सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

निशाने पर रिपोर्टर ...


खबरिया चैनलों की बढ़ती दुनिया में पत्रकारिता में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वाले नौजवानों को सिर्फ और सिर्फ चमक-दमक ही नजर आती है। लेकिन इसके पीछे भी एक स्याह और मटमैली दुनिया है। रिपोर्टरों की मजबूरी है कि वे घटना का सीधा कवरेज करें। ना करें तो बॉस की गालियों की बौछार उसका दफ्तर में स्वागत करती है। घटनास्थल पर अमर सिंह जैसे दोमुहें नेताओं को कवर करें तो ओखला जैसी घटनाएं सामने आती है। टेलीविजन की दुनिया की इसी स्याह -सफेद तस्वीरों पर नजर डाल रहे हैं जी न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता विनोद अग्रहरि
अठारह अक्टूबर की सुबह टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी। ख़बर किसी और के बारे में नहीं, ख़ुद ख़बर देने वालों के बारे में थी। जामिया नगर में कई पत्रकारों पर भीड़ ने हमला बोल दिया। कुछ टीवी रिपोर्टर घायल हुए, कैमरामैनों को चोटें आईं। एक अगवा चैनल ने ख़बर को ज़ोर-शोर से उछाला जिसका अपना रिपोर्टर भी ज़ख्मी हुआ था। चैनल ने ख़बर दिखाने और पत्रकारों पर हमला करने वालों की जमकर मज़म्मत भी की। पत्रकार जामिया नगर में अमर सिंह की सभा को कवर करने गए थे। सभा ख़त्म होने के बाद जब वो अमर सिंह से जवाब-तलब कर रहे थे, तो वहां मौजूद स्थानीय नेता के समर्थकों को पत्रकारों के सवाल आपत्तिजनक लगे और उन्होंने पत्रकारों की धुनाई कर दी। तो ये है आज की पत्रकारिता का सूरते हाल।
वैसे ये पहली मर्तबा नहीं है, जब पत्रकारों पर हमले हुए हैं। अगर सिर्फ हालिया घटनाओं का ज़िक्र करें तो भी पिटने वालने पत्रकारों की एक लिस्ट तैयार की जा सकती है। ख़ासकर टीवी पत्रकार (रिपोर्टर और कैमरामैन) आए दिन लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं। लोगों का गुस्सा पूरे मीडिया जगत के ख़िलाफ होता है, लेकिन ज्यादातर हाथ लगते हैं टेलीविजन रिपोर्टर और कैमरामैन। ज़ाहिर है मीडिया का यही दोनों वर्ग लोगों से सबसे ज़्यादा सीधे तौर पर जुड़ा हैं, इसलिए मीडिया के ख़िलाफ बन रही आबोहवा का शिकार इन्हीं दोनों को होना पड़ रहा है। आज मीडिया के बारे में लोगों की सोच कितनी तेज़ी से बदल रही है, इसका सही जवाब या तो ख़ुद लोग दे सकते हैं, या फिर वो रिपोर्टर जो ख़बरों की कवरेज के लिए उनके पास जाता है। कई जगहों पर उसे लोगों की गालियां सुननी पड़ती है, बेइज्जत होना पड़ता है। कई बार मार खाने की नौबत आ जाती है। अगर रिपोर्टर विवेक से काम न लें तो हड्डियों का नुकसान हो सकता है।
इस नुकसान का ख़तरा सबसे ज़्यादा होता है टीवी में काम करने वाले सिटी और ‘जूनियर’ क्राइम रिपोर्टरों को। इन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस या पीआर टाइप स्टोरी करने का तोहफा नहीं मिलता। लोकेशन पर पहुंचने पर इनका कोई स्वागत नहीं करता, बिज़नेस कार्ड नहीं मांगता, बल्कि इन्हें बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता है। ‘आ गए मीडिया वाले……..इन्हें तो बस मसाला चाहिए......टीवी पर तो ऐसे दिखाते हैं’ ......ऐसे ही कई चुभाने वाले तीर आते ही उन पर छोड़े जाते हैं। अब तो फिल्मों में भी रिपोर्टरों पर मज़ाक उड़ाने वाली लाइनें लिखी जाने लगी हैं। लेकिन रिपोर्टर अपना काम तो छोड़ नहीं सकता। जल्द ही उसे इन सबकी आदत पड़ जाती है और वो भीड़ में से ही किसी काम के शख्स की पहचान कर ख़बर की डीटेल लेनी शुरु कर देता है। घटना बड़ी हुई तो उसकी दिक़्क़त बढ़ जाती है। चुनौती अब ख़बर को ज़ोरदार बनाने की होती है। इसके लिए पीड़ित की बाइट जैसी अनिवार्य चीज़ें चाहिए होंगी। उसका जुगाड़ कैसे होगा, ...’वो तो किसी से बात भी नहीं कर रहे। क्या किया जाए, इसी उधेड़बुन में वो लगा रहता है। काम तो किसी तरह हो जाता है, लेकिन मन में एक अजीब सी अकुलाहट होती है, जिसे ख़ुद वही रिपोर्टर समझ सकता है। शायद उससे कहीं ज़्यादा एक्सपीरिएंस रखने वाला उसका बॉस भी नहीं। उनके दौर में हाल क्या रहा होगा, ये तो वही बेहतर जानते होंगे, लेकिन कहना ग़लत न होगा कि तब और अब की पत्रकारिता में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, उनमें से ये एक है।
कम से कम दिल्ली में तो मीडिया के प्रति लोगों का नज़रिया काफी बदला है। कभी टीवी रिपोर्टर जैसी उपाधि पर गर्व करने वालों के लिए आज कई जगहों पर अपनी पहचान छिपानी ज़रूरी हो जाती है। दिल्ली के महरौली बम धमाके की कवरेज करने गए एक शीर्ष न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर को सिर्फ इसलिए अपना आई कार्ड अंदर रखना पड़ा क्योंकि उसी वक़्त उसके चैनल में चल रही एक ख़बर से स्थानीय लोग भड़क गए थे। अगर उसने फौरन वहां से भाग निकलने की समझदारी न की होती, तो भीड़ उस पर कोई भी क़हर बरपा सकती थी। दु:ख की बात ये है कि लोगों का ये रिएक्शन शायद चैनलों की दशा और दिशा तय करने वालों तक उतनी अच्छी तरह से नहीं पहुंच पा रहा, और अगर पहुंच भी रहा है तो वो इसके प्रति संजीदा नहीं है। आज अगर किसी मुद्दे पर आम लोगों की प्रतिक्रिया ‘वॉक्सपॉप’ लेना हो, तो रिपोर्टर ही जानता है कि उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। मीडिया से बात करने के लिए बड़ी मुश्किल से लोग तैयार होते हैं। वो दिन अगर बीते नहीं तो बहुत कम बचे हैं जब मीडियावाले लोगों की आंखों के तारे हुआ करते थे। आज तो लोगों को मीडिया तब अच्छी लगती है, जब उन्हें उसका इस्तेमाल करना हो। पड़ोसी से झगड़ा हुआ तो मीडिया बुला ली। एमसीडी ने अतिक्रमण हटाया तो चैनल के असाइनमेंट पर फोन कर दिया कि बदमाशों ने घर तोड़ दिया। शायद अब लोगों के लिए मीडिया की अहमियत इतनी ही रह गई है।
लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? मेरे ख़्याल से उनका नंबर तो कहीं बाद में आता है जो लोगों की नज़र में इसके लिए ज़िम्मेदार माने जाते हैं। आम धारणा यही है कि रिपोर्टर ही चैनल में ख़बर देता है और जो कुछ दिखाई देता है, अच्छा या बुरा, उसी की वजह से होता है। मगर टीवी में काम करने वाला जानता है कि हक़ीक़त क्या है। चैनल की पॉलिसी से लेकर दिन भर की ख़बरों का खाका तैयार करने में उसका अंशदान कितना है, ये टेलीविज़न में काम करने वाला समझ सकता है। तो फिर लोगों के गुस्से का शिकार अकेले निरीह रिपोर्टर और कैमरामैन ही क्यों हों?

रविवार, 5 अक्टूबर 2008

अब नौसिखुओं का कौन खयाल रखेगा...

वाराणसी के पत्रकार सुशील त्रिपाठी की असामयिक मौत सहारा समय उत्तर प्रदेश चैनल के सीनियर प्रोड्यूसर राजकुमार पांडेय के लिए व्यक्तिगत क्षति है। सुशील जी उनके गुरू भी रहे हैं और हम-प्याला, हम-निवाला मित्र भी। राजकुमार पांडेय ने अपने इस मित्र, गुरू और हमदम को भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की है।
बगल में कुछ कागज़ात, बालों पर लगा चश्मा और कुछ सोचते हुए चलते जाना। ऐसे ही मैंने देखा सुशील जी को। तकरीबन 92-93 में मुझे आज इलाहाबाद में नौकरी मिली और सुशील जी वहां बड़े पत्रकार थे। साल भर तक सिर्फ नमस्कार बंदगी का ही संबध रहा। वे रिपोर्टिंग में बैठते थे और हम डेस्क के लोग लीडर प्रेस बिल्डिंग के हॉल में। डाक डेस्क पर काम था लिहाजा जब रिपोर्टिंग का काम शुरु हो रहा होता था उससे पहले डेस्क और खास तौर से डाक डेस्क का काम सिमट रहा होता था, क्योंकि सिर्फ दो या शायद चार पन्ने ही इलाहाबाद से छपते थे। बाकी का अखबार बनारस से आता था। वही बनारस जहां का आज अखबार था और सुशील त्रिपाठी भी। इस लिहाज से भी हम जैसे नए लोगों के लिए सुशील जी बहुत बड़े थे। बस नमस्कार करना और निकल लेना, इससे ज्यादा का ताल्लुक नहीं था।
एक दिन दोपहर में किसी कारण से मेरे डेस्क इंचार्ज ने कोई रिपोर्ट करने भेज दिया। शायद दफ्तर में कोई नहीं था। रिपोर्ट करके लाया। अगले दिन रिपोर्ट मेरे नाम से यानी बाई लाइन अखबार में छप गई। इससे पहले शायद आज अखबार में एक दो ही रिपोर्ट बाई लाइन छपी थी। अगले ही दिन मुझे अपने डेस्क इंचार्ज के जरिए फरमान मिला कि अब रिपोर्टिंग करनी है। बाद में पता चला कि डेस्क से रिपोर्टिंग में मुझे लाने का आदेश सुशील जी की पहल पर ही मिला था। बहरहाल मैं अपने मनचाहे काम पर लग गया था। धीरे धीरे वह बीट भी मिल गईं, जो इलाहाबाद में रहते हुए अहम होती हैं। फिर भी सुशील जी के कारण मेरे पास सिटी पेज बनवाने की जिम्मेदारी होती थी। आज में उन दिनों पेस्टिंग के जरिए ही पेज बनता था। इससे भी लगातार मुझे सीखने को मिलता रहा।
इस दौरान सुशील जी से निकटता बढ़ती रही और उनके बहुआयामी सृजनात्मक व्यक्तित्व को देखने के मौके मिलते रहे। मैने देखा कि किस तरह से वे छोटी छोटी सी चीजों पर भी अपना असर डालते थे। जब भी मेरी या किसी और युवा रिपोर्टर की कोई खबर उन्हें अच्छी लगती, वे उसी समय पेज पर खुद ही केरिकेचर बना देते थे और हम लोगों के लिए ये किसी इनाम से कम नहीं होता। मेरे एक और साथी राजेश सरकार को कभी -कभार ये पुरस्कार मिलता था। जब भी उनसे किसी नए मुद्दे पर कोई बात होती, कहते – अरे चिरकुट यही लिख क्यों नहीं देते।
और लगातार सुशील जी लिखते रहे। इलाहाबाद के बौद्धिक हलके में उनके तकरीबन हर रिपोर्ट की चर्चा जरुर होती थी। जब संघ परिवार के विशेष अनुरोध पर शिव परिवार दूध पी रहा था, उस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश होता था। मैं किसी काम से सिविल लाइंस में बैठा था। वहीं से दफ्तर फोन कर सुशील जी को नमस्कार किया। उन्होंने हाल चाल पूछते हुआ अपना तकिया कलाम पढ़ा- और... मैने कहा बहुगुणा जी भी दूध पी रहे हैं। उन्होंने फिर पूछा – अबे तुमने पिलाया या नहीं। मैंने सहजता से बता दिया- मां मंदिर में गई थी, लेकिन कह रही थी कि भीड़ में धक्के से दूध चम्मच से छलक गया, गणेश जी ने नहीं पिया। फिर सुशील जी ने लगभग हड़काया- अरे चिरकुट सब जगह हंगामा है आकर यही सब लिख डालो। मै दफ्तर पहुंचा। रिपोर्ट बनायी, जैसा देखा था, बहुगुणा के आदमकद प्रतिमा का दूध पीना और मां के चम्मच से दूध छलकना, वगैरह सब कुछ लिख डाला। अगले दिन मेरी रिपोर्ट तो बाटम के रूप में छपी, लेकिन बाई लाइन नहीं थी। अलबत्ता सुशील त्रिपाठी की रिपोर्ट पूरे पेज भर की थी और हमेशा की तरह 16 प्वाइंट की बाई लाइन थी। कोफ्त हुई और नाराज़गी भी। बाद में पता चला कि नगवा कोठी (आज के मालिकों के निवास स्थान) ने भी पर्याप्त मात्रा में गणेश जी को दूध पिलाया था। साथ ही किसी ने सुशील जी से इसका जिक्र भी कर दिया था। सुशील जी ने अपनी रिपोर्ट में ये भी तंज किया -जो जितना बड़ा है उसने उतना ही दूध पिलाया। पता चला कि सुशील जी का तो कुछ नहीं हुआ लेकिन अगर मेरी रिपोर्ट बाइ लाइन होती मेरी खैर नहीं थी। मैं तो निपटा ही दिया जाता।
फिर मैं दिल्ली आ गया और सुशील जी बरेली के रास्ते वापस बनारस पहुंच गए। उनसे लंबी मुलाकात इलाहाबाद के पिछले अर्धकुंभ मेले में ही हो पाई। उस दौरान भी उनका एक्टीविस्ट जगा हुआ था। उनका कहना था कि ये मेला बौद्धों का मेला था और इसे ब्राह्मणों ने कब्जा किया। इस पर उन्होंने काफी लिखा भी था। उनकी आखिरी रिपोर्ट भी बौद्ध चिह्नों के खोज पर ही थी। सुन कर लगा कि सुशील जी सच्चे पत्रकार थे और हमेशा खोज में लगे रहते थे। उनकी शख्सियत के दूसरे पहलू चित्रकारी में भी उनका यही रूप दिखता रहा है। उन्हें बनारसी परंपराए लुभाती तो थीं, लेकिन वे पोंगापंथी के विरोध में ही रहते थे। जब से उनके जाने की खबर सुनी तो हर मिलने वाले से उनकी ही बातें करने का मन होता रहा। वैसे भी जिसने उन्हें देखा है उसके लिए उन्हें भुला पाना मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि कभी भी आवाज आ सकती है.. का बे या फिर का गुरु.......

शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

नहीं रहे मस्तमौला बाबा


उमेश चतुर्वेदी
भड़ास मीडिया पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को हूबहू हम प्रकाशित कर रहे हैं। सुशील त्रिपाठी से मेरी भी जानपहचान थी। भाई राजकुमार पांडे के जरिए मैं बाबा से कुल जमा तीन बार मिल पाया था। लेकिन हर मुलाकात में मेरा सामना एक मस्तमौला बनारसी से हुआ। ऐसा मस्तमौला बनारसी - जिसे काशी की पत्रकारिता के प्रतिमानों का पूरा खयाल था। बाबू राव विष्णुराव पराड़कर के साथ सुशील जी भले ही काम ना कर पाए हों- लेकिन उन्होंने ईश्वरचंद्र सिनहा और सत्येंद्र गुप्त जैसे विशुद्ध पत्रकार के साथ काम जरूर किया था। शायद यही वजह थी कि वह सरोकारों वाली पत्रकारिता को ही तरजीह देते थे। साहित्य, संस्कृति और बौद्ध दर्शन के प्रति गहराई तक लगाव महसूस करने वाले सुशील जी की मौत की वजह बौद्ध दर्शन से जुड़ी एक जानकारी की खोज ही बनी। उन्हें किसी से पता चला था कि नौगढ़- चकिया की पहाड़ियों में बुद्ध के पैरों के निशान हैं और उसी की खोज में वे गए थे तो सही - सलामत, लेकिन लौटे घायल होकर और अब वे पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। उनके शिष्य और दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के समाचार संपादक संदीप त्रिपाठी भी अलग टीम में उसी खबर के लिए गए थे। इस बैलौस बनारसी, सरोकार वाले पत्रकार को मीडिया मीमांसा की भावभीनी श्रद्धांजलि।

रिपोर्टिंग करते वक्त घायल हुए वरिष्ठ पत्रकार सुशील त्रिपाठी को बचाया नहीं जा सका। इस प्रतिभावान और सरोकार वाले पत्रकार की शहादत से सभी पत्रकार ग़मजदा हैं। पिछले 70 घंटे से कोमा में रहे सुशील त्रिपाठी अंततः होश में नहीं आ पाए। उन्हें सिर समेत शरीर के कई हिस्सों में गंभीर चोटें आईं थीं। वे दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के लिए रिपोर्टिंग करने प्रमुख संवाददाता की हैसियत से वाराणसी के पास नौगढ़-चकिया के दुर्गम इलाके में गए थे। वे एक एक्सक्लूसिव स्टोरी पर काम कर रहे थे।

वहां पहाड़ पर से उतरते वक्त उनका पैर फिसल गया और वे 100 फीट नीचे खाई में जा गिरे। उन्हें खाई से निकालकर अस्पताल में भर्ती कराने में काफी वक्त लग गया। बीएचयू मेडिकल कालेज के डाक्टरों की टीम ने उन्हें होश में लाने के लिए भरपूर कोशिश की पर कामयाबी नहीं मिली।

बीच-बीच में उनकी हालत खराब होती तो कभी अच्छी होती। आशंकाओं और उम्मीदों के बीच हिचकोले खाते सुशील जी के परिजन, मित्र, चाहने वाले उनके स्वस्थ होने की कामना करते रहे पर सुशील जी ने शायद इस दुनिया से विदा लेना ही बेहतर समझा। तभी तो वो अपने हजारों चाहने और जानने वालों को निराश कर अपनी विशिष्ट स्टाइल में अपने किसी मिशन पर किसी नई दुनिया की ओर निकल पड़े। सुशील जी के घर में उनका एक बेटा है और एक बिटिया हैं। बिटिया छोटी हैं और बेटा इंटर पास करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की तैयारी कर रहा है।

52 वर्षीय सुशील त्रिपाठी बनारस समेत पूरे पूर्वांचल और हिंदी पत्रकारिता जगत में अपने सरोकार, तेवरदार लेखन, साहित्य से लेकर समाज तक की बनावट व बुनावट की गहरी समझ, बेलौस जीवन, फक्कड़पन वाले अंदाज, समाजवादी स्टाइल, बनारसी मस्ती और मिजाज को जीने के चलते हमेशा जाने जाएंगे। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता के लिहाज से कई नए ट्रेंड शुरू किए। दैनिक हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण की लांचिंग से ही इस अखबार की नेतृत्वकारी टीम में शामिल रहे सुशील त्रिपाठी की दमदार कलम के दीवाने पाठकों की काफी बड़ी संख्या रही है। बनारस के अस्सी की बैठकों को उसी अंदाज में पेश करने से लेकर गंगा तट की बतकही और समाज-देश की नब्ज को आम गंवई की निगाह से पकड़ कर उसकी ही भाषा में पेश करने की मास्टरी सुशील जी में थी। साहित्य, संगीत, संस्कृति से लेकर राजनीति तक के दिग्गज लोग सुशील त्रिपाठी के लेखन के फैन थे।

एक ईमानदार व्यक्तित्व, एक मिशनरी जर्नलिस्ट, एक सचेत नागरिक, एक मस्तमौला बनारसी...सब कुछ तो थे सुशील जी। हां, उन जैसे बहुत कम थे बनारस में, और अब वो भी नहीं रहे।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

पार्टनर आपकी बीट क्या है !

उमेश चतुर्वेदी
पत्रकार क्या घटनाओं का साक्षी भर है या फिर उसका काम उसे निर्देशित करना भी है। पत्रकारिता जगत में इस सवाल पर बहस तभी से जारी है – जब पत्रकारिता अपने मौजूदा स्वरूप में उभरकर सामने आई है। दुनिया का पहला पत्रकार संजय को माना जाता है – पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया ने इसे बार-बार पढ़ाया – बताया है। इस आधार पर देखें तो पत्रकार की भूमिका साक्ष्य को को ज्यों का त्यों पेश कर देने से ज्यादा की नहीं है। संजय की महाभारत के युद्ध में कोई भूमिका नहीं थी। उन्होंने युद्ध के मैदान में जो घटनाएं घटते हुए देखा- उसे ज्यों का त्यों महाराज धृतराष्ट्र को सुना दिया। पत्रकारिता की दुनिया में एक बड़ा वर्ग ऐसा रहा है – जिसका मानना है कि पत्रकार का काम घटनाओं को पेश करना भर है। पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया में खबरों की वस्तुनिष्ठता की जो चर्चा की जाती है, उसका भी मतलब यह भी है। हिंदी में जो पारंपरिक पत्रकार हैं – जिनकी पीढ़ी आज वरिष्ठता की श्रेणी में है – उसका कम से कम यही मानना है। हिंदी के मशहूर संपादक राजेंद्र माथुर मानते थे कि पत्रकार घटनाओं का साक्षीभर होता है – ये जरूरी नहीं कि घटनाएं उसके ही मुताबिक घटें।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि आज जो रिपोर्टिंग हो रही है – पत्रकारिता के इन मानकों पर कितना खरा उतरती है। ये सभी जानते हैं कि अखबारनवीसी और राजनीति का चोली दामन का साथ है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आखिरी सालों की टेलीविजन पत्रकारिता इसका अपवाद हो सकती है। चैनलों का मानना है कि खबर वही है – जिसे वे दिखाते हैं। यानी भूत-प्रेत और चुड़ैलों की कहानी, यू ट्यूब पर पेश किए जाने वाले हैरतनाक वीडियो। लेकिन अखबारों की खबरों का सबसे बड़ा स्रोत आज भी राजनीति की दुनिया ही है। खबरें चाहें देश की राजधानी के स्तर की हो या गांव की पंचायत के स्तर पर – सियासी उठापटक और दांवपेंच, उससे प्रभावित और उसे फायदेमंद लोगों की दुनिया ही खबरों के केंद्र में है। और हो भी क्यों नहीं – अधिकारियों की ट्रांस्फर-पोस्टिंग से लेकर कोटा-राशन और ठेके तक में सियासत का ही दखल है। किसी की हत्या अगर घरेलू कारणों से भी हो गई तो हत्यारे को पकड़वाने से लेकर उसे छुड़ाने तक की खींचतान में सियासत हावी है। ऐसे पत्रकारिता भला सियासी रंगरूटों से लेकर कर्णधारों तक से कैसे दूर रह सकती है।
अगर पत्रकारिता के पारंपरिक विचारकों की मानें तो इस दुनिया में रहने के बावजूद पत्रकारों को चंदन के पेड़ की ही तरह रहना चाहिए। सांपों के लिपटे रहने के बावजूद वह अपनी शीतलता नहीं खोता। लेकिन प्रलोभनों और खींचतान की इस दुनिया में ऐसा रह पाना इतना आसान है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के शुरूआती सालों में ये सवाल देश के पत्रकारिता सबसे प्रमुख पत्रकारिता संस्थान के छात्रों को मथ रहा था। एक कार्यक्रम की कवरेज सीखने के लिए उन्हें भेजा गया। राजधानी दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में आयोजित इस कार्यक्रम में उन्हें महंगे गिफ्ट दिए गए। कार्यक्रम की कवरेज के बाद लौटे छात्रों का सवाल था कि क्या महंगे गिफ्ट उनकी खबर सूंघने की वस्तुनिष्ठता पर सवाल नहीं खड़े करती ! और हर जगह जारी इस गिफ्ट संस्कृति से कैसे निबटा जाय। सवालों की झड़ी को सुलझा पाना आसान नहीं रहा।
कुछ यही हालत सियासत को नजदीक और गहराई से कवर कर रहे पत्रकारों की भी है। उनकी विचारधारा चाहे जो भी हो – लेकिन जिस पार्टी को वे कवर करने लगते हैं – उनसे उनका रागात्मक लगाव बढ़ते जाता है। फिर उन्हें उस पार्टी की कमियां कम ही नजर आती हैं। ये तो भला हो डेस्क पर बैठे लोगों का – जो खबरों को सही तरीके से अखबारी नीति के मुताबिक पेश करने में भी अपने मूल दायित्व की अदायगी करते रहते हैं। इसका हश्र ठीक वैसा ही होता है – जैसा लंबे समय से किसी बीट पर तैनात पुलिस कांस्टेबल की बीट बदल जाती है। तब उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। संपादकीय नीति के भी तहत कुछ पत्रकारों की बीट बदल दी जाती है तो उनकी भी हालत कुछ ऐसी ही हो जाती है। दिल्ली में खासतौर पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करने वाले पत्रकारों की बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है। वैसे इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेस और बीजेपी बीट कवर करने वाले ऐसे पत्रकारों के पाला पड़ा है – जिन्हें देखकर भ्रम होने लगता है कि वे पत्रकार हैं या फिर उस पार्टी विशेष के कार्यकर्ता। कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो ना सिर्फ नए पत्रकारों- बल्कि अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। सवाल अगर असहज हो तो फिर यह ग्रुप पार्टी और पार्टी प्रवक्ता को बचाने में पूरी शिद्दत से जुट जाता है। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिया तो समझो- उसकी शामत आ गई। दिलचस्प बात ये है कि इस ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं। ये पूरा ग्रुप भरसक में कोशिश करता है कि प्रवक्ता से असहज सवाल न पूछे जा सकें और गलती से ऐसा सवाल उछाल भी दिया गया तो प्रेस कांफ्रेंस को हाईजैक करने की कोशिश शुरू हो जाती है। ग्रुप में से कोई उस सवाल पर मुंह बिचकाने लगता है तो कई बार कोई वरिष्ठ सवाल पर ही सवाल उठा देता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार। इसके बावजूद किसी ने सवाल पूछने पर जोर दिया तो हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार एक मशहूर दैनिक की ओर से कांग्रेस कवर करते वक्त हुए अनुभव ने इन पंक्तियों के लेखक के पत्रकारिता जीवन की आंखें ही खोल दी। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब कांग्रेस प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। लेकिन कपिल सिब्बल इस जुगलबंदी का मजा तो लेते थे – लेकिन कभी-भी इस पर ध्यान नहीं देते थे। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल पत्रकारिता की दुनिया के कर्णधारों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते। जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
पत्रकारिता का ये कोरस गान क्राइम रिपोर्टिंग में भी बदस्तूर जारी है। वहां पुलिस की दी हुई सूचनाएं मानक के तौर पर पेश की जाती है। फिर अधिकांशत: उसे ज्यों का त्यों पेश कर दिया जाता है। अगर डेस्क चौकस ना हो तो तकरीबन हर क्राइम रिपोर्टर आज पुलिस प्रवक्ता की ही भांति काम कर रहा है। वहां खुद से पुलिस के दिए आंकड़ों को जांचने की कोशिश कम ही की जाती है। वैसे पत्रकारिता में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका काम सिर्फ सियासी दलों की हर भूमिका के पीछे नकारात्मकता की ही खोज करना है। कांग्रेस और बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों की जमात में ऐसे कई लोग शामिल हैं।
अगर राजेंद्र माथुर की ही बातों पर गौर करें तो पत्रकार का काम पानी में पड़े उस कांच की तरह होना चाहिए – जो देखे तो सबकुछ – लेकिन उस पर पानी का कुछ भी असर ना हो। दूसरे शब्दों में कहें तो अर्जुन की तरह उसकी निगाह सिर्फ चिड़िया की आंख यानी खबर पर होनी चाहिए। लेकिन सियासत की खींचतान ने पत्रकारिता को जो सबसे बड़ा उपहार दिया है – वह खींचतान और सियासी दांवपेच ही है।
सियासी सोहबत में पत्रकारिता किस तरह अपनी असल भूमिका को भूल जाती है – इसका बेहतरीन उदाहरण है 2004 का इंडिया शाइनिंग का नारा और उसे लेकर पत्रकारिता का सकारात्मक बोध। तब पूरे देश की पत्रकारिता को भी कुछ वैसा ही पूरा देश चमकता नजर आ रहा था – जैसे तब के शासक गठबंधन एनडीए को। एनडीए के बड़े-बड़े नेताओं की ही तरह मीडिया को भी एनडीए के दोबारा शासन में लौटने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन 13 मई 2004 को खुले पिटारे ने इंडिया शाइनिंग की हकीकत तो बयां की ही – सियासी सोहबत में अपनी असल जिम्मेदारी – समाज को सही तौर पर देखने –समझने के मीडिया के दावे की पोलपट्टी खोलकर रख दी थी।
ऐसा नहीं कि सियासी सोहबत में अपनी बीट कवर करने वाले पत्रकारों को अपनी बीट के लोगों – विषयों और राजनीतिक दलों से इश्क ही हो जाता है और उसकी तरफदारी ही करते नजर आते हैं। कई राजनीतिक पत्रकार ऐसे भी हैं – जो अपनी बीट के राजनीतिक दल के लिए सिर्फ और सिर्फ विपक्षी की भूमिका निभाते हैं। जेम्स आग्सटस हिक्की की तरह अगर ये विरोध लोककल्याण के लिए है तो उसका स्वागत होना चाहिए। यही पत्रकारिता का धर्म भी है। लेकिन सिर्फ आलोचना के लिए ही आलोचना की जाय तो उसे मंजूर करना पत्रकारिता का धर्म कैसे हो सकता है।
ऐसे में सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय। सियासी सोहबत में पत्रकारिता की मूल भावना पर कोई असर ना पड़े। इसके लिए मुकम्मल इंतजाम की जरूरत है। यह कैसे हो – इसे खुद पत्रकारिता को ही तय करना पड़ेगा।

शनिवार, 12 जुलाई 2008

मराठी टीवी पत्रकार चाहिए ....

प्रतिष्ठित मराठी दैनिक सकाल के जल्द शुरू होने जा रहे मराठी टेलीविजन चैनल साम मराठी के लिए दिल्ली ब्यूरो में काम करने के लिए पुरूष और महिला रिपोर्टरों की जरूरत है। शर्त बस इतनी सी है कि उम्मीदवार मराठी अच्छी तरह लिख-बोल सकता हो। ग्रेजुएट हो और दिल्ली में महाराष्ट्र से जुड़ी राजनीति और संस्कृति की अच्छी समझ रखता हो। जो अपनी सेवाएं देना चाहते हैं, वे उमेश चतुर्वेदी से uchaturvedi@gmail.com पर संपर्क करें। शालीन व्यक्तित्व वाले 20 से 25 साल की उम्र वाले नौजवानों/ नवयुवतियों को प्राथमिकता दी जाएगी।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

अदम्य जिजीविषा की कहानियां

उमेश चतुर्वेदी
ये समीक्षा अमर उजाला में छप चुकी है।
कैथरीन मैन्सफील्ड ने 35 वर्ष की छोटी-सी ही उम्र में जो भी रचा, उसने अंग्रेजी साहित्य में इतिहास रच दिया। कैथरीन की कहानियों के ¨हिंदी अनुवाद गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां को पढ़ते हुए कैथरीन की सोच और ¨जिंदगी के प्रति अदम्य आशावाद को देखना बेहद दिलचस्प है। कैथरीन ने जब लेखन की शुरुआत की उस दौर में कहानी को शास्त्रीय ढंग से लिखना और शास्त्रीय ढांचे में कथानक, कथोपकथन और विषयवस्तु जैसे छह उपादानों में फिट किया जाता था, कैथरीन ने नई सोच के साथ इस फ्रेम को तोड़ा। कैथरीन की कहानियां गार्डन पार्टी हो या फिर दिवंगत कनüल की बेटियां या फिर आदर्श परिवार, हर जगह ना तो कथानक है और ना ही ढांचे में बंधा हुआ कोई अंत। कहानी का अंत एकदम से अचानक भी नहीं होता। क्लाइमेक्स पर अचानक से खत्म होती कहानियों के साथ पाठक भी बिंब और भाव के धरातल पर टंगा रह जाता है। लेकिन कैथरीन की इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं से भी ये बोध जागृत नहीं होता।


कैथरीन का जन्म उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में न्यूजीलैंड में हुआ था। न्यूजीलैंड आज भी कोई तेज भागती ¨जदगी वाला देश नहीं है, जैसा कि आज यूरोप, अमेरिका और काफी हद तक भारत और चीन की हालत हो गई है। पंद्रह साल की उम्र में लंदन पढ़ने गई कैथरीन ने फिर दोबारा न्यूजीलैंड का रुख नहीं किया। उसकी ज्यादातर ¨जिंदगी लंदन-पेरिस या जर्मनी में गुजरी। लेकिन न्यूजीलैंड की स्मृतियां कैथरीन की रचनाओं में शिद्दत से उभरती रहीं। गार्डन पार्टी, मिस ब्रेल और उसका पहला नाच पढ़ते हुए न्यूजीलैंड के उस दौर की सुस्त ¨जिंदगी के एक-एक रूप सामने आते हैं।


कैथरीन की जिंदगी का पहला प्यार संगीत था। वह प्रोफेशनल चेलीवादक बनना चाहती थी। लेकिन समय के थपेड़े और अपनी उद्विग्न ¨जिंदगी की बदौलत नहीं बन पाई। लेकिन अपने लेखन में उसने अपने इस पहले प्यार को ¨जिंदा रखा है। उसका पहला नाच और संगीत का सबक जैसी कहानियों में कैथरीन ने अपने इस पहले प्यार को बखूबी बरकरार रखा है। इन कहानियों को पढ़ने के बाद ही पता चलता है कि कैथरीन को संगीत की बारीकियां किस कदर पता थीं। बहरहाल कैथरीन की इन कहानियों के जरिए पहले विश्वयुद्ध के दौर के यूरोपीय समाज और बौçद्धक वातावरण को समझने में मदद मिलती है। उम्मीद है कि ¨हदी के पाठक भी विश्व क्लासिक की इस कृति के जरिए ना सिर्फ अंग्रेजी साहित्य की इस महान कृतिकार की रचनाओं से परिचित होंगे, बल्कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के यूरोपीय समाज और एक विद्रोही महिला के स्वभाव से भी परिचित हो सकेंगे।

संपादक-कात्यायनी
पुस्तक - गार्डन पार्टी और अन्य कहानियां
कैथरीन मैन्सफील्ड
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- - 75 रुपये।

रविवार, 6 जुलाई 2008

ये है पुरस्कारों की हकीकत !

पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -
पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...
दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'
एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।