शुक्रवार, 3 मार्च 2017

लेकिन असल जिंदगी में नहीं लड़ पाती अनारकली


उमेश चतुर्वेदी
पत्रकार से फिल्म निर्देशक बने अविनाश दास की फिल्म अनारकली ऑफ आरा इन दिनों चर्चा में है। 24 मार्च को रिलीज होने जा रही इस फिल्म में नौटंकी गायिका अनारकली की भूमिका नील बटे सन्नाटा फिल्म से अपने अभिनय का लोहा मनवा चुकी स्वरा भास्कर ने निभाई है। यह चरित्र बेहद तेज-तर्रार है और गाली देकर बात करती है। स्वरा बताती हैं कि ये एक ऐसी महिला की कहानी है, जो अपने खुलेपन और डांस के लिए ख्यात है। वह सामंती मानसिकता के लोगों के बीच भद्दे और द्विअर्थी गानों पर डांस करती है।फिल्म की कहानी एक ऐसी महिला की है, जो मेले-ठेले में अश्लीलता की हद तक द्विअर्थी गीत गाकर लोगों का मनोरंजन करती है और अपना पेट पालती है। वैसे देश के तमाम इलाकों में अब भी मनोरंजन का साधन नाचने-गाने वाली ऐसी महिलाएं ही हैं। कहीं वे द्विअर्थी गीत पेश करती हैं तो कहीं अपने लटके-झटके के जरिए नोटों की बरसात कराती हैं, ताकि उनके और उनके साजिंदों की जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ सके। हालांकि इस चलन के लिए कहीं ज्यादा बदनाम अपने भदेसपन के लिए विख्यात भोजपुरी इलाका कहीं ज्यादा है। फिल्म अनारकली ऑफ आरा की कहानी भी ठेठ भोजपुरी इलाका बिहार के आरा की गायिका अनारकली की है।

निर्देशक अविनाश कहते हैं कि दाल में नमक बराबर इस फिल्म की कहानी में सचाई है। आखिर दाल में नमक है क्या...इस फिल्म की नायिका अनारकली का स्त्री विमर्श, जो अपनी देह पर अपना हक समझती है। फिल्म के एक संवाद में अनारकली कहती है सबको लगता है हम गाने वाले लोग हैं तो कोईओ आसानी से बजा भी देगा। लेकिन आगे वह जैसे चेतावनी देती है पर अब अइसा नहीं होगा। स्त्री विमर्श और नई सिनेमाई महिला को पेश करने वाला यह संवाद अगर हकीकत बन सके तो कितना ही अच्छा हो..लेकिन क्या सचमुच शादी-ब्याह में नाचने-गाने वाली महिलाएं अपनी देह, अपनी अस्मिता और अपनी इज्जत को इस हद तक बचा पाती हैं...इस सवाल का अधिकतर बार जवाब ना में ही मिलेगा..अगर भरोसा ना हो तो यू ट्यूब पर देशभर के ऐसे ही समारोहों, आयोजनों के कथित लोकनृत्यों, पारिवारिक आयोजनों के वीडियो को सर्च कीजिए। इस विमर्श की हकीकत सामने आ जाएगी। तब पता चलेगा कि रसूखदार के सामने ऐसी महिलाओं की हैसियत क्या होती है...किस तरह उन्हें कई बार ना चाहते हुए भी समर्पण करना पड़ता है तो कई बार भरी भीड़ के सामने अपने को अनावृत्त करना पड़ता है। हम बेशक अपनी संस्कृति पर गर्व करते रहें, यत्र नार्यस्तु पूजन्ते का पाठ करते रहें, लेकिन नाचने-गाने वाली महिलाओं के साथ सदियों से होता रहा ऐसा व्यवहार हमारी परंपरा का स्याह पक्ष है..
भोजपुरी इलाकों में अब भी बारात के जनवासे की शोभा और रसूख नाचने वालियों की संख्या, उनके सौंदर्य और इन दोनों पर टिकी उनकी शोहरत पर निर्भर करती है..इसलिए जो जितना रसूखदार हुआ, उतनी ही शोहरतमंद, खूबसूरत नाचनेवालियों का इंतजाम करता है। पहले बारातें दो-दो दिन तक ठहरती थीं..तब इन नाचने वालियों के जिस्म पर ललचायी निगाहें डालने वालों की जैसे बन आती थी...ऐसी मान्यता रही है कि जिनकी जेब जितनी भारी, उसका इनके देह पर उतना ही अधिकार..कई बार तो ताकत और रसूख के सामने नाचने वालियों के लिए समर्पण के अलावा कोई चारा नहीं होता था। कमोबेश यह परंपरा आज भी जारी है। पहले एक खास बिरादरी के रसूखदार-थैलीदार इन महिलाओं पर अपना हक समझते थे। बेशक घर में उनकी ब्याहताएं उनके नाम का सिंदूर लगाए बैठी उनका इंतजार करती रही हों। उस खास बिरादरी के रंगीनमिजाज लोगों के रंगीन किस्से आपको भोजपुरी माटी में जगह-जगह बिखरे मिलेंगे। उसमें नाचने वाली का चित्रण भी रंगीन ही होगा। उसके मजबूर समर्पण के पीछे की बेबसी और उससे उपजी पीड़ा का कहीं कोई जिक्र किसी भी किस्से में नहीं मिलेगा। अनारकली ऑफ आरा में भी ऐसा करने की कोशिश होती है..यहां भी उसी पारंपरिक सोच से ग्रस्त रसूखदार है...जिसका मानना है कि गानेवालियों की कैसी इज्जत, उन्हें अपनी देह से कैसा लगाव ! गानेवालियों का कबसे होने लगा चरित्र ! अनारकलियों को हासिल करने के लिए सबसे आसान रास्ता माना जाता रहा है पैसा। लेकिन फिल्म की अनारकली तो इस सोच के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा देती है। वह कहती है आज या तो आर-पार होगा, नहीं हम आरा की अनारकली नहीं, समझे! आरा की अनारकली कहती है - "पैसा भी रखेंगे और देंगे भी नहीं।"
लेकिन क्या हकीकत में ऐसा संभव हो पाता है। इसी महीने पूर्वी उत्तर प्रदेश में ऐसी ही एक अनारकली से जब यह पूछा गया कि शोहदों, लालची निगाह गड़ाए भेड़ियों से बचाव कैसे कर पाती हो...तो पहले तो उसे कोई जवाब ही नहीं सूझा...बैंड पार्टियों में नाचने वाली सिलिगुड़ी की संगीता से अव्वल तो पहले किसी ने ऐसा सवाल पूछा ही नहीं था। साजिंदों के अलावा किसी पुरूष ने उससे बात की थी तो सिर्फ उसके देह की..उससे कुछ चाहत की...कभी शालीन तरीके से...तो कभी अश्लील ढंग से तो कभी द्विअर्थी अंदाज में...गरीबी की मारी संगीता की जवाब में आंखें भर आईं..कुछ वक्त तक उसके मुंह से बोल भी नहीं फूटे...पास रखे पानी की बोतल की एक घूंट से गला तर करने के बाद उसकी जुबान से सिर्फ इतना निकला..बस किसी तरह बचाव कर लेती हूं..इस एक पंक्ति में उसकी बेबसी, उसका दर्द सबकुछ बह निकला था..बाद में उसने जोड़ा, किससे-किससे लड़ेंगे...कई बार झुकना भी पड़ता है...आखिर लड़ते रहे तो खाएंगे क्या..घर में पीछे छूटे मां-बाप का पेट कैसे भरेंगे....बेबसी और समर्पण का एक और सांकेतिक जवाब दे वह बढ़ गई..बैंड पार्टी ने तान दे दी थी और उसके कानफोड़ू संगीत के बीच उसे झूमना था, नाचना था..ताकि पंद्रह सौ मील दूर पीछे छूटे परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ जारी रह सके।
फिल्म की अनारकली विद्रोह करती है...संघर्ष करती है...लेकिन हकीकत की अनारकली के लिए ऐसा संभव नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि हकीकत की अनारकलियों के संघर्ष बेमायने हैं..फिल्म के बहाने हमें उनके संघर्ष को भी सलाम करना ही चाहिए।

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