शुक्रवार, 25 मई 2018

जीवन : शब्दों के बीच और शब्दों से परे


गिरीश्वर मिश्र आज सभी संचार माध्यमों द्वारा हमारा पूरा परिवेश शब्दमय हो रहा है। चारो ओर तरह-तरह के शब्द गूँज रहे हैं। चूँकि शब्द महज़ प्रतीक होते हैं इसलिए ध्वनि से अधिक इनकी व्यंजना या अर्थ का महत्व होता है । इन शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए सिर्फ़ एक माध्य
म की ज़रूरत होती है। माध्यम पर सवार ये शब्द अपने मुक़ाम की ओर आगे चल पड़ते हैं। उन्हें थोड़ा सा सहारा चाहिए फिर वे ग़ज़ब ढाते हैं। वे दूसरों तक संदेश पहुँचाने, निर्देश देने, सहारा पहुँचाने, इंगित करने का काम आसान कर देते हैं। इसके अलावे इनकी बड़ी भूमिका हमारे मनोभावों की व्यापक दुनिया रचने, बसाने और अनुभव करने में सहायक के रूप में हैं। प्रशंसा, उत्साह, विषाद, हर्ष, माधुर्य, आह्लाद, शोक, पीड़ा, साहस, निंदा, लज्जा, आक्रोश, स्तुति, दया, वात्सल्य, भक्ति, घात, प्रतिघात, आसत्ति (उलझन), स्फाल (घबराहट), करुणा, कृतज्ञता, प्रेम, प्रणय, ममत्व, औदार्य, मृदुता, आनंद, आह्लाद, स्पृहा, ईर्ष्या, जुगुप्सा, द्वेष, घृणा, क्रूरता, हिंसा, ग्लानि, अनुनय, हास-परिहास, कुतूहल, विराग, प्रतिपत्ति, विस्मय, कौतुक, परिताप, व्यंग, कुंठा, विनय, प्रार्थना, पूजा, आराधना, पश्चाताप, वियोग, आदि जाने कितने भावों और रसों को व्यक्त करने के लिए अनेकानेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य जीवन की इबारत हर क्षण इन्हीं सबके साथ से पढ़ी लिखी जाती है। यही सब तो होता रहता है प्रतिदिन। अहर्निश इन्हीं से हम परिचालित होते रहते हैं। जीवन-व्यापार में नफ़ा नुक़सान और कुछ नहीं इन्हीं की कारस्तानी होती है। भावों से ही जीवन में रंग भरे जाते हैं और इन भावों को सजीव करने वाले शब्द ही हैं । शब्द हमें अलौकिक ढंग से समृद्ध करते चलते है। कभी ये शब्द आमने-सामने बोल कर या फिर लिखित रूप में सजीव हुआ करते थे। लिपि के आविष्कार के साथ लोग वाणी को लिखित रूप मिला। वह भौतिक वस्तु के क़रीब आई। लोग अभिव्यक्ति के संचार के लिए पत्र लिखने लगे। वाणी का भी विस्तार हुआ। टेलीफ़ोन, मोबाइल, स्काइप, फ़ेस टाइम के ज़रिए वाणी और वक्ता की निकटता देश कल की सीमाओं को पार करती जा रही है। अब ई-माध्यम (इंटरनेट) इनको और द्रुत गति से लिखित सामग्री को तुरत-फुरत देश-विदेश सर्वत्र पहुँचाते रहने का कार्य करते हैं। शब्दों की सत्ता और व्याप्ति के नित्य नए आयाम खुलते जा रहे हैं। पर शब्द केवल अभिव्यक्ति या प्रस्तुति तक ही सीमित नहीं रहते। हमारे द्वारा प्रयुक्त शब्द लेंस की तरह भी काम करते हैं और उनके माध्यम से हम दुनिया का दूसरा रूप भी देख पाते हैं। तभी भर्तृहरि ने कहा शब्द से ही दुनिया हमें विदित हो पाती है ( सर्वं शब्देन भासते!) यों भी कहा जा सकता है कि जब हम अपने पार जाकर अपना अतिक्रमण करना चाहते हैं या फिर जो हैं उससे आगे जा कर कुछ और होना चाहते हैं, तो उसे भी संभव करने में ये शब्द बड़े मददगार होते हैं। शब्द हमारी कल्पना शक्ति को ऊर्जा देते हैं और रूपांतरण को संभव बनाते हैं। पूरा सर्जनात्मक साहित्य शब्दों की इस विलक्षण रचनाधर्मिता का प्रमाण है। काव्य, नाटक, कथा और उपन्यास जैसी विधाओं में रचे साहित्य से समाज का न केवल मानस बनता बिगड़ता है बल्कि कार्य करने की दिशा भी तय होती है। वस्तु न हो कर प्रतीक होने के कारण शब्दों के प्रयोग को लेकर बड़ी गुंजाइश रहती है। प्रतिभाशाली लेखक और कवि छंद, लय और अलंकारों की सहायता से अपनी प्रस्तुति में विचित्रता लाते हैं। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, यमक जैसे अलंकार ध्वनि और शब्दार्थ की अद्भुत जोड़ी बैठाते हैं। इनके प्रयोग से वाक्चातुर्य कुछ ऐसा समाँ बाँधता है कि सुनने वाले चकित हो उठते हैं। प्रकट रूप से कहते हुए भी कुछ न कहना और न कहते हुए भी बहुत कुछ कह डालना और कहते हुए भी छुपा ले जाने की क्षमता परम्परागत कवि-कुशलता या निपुणता में परिगणित होती है। इस तरह जोड़ने और जुड़ने का अवसर पैदा करते ये शब्द हमारे निजी और सामाजिक जीवन का मानचित्र तैयार करते हुए हमारे अस्तित्व के साथ अभिन्न रूप से सम्बद्ध होते हैं। जब शब्द कार्यों से जुड़ते हैं तो हमारी दुनिया की कायापलट करते हैं। ये शब्द हमारे मानस के स्तर पर पहले और भौतिक स्तर पर पर उसके बाद बदलाव लाते हैं क्योंकि उनका ग्रहण हम मानस से ही करते हैं। ऐसे में यदि शब्दों कि दुनिया अक्षर-विश्व कही जाय (अनादिनिधनं देवं शब्दतत्वं यदक्षरं ) जो कभी समाप्त न हो तो, यह स्वाभाविक ही है। वैसे तो शब्दों का खेल और जादूगरी जीवन में हमेशा ही चलती रहती है पर चुनाव जैसे राजनैतिक-सामाजिक महत्व के मौक़े पर उसके नए रंग-ढंग और तेवर दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तब बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश बड़ी शिद्दत से की जाती है। समय का दबाव शब्दों की दौड़ को गति दे कर तीव्र बना देता है। तब भाषा विरोधी को परास्त करने का उपकरण बन जाती है। उठापटक वाली इस दौड़ में वाक्युद्ध शुरू हो जाता है। हास्य-व्यंग, तर्क-कुतर्क, तथ्य और संभावना सबका दौर चलता है। ढूँढ-ढूँढ कर तथ्य जुटाए जाते हैं और उनका नए-पुराने संदर्भों में चूल गाँठ फ़िट की जाती है। कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ घटा कर दिन-प्रतिदिन चुनावी माहौल की गर्माहट बनाए रखने की कोशिश रहती है। इन सबके बीच शब्द का व्यापार पनपता है जिसमें नेता, अभिनेता, विशेषज्ञ हर कोई शामिल रहता है और उनकी मदद से ‘जेनुइन’ और प्रामाणिक लगने वाला बड़ा चित्र उकेरा जाता है। जन समर्थन हासिल करने के लिए एक दूसरे पर लांछन लगा कर छवि धूमिल करना या संशयग्रस्त सिद्ध करना आम बात हो गई है। शब्दों से सपने बुनने और बेंचने के लिए लोक लुभावन मेनिफ़ेस्टो या घोषणापत्र तैयार किया जाता है। आम जनता इन सबको अपने ढंग से आत्मसात करती है । सच पूछें तो हमारे शब्दों की दुनिया बड़ी ही विचित्र होती है। वे एक ओर मूर्त और प्रत्यक्ष दुनिया से पहचान (नाम) के रूप में जुड़ते हैं तो दूसरी ओर एक समानांतर दुनिया भी रचते जाते हैं और आगे रचने की संभावना भी बनाए रखते हैं । मूलतः वे प्रतीक हैं और इसलिए उनसे हम तरह-तरह के काम लेना संभव हो पता है। संवाद और संचार का सारा दारोमदार इन्हीं पर होता है। चूँकि आत्माभिव्यक्ति जीने की शर्त है हम शब्दों से विलग नहीं हो सकते। यह हमारी अपनी रचना है और ऐसी रचना जो हमें रचती जाती है। शब्द एक नई दुनिया का द्वार खोलते हैं। अपरिचित शब्द जब परिचित होता है तो यकायक प्रच्छ्न प्रकट हो जाता है और निरर्थक सर गर्भित। शब्द हमारे अनुभव की सीमा गढ़ते हैं और उसका विस्तार भी करते हैं। कहते हैं संसार में लगभग सात हज़ार भाषाएँ बोली जाती हैं। हर भाषा का अपना सांस्कृतिक संदर्भ है जिसकी परिधि में हम संवेदनाओं को शब्द दे कर उससे जुड़ते हैं। प्रत्येक भाषा हमें अपने यथार्थ को ग्रहण करने, उकेरने और रचने का अवसर देती है।अतः भाषाओं का संस्कार बचाए रखना ज़रूरी है।

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