। इन सबके बीच शब्द का व्यापार पनपता है जिसमें नेता, अभिनेता, विशेषज्ञ हर कोई शामिल रहता है और उनकी मदद से ‘जेनुइन’ और प्रामाणिक लगने वाला बड़ा चित्र उकेरा जाता है। जन समर्थन हासिल करने के लिए एक दूसरे पर लांछन लगा कर छवि धूमिल करना या संशयग्रस्त सिद्ध करना आम बात हो गई है। शब्दों से सपने बुनने और बेंचने के लिए लोक लुभावन मेनिफ़ेस्टो या घोषणापत्र तैयार किया जाता है। आम जनता इन सबको अपने ढंग से आत्मसात करती है । सच पूछें तो हमारे शब्दों की दुनिया बड़ी ही विचित्र होती है। वे एक ओर मूर्त और प्रत्यक्ष दुनिया से पहचान (नाम) के रूप में जुड़ते हैं तो दूसरी ओर एक समानांतर दुनिया भी रचते जाते हैं और आगे रचने की संभावना भी बनाए रखते हैं । मूलतः वे प्रतीक हैं और इसलिए उनसे हम तरह-तरह के काम लेना संभव हो पता है। संवाद और संचार का सारा दारोमदार इन्हीं पर होता है। चूँकि आत्माभिव्यक्ति जीने की शर्त है हम शब्दों से विलग नहीं हो सकते। यह हमारी अपनी रचना है और ऐसी रचना जो हमें रचती जाती है। शब्द एक नई दुनिया का द्वार खोलते हैं। अपरिचित शब्द जब परिचित होता है तो यकायक प्रच्छ्न प्रकट हो जाता है और निरर्थक सर गर्भित। शब्द हमारे अनुभव की सीमा गढ़ते हैं और उसका विस्तार भी करते हैं। कहते हैं संसार में लगभग सात हज़ार भाषाएँ बोली जाती हैं। हर भाषा का अपना सांस्कृतिक संदर्भ है जिसकी परिधि में हम संवेदनाओं को शब्द दे कर उससे जुड़ते हैं। प्रत्येक भाषा हमें अपने यथार्थ को ग्रहण करने, उकेरने और रचने का अवसर देती है।अतः भाषाओं का संस्कार बचाए रखना ज़रूरी है।

हिन्दी गजल और दुष्यंत कुमार


डॉ.सौरभ मालवीय
हिन्दी गजल हिन्दी साहित्य की एक नई विधा है. नई विधा इसलिए है, क्योंकि गजल मूलत फारसी की काव्य विधा है. फारसी से यह उर्दू में आई. गजल उर्दू भाषा की आत्मा है. गजल का अर्थ है प्रेमी-प्रेमिका का वार्तालाप. आरंभ में गजल प्रेम की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम थी, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ इसमें बदलाव आया और प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषय भी इसमें सम्मिलित हो गए. आज हिन्दी गजल ने अपनी पहचान बना ली है. हिन्दी गजल को शिखर तक पहुंचाने में समकालीन कवि दुष्यंत कुमार की भूमिका सराहनीय रही है. वे दुष्यंत कुमार ही हैं, जिन्होंने हिन्दी गजल की रचना कर इसे विशेष पहचान दिलाई. दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के गांव राजपुर नवादा में हुआ था. उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था. उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी. उन्होंने आकाशवाणी भोपाल में सहायक निर्माता के रूप में कार्य शुरू किया था. प्रारंभ में वे परदेशी के नाम से लिखा करते थे, किन्तु बाद में वे अपने ही नाम से लिखने लगे. वे साहित्य की कई विधाओं में लेखन करते थे. उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत, छोटे-छोटे सवाल, आंगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी सम्मिलित हैं. उन्होंने एक मसीहा मर गया नामक नाटक भी लिखा. उन्होंने काव्य नाटक एक कंठ विषपायी की भी रचना की. उन्होंने लघुकथाएं भी लिखीं. उनके इस संग्रह का नाम मन के कोण है. उनका गजल संग्रह साये में धूप बहुत लोकप्रिय हुआ. दुष्यंत कुमार की गजलों में उनके समय की परिस्थितियों का वर्णन मिलता है. वे केवल प्रेम की बात नहीं करते, अपितु अपने आसपास के परिवेश को अपनी गजल का विषय बनाते है. वे कहते हैं- ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं ख़ुदा जाने वहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भ्रष्टाचार का उल्लेख किया. वे कहते हैं- इस सड़क पर इस कद्र कीचड़ बिछी है हर किसी का पांव घुटने तक सना है शासन-प्रशासन की व्यवस्था पर भी वे कटाक्ष करते हैं. वे कहते हैं- भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा वे सामाजिक परिस्थितियों पर भी अपनी लेखनी चलाते हैं. समाज में पनप रही संवेदनहीनता और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास पर वे कहते हैं- इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां वे पलायनवादी कवि नहीं हैं. उन्होंने परिस्थितियों के दबाव में पलायन को नहीं चुना. वे हर विपरीत परिस्थिति में धैर्य के साथ आगे बढ़ने की बात करते हैं. उनका मानना था कि अगर साहस के साथ मुकाबला किया जाए, तो कोई शक्ति आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती. वे कहते हैं- एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों वास्तव में दुष्यंत कुमार आम आदमी के कवि हैं. उन्होंने आम लोगों की पीड़ा को अपनी गजलों में स्थान दिया. उनके दुखों को गहराई से अनुभव किया. वे कहते हैं- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें कोई अभाव में न रहे. किन्तु देश में गरीबी है. लोग अभाव में जीवन व्यतीत कर रहे हैं. उन्हें भरपेट खाने को भी नहीं मिलता. इन परिस्थतियों से दुष्यंत कुमार कराह उठते हैं. वे कहते हैं- कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार ने बहुत कम समय में वह लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी, जो हर किसी को नहीं मिलती. किन्तु नियति के क्रूर हाथों ने उन्हें छीन लिया. उनका निधन 30 दिसम्बर, 1975 में हुआ. केवल 42 वर्ष की अवस्था में हिन्दी गजल का एक नक्षत्र हमेशा के लिए अस्त हो गया. हिन्दी साहित्य जगत में उनकी कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता.

शुक्रवार, 4 मई 2018

Updates to our Terms of Service and Privacy Policy

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You should read our new policy in full, but the key updates include:
  More focus on the controls we offer you over your personal data;
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