शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

फ्रांस का औपन्यासिक चित्रण


उमेश चतुर्वेदी
(यथावत में प्रकाशित)
हिंदी पाठकों के लिए सुनील गंगोपाध्याय का नाम अनजाना नहीं है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे गंगोपाध्याय के रचनात्मक संसार को हिंदी पाठकों ने ज्यादातर कहानियों और उनके उपन्यासों के जरिये ही जाना है। बांग्ला साहित्य के अप्रतिम हस्ताक्षर रहे सुनील गंगोपाध्याय गजब के साहित्यिक पत्रकार भी रहे हैं। साहित्यिक पत्रकारिता का संस्कार और साहित्यिक मन जब मिलते हैं तो उसके प्रभाव से जो भ्रमण वृत्तांत सामने आता है, वह उपन्यास और कई बार तो कविता जैसा आनंद देने लगता है। सुनील गंगोपाध्याय का हिंदी में अनूदित होकर आए भ्रमण वृत्तांत चित्रकला, कविता के देशे को पढ़ते हुए बार-बार ऐसा अनुभव होता है। सुनील गंगोपाध्याय ने साठ के दशक में अमेरिका में एक लेखन प्रोग्राम के तहत अमेरिकी शहर आयोवा की यात्रा की थी। इस यात्रा से पहले वे कलकत्ता, अब कोलकाता के साहित्यिक समाज में अपना स्थान बना चुके थे। बांग्ला में लगातार जारी उनके लेखन ने उन्हें इस यात्रा का मौका दिलाने में भूमिका निभाई थी। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के उस घर घुस्सू युवा के लिए यह आमंत्रण ही चौंकाऊ था। जिसके लिए विदेश यात्रा पर जाना तो एक सपना तो था, लेकिन उसका उससे भी बड़ा सपना था अपने निम्नमध्यवर्गीय माहौल में ही जीते हुए अपने ही परिवार के बीच अपने ही शहर में रहना। लेकिन इस सपने में एक यह सपना भी था कि वह महान साहित्यकारों और चित्रकारों के साथ ही पूरी दुनिया में अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों और संभ्रांत समाज के लिए विख्यात फ्रांस का दर्शन भी करे। लेकिन यह दर्शन इतना जल्दी हो सकता है, युवा गंगोपाध्याय सोच भी नहीं पाते। आयोवा जाते वक्त जब हवाई जहाज पेरिस हवाई अड्डे पर रूका तो फ्रांस दर्शन का सपना जैसे पूरा होता नजर आया और पेरिस हवाई अड्डे से ही फ्रांस के दर्शन में इतना निमग्न हुए कि वहां से अमेरिका जाने वाली फ्लाइट ही छूट गई। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं..खुद लेखक के शब्दों में हमारी दृष्टि में उस वक्त फ्रांस स्वर्ग के समान था। असंख्य शिल्पी-साहित्यकार-कवियों की लीला भूमि....यहां ही देगा, मोने,माने, गोगा, मातिस-रूयो, जैसे महान शिल्पी..आज भी यहां चित्र बनाते हैं पिकासो.

ऐसे फ्रांस प्यार में पगे शख्स को संयोगवश आयोवा में एक फ्रेंच लड़की मिल गई मार्गरेट..अंदर से बेहतर औरत...एक ऐसी औरत जो अंदर और बाहर एक ही जैसी थी..जो कविता की मासूम प्रेमी और तमाम उदात्तता के बावजूद वह वैसी लड़की भी नहीं थी..जैसा कि आमतौर पर पश्चिमी समाज में उस समय तक बदलाव हो रहा था। बेहद मासूम इस लड़की को लेकर इस पुस्तक के नौ अध्यायों में जिक्र है। मार्गरेट सचमुच की पात्र है। लेकिन गंगोपाध्याय की नौ महीने तक दोस्त रही यह लड़की अपनी मासूमियत और निस्सीम पवित्र प्यार में निर्मल वर्मा के उपन्यास वे दिन की नायिका रायना की याद दिलाती है...मासूमियत दोनों में कूट-कूट कर भरी है। बस अंतर इतना है कि रायना चुप रहती है और मार्गरेट लगातार बोलती है..साहित्य, समाज, कविता, दर्शन...इससे भी इतर और भौतिक दुनिया हो सकती है..लगातार साथ रहते जवान स्त्री-पुरुषों में इसके इतर अलग संवाद और संबंध भी हो सकते हैं..मार्गरेट नहीं सोचती थी..इसीलिए एक दिन अमेरिकी समाज में सहज संभाव्य चुंबन की मांग गंगोपाध्याय उससे कर बैठे तो उन्हें भी वह बाकी मर्दों जैसा मानने लगी..उसकी आंसुओं की बाढ़ में गंगोपाध्याय को ग्लानि होने लगी। अपनी दोस्ती टूटती नजर आई। बहरहाल दोस्ती बरकरार रही और इस पुस्तक को पढ़ते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर एक फ्रेंच लड़की के मासूम विचार आज के दौर में अतार्किक और असहज भले लगें, प्रभावित जरूर करते हैं।
आयोवा में अब भी लेखन प्रोग्राम चलता है। पॉल एंजेल का लगाया यह बिरवा बड़ा वृक्ष बनकर अब दुनिया भर में अपनी सुबास पहुंचा रहा है। पॉल एंजेल ने यह प्रोग्राम आयोवा के छोटे व्यापारियों, किसानों और दूसरे लोगों से सहयोग लेकर खड़ा किया था। इस प्रोग्राम में हिंदी कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल भी जा चुके हैं। उन्होंने भी आयोवा के इस प्रोग्राम में गुजारे अपने दिनों पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तांत लिखा है- एक बार आयोवा...चित्रकला के देश में भले ही एक बार आयोवा से पहले आई हो..लेकिन पढ़ने के क्रम में इन पंक्तियों के लेखक के लिए यह परवर्ती पुस्तक है। इसलिए सुनील गंगोपाध्याय के इस वृत्तांत को पढ़ते हुए एक बार आयोवा का गद्य जरूर याद आता है। मंगलेश भी अपने परिवार को लगातार याद करते रहे...गंगोपाध्याय भी लगातार अपने घर, अपनी मां, अपने भाइयों को याद करते रहे। इस पूरी किताब में आयोवा, उसका विश्वविद्यालय, उसकी लाइब्रेरी, साहित्य और संस्कृति के लिए उस छोटे शहर और विश्वविद्यालय की प्रतिबद्धता, लेखकों और कलाकारों के लिए शांत और नि:शब्द, लेकिन सुविधापूर्ण जीवन जैसे एक सपने जैसा लगता है। इस बहाने इस किताब में फ्रांस की साहित्य, संस्कृति, मूर्तिकला, चित्रकला, फिल्म और उसका स्थापत्य आते रहते हैं.. आयोवा के बाद लेखक को फ्रांस के कान्स, फ्रैकफर्ट समेत तमाश शहरों की यात्रा का मौका मिला। वहां के माहौल, अर्थव्यवस्था, इतिहास और संस्कृति पर गंगोपाध्याय की पैनी नजर है। दिलचस्प बात यह है कि पुस्तक के तकरीबन हर अध्याय की शुरूआत प्रासंगिक फ्रेंच कविता से होती है...इन अर्थों में कहें तो यह पुस्तक फ्रांस का पुरातात्विक खनन करती नजर आती है। मूल बांग्ला में लिखित पुस्तक छविर देशे कवितार देशे का हिंदी अनुवाद रामशंकर द्विवेदी ने किया है।
पुस्तक- चित्रकला,कविता के देशे
यात्रा वृतांत
लेखक –सुनील गंगोपाध्याय
बांग्ला से अनुवाद- रामशंकर द्विवेदी
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली -110002
मूल्य -495 रूपए
उमेश चतुर्वेदी

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