गुरुवार, 24 जुलाई 2014

नया मीडिया और ग्रामीण पत्रकारिता

  • उमेश चतुर्वेदी 

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में एक क्रांति हुई है। इस क्रांति की कहानी दो साल पहले तब लिखी जानी शुरू हुई थी, जब अन्ना दिल्ली के जंतर-मंतर पर जनलोकपाल को लेकर धरने पर बैठ गए थे। तब दिल्ली और उसके आसपास के युवाओं का हुजूम जंतर-मंतर पर उमड़ आया था। माना गया कि इस हुजूम को प्रेरणा काहिरा के तहरीक चौक पर उमड़े जनसैलाब से मिला। मिस्र, लीबिया,ट्यूनिशिया और सीरिया जैसे अरब देशों में लोकतंत्र के लिए जो आवाज उठी और लोगों का भारी समर्थन मिला, उसे मुख्यधारा की मीडिया ने अरब स्प्रिंग यानी अरब बसंत का नाम दिया। अरब देशों में चूंकि लोकतंत्र की वैसी गहरी जड़ें नहीं हैं, जैसी अमेरिका-ब्रिटेन जैसे पश्चिमी मुल्कों या फिर अपने यहां है, लिहाजा अरब स्प्रिंग की कामयाबी की कहानी अभी लिखी जानी बाकी है। लेकिन यह भी सच है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की जीत ने कामयाब क्रांति की एक कहानी जरूर लिख दी है। अरब स्प्रिंग हो या अन्ना का पहले जंतर-मंतर और बाद में रामलीला मैदान का अनशन...इसके पीछे जनसमर्थन जुटाने में सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई। सोशल मीडिया में इन दिनों जोर फेसबुक और ट्विटर पर है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्लॉग भी इसी मीडिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ब्लॉगिंग ने भी अपनी तरह से इस आंदोलन को व्यापक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निश्चित तौर पर चाहे सोशल मीडिया हो या फिर ब्लॉग या फिर ट्विटर, उसे इंटरनेट यानी अंतरजाल का सहारा चाहिए। अंतरजाल यानी इंटरनेट के मंच के बिना सोशल मीडिया की कल्पना नहीं की जा सकती। वैसे यह दौर कन्वर्जेंस यानी अंतर्सरण का भी है। इंटरनेट पर मौजूद सभी मीडिया को हम नया मीडिया कहते हैं। लेकिन इस नये मीडिया के मंच पर अब पारंपरिक मीडिया यानी अखबार और पत्रिकाओं के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दोनों महत्वपूर्ण स्तंभ टेलीविजन और रेडियो भी मौजूद है। एक तरफ से दूसरी तरफ का आवागमन और उसके अंदर से बाहर तक की तांकझांक की यह सहूलियत ही कन्वर्जेंस की बदौलत हासिल हो पाई है। मोटे तौर पर भारत जैसे देश मे इस सारे मंच को अब भी शहरी माध्यम ही माना जाता है। लेकिन क्या सचमुच अब भी यह शहरी माध्यम ही है।
भारत में इन दिनों इंटरनेट की पहुंच लगातार बढ़ रही है। इंटरनेट भी दो तरह से उपलब्ध है। एक तो ब्रॉडबैंड यानी पारंपरिक टेलीफोन और तार लाइनों के जरिए तो दूसरा सीधे मोबाइल फोन पर। भारत में इन दिनों करीब अस्सी करोड़ मोबाइल कनेक्शन हैं और तीसरी पीढ़ी के स्पेक्ट्रम के जरिए तक मुट्ठी में रहने वाला मोबाइल फोन जुड़ चुका है। यानी अब देश का ज्यादातर हिस्सा और ज्यादातर हाथ भी अब इंटरनेट के जरिए जुड़ चुके हैं। इनमें से ज्यादातर इंटरनेट धारक अब कम से कम फेसबुक को अपने संपर्क और अभिव्यक्ति का माध्यम बना चुके हैं। लेकिन उन अर्थों में अभी तक ग्रामीण पत्रकारिता के अवयव इस मंच से नहीं जुड़ पाए हैं। यानी जिन्हें हम शुद्ध और पारंपरिक भाषा में खबरें कहते हैं, ग्रामीण इलाकों की वे खबरें इंटरनेट पर अगर मौजूद हैं तो ग्रामीण इलाकों में प्रसार संख्या वाले अखबारों के इंटरनेट संस्करणों पर। मिथिला, बिहार, राजस्थान, यूपी, बलिया या गाजीपुर जैसी जगहों और उनके ठेठ ग्रामीण इलाकों के इंटरनेट पर एक-आध ब्लॉग, वेबसाइट तो हैं। लेकिन अपेक्षानुरूप उन पर ग्रामीण संसार की सूचनाएं, कहानियां, सुख-दुख या दर्द नहीं है। अमेरिका में एक ब्लॉग है हफिंगटन पोस्ट। उसके पाठकों की संख्या ऐसी है कि उसने पश्चिमी अमेरिका के तटवर्ती इलाकों के कई कम्युनिटी, छोटे और मंझोले अखबारों की सेहत खराब कर दी है। हफिंगटन पोस्ट पर एक खबर या पोस्ट लगी नहीं कि उस पर पांच से सात हजार तक टिप्पणियां आ जाती हैं। हफिंगटन पोस्ट ने तटीय अमेरिका के कम्युनिटी विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा खा लिया है। दो बड़े अखबार भी उसकी वजह से रो रहे हैं। इन अर्थों में देखें तो भारत में शहरी क्षेत्रों में भी नया मीडिया वैसी मौजूदगी और दबदबा नहीं बना पाया तो ग्रामीण इलाकों में ऐसी तत्काल उम्मीद कैसे की जा सकती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारतीय साक्षरता दर करीब 73 फीसदी तक पहुंच गई है। यानी अब भी करीब 22 फीसदी लोग साक्षर किए जाने बाकी हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानकों के मुताबिक नब्बे फीसदी साक्षर लोगों वाले इलाके को ही पूर्ण साक्षर माना जाता है। हम इसे पांच फीसदी बढ़ा सकते हैं। सवा अरब के देश में बाइस फीसदी का मतलब हुआ करीब 28 करोड़ लोगों को साक्षर किया जाना बाकी है। आंकड़े कहते हैं कि नवसाक्षर लोगों का पहला प्यार पारंपरिक संचार माध्यम यानी छापे वाले माध्यम ही होते हैं। यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अखबारों का प्रसार अब भी बढ़ रहा है। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, प्रभात खबर और राजस्थान पत्रिका ही नहीं, लोकमत समाचार के प्रसार लगाता बढ़ते जाने की वजह भी लगातार बढ़ती साक्षरता दर है। सही मायने में भारत अब भी पहली और दूसरी पीढ़ी के साक्षर लोगों का ही देश बन पाया है। लिहाजा यहां नए मीडिया की वैसी उपादेयता नहीं बढ़ पाई है। जब अमेरिका और यूरोप में अखबारों के पारंपरिक यानी प्रिंट संस्करणों की मौत की घोषणा की जा रही हो, भारत में न्यूज पेपर उद्योग का विकास लगातार हो रहा है और किसी-किसी इलाके में तो यह तीस फीसद तक है। जाहिर है कि इनमें ग्रामीण खबरें और ग्राम जीवन खूब है। लेकिन नया मीडिया में ग्रामीण पत्रकारिता और सूचनाओं की उपस्थिति हफिंगटन पोस्ट जैसी नहीं है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि भारत में ऐसा नहीं हो सकता। आज भी भारत के ज्यादातर गांव और छोटे शहर बिजली की कमी से जूझ रहे हैं। जब बिजली ही नहीं रहेगी तो कंप्यूटर कैसे चलेंगे। लैपटाप बांटने की होड़ राज्य सरकारों में लगी है। लेकिन बिजली के अभाव में उनकी भी उपयोगिता कम ही है। लेकिन यह भी सच है कि ये लैपटॉप एक दौर आते-आते ग्रामीण सूचनाओं को ढूंढ़ने और जानने का माध्यम बनेंगे. तब ग्रामीण पत्रकारिता का जबर्दस्त विस्तार नये मीडिया में होगा। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि फेसबुक पर ग्रामीण सूचनाएं नहीं हैं। मेरे एक मित्र रामजी तिवारी हैं। बलिया में रहते हैं। लेकिन बलिया की अहम सूचनाओं को फेसबुक के जरिए साया करते रहते हैं और जरूरी सूचनाओं से बलिया से जुड़ा व्यक्ति परिचित होता रहता है। ऐसी कोशिशें हर जिले से हो रही हैं। इक्का-दुक्का लोग हर ग्रामीण इलाके में हैं, जिन्हें अपने खलिहान का दर्द नया मीडिया पर साया करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे नया मीडिया को मुहैया कराने वाले मंच और उसके लिए जरूरी सहूलियतें मसलन कंप्यूटर और बिजली का विस्तार होता जाएगा, ग्रामीण पत्रकारिता और सूचनाओं का नए मीडिया पर विस्तार होता जाएगा। तब हो सकता है कि ग्रामीण इलाकों में भी दिल्ली जैसी क्रांति हो। वैसे दिल्ली की क्रांति लाने वाले लोगों में से ज्यादातर ग्रामीण इलाकों से ही पढ़ाई और नौकरी करने दिल्ली पहुंचे युवाओं ने अहम भूमिका निभाई है। उम्मीद की वजह इसी लिए है। 

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