(मनोरमा ईयर बुक हिंदी के लिए श्री राजेश कालिया की प्रेरणा से लिखा गया और 2014 के अंक में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
भारतीय पत्रकारिता
इन दिनों दो विपरीत विचारधाराओं की रस्साकशी के बीच झूल रही है..तकनीकी बदलाव,
बढ़ते आर्थिक दबाव और नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट के बीच मीडिया का लगातार
विस्तार हो रहा है। इस विस्तार की गवाही भारत के समाचार पत्रों के महापंजीयक के
आंकड़े भी देते हैं। जिनके मुताबिक 31 मार्च 2013 तक देश में 94067 समाचार पत्र और
पत्रिकाएं पंजीकृत थीं। भारत में मीडिया की पहुंच और अहमियत का अंदाजा इसी से
लगाया जा सकता है कि इसमें समाचार पत्रों की संख्या जहां 12511 रही, वहीं
साप्ताहिकों और पत्रिकाओं की संख्या 81556 रही। दुनिया के विकसित देशों में जब
प्रिंट मीडिया की मौत के युग के खात्म की घोषणा की जा रही है, वहीं भारत में
प्रिंट मीडिया में लगातार विकास हो रहा है। इसकी गवाही 2011-12 के दौरान पंजीकृत पत्रों
की संख्या देती है, जो 7337 रही। समाचार पत्र और पत्रिकाएं पंजीकृत हुईं। ये तो
रही प्रिंट मीडिया की बात..इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के क्षेत्र में भी लगातार विकास हो
रहा है। 2012 में जारी ट्राई के आंकड़ों के मुताबिक देश में निजी सेक्टर के करीब
245 एफएम चैनल लगातार प्रसारण कर रहे हैं। इसके अलावा भारत में आकाशवाणी के 413
चैनल काम कर रहे हैं। इसके साथ ही दूरदर्शन के 46 स्टूडियो और करीब 1400 केंद्र
लगातार काम कर रहे है। इसके अलावा निजी क्षेत्र के करीब 800 खबरिया चैनल तमाम
भाषाओं में लगातार चौबीसों घंटे लगातार प्रसारण कर रहे हैं। इसमें जून 2014 में आए
टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया के इंटरनेट से जुड़े आंकड़ों को जोड़े बिना
भारतीय मीडिया की मुकम्मल तस्वीर पेश नहीं की जा सकती। इस आंकड़े के मुताबिक देश
में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 24 करोड़ 30 लाख हो गई है।
आंकड़ों में विकास
और विस्तार की यह तसवीर तो सरसरी तौर पर यही साबित करती है कि भारतीय मीडिया
सुनहले दौर से गुजर रहा है। लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। भारतीय मीडिया इन दिनों
पेशवराना अंदाज, नैतिकता की समस्या और साख के संकट से कहीं ज्यादा गुजर रहा है।
आजादी के आंदोलन की
कोख से उपजे भारतीय मीडिया ने अपने पेशेवर अंदाज, जीवन और राष्ट्रीय मूल्यों के
नैतिक आदर्श गढ़ने और लोकवृत्त (जिसे पश्चिमी
विद्वान हेबरमास पब्लिक स्फीयर कहते हैं) के निर्माण में महती भूमिका निभाई। आजादी
के बाद भारतीय मीडिया ने पेशेवर अंदाज बनाए रखा। उसने लोकवृत्त के निर्माण की
भूमिका में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। नैतिकता के आवरण को आजाद
भारत के विकास के लिए नए सिरे से पारिभाषित किया। जिसमें विकास के नेहरूवादी मॉडल
का आंख मूंदकर समर्थन किया गया। हालांकि तब तक चूंकि मीडिया पर पूंजी का बड़ा असर नहीं
था और आजादी के आंदोलन के दौरान विकसित मूल्य बाकी थे, लिहाजा भारतीय मीडिया का
विविधरंगी रूप बना हुआ था। यह विविधरंगी रूप ही था कि नेहरूवादी मॉडल के समर्थकों
के बीच भारतीय राजनीति के कटखने चूहे (लोहिया नेहरू के सामने खुद को काटने वाला
चूहा ही कहते थे) डॉक्टर राममनोहर लोहिया की वैचारिक धारा का समर्थक मीडिया
का भी एक वर्ग विकसित होता रहा। नेहरू के बाद नेहरूवादी मॉडल का समर्थक मीडिया
इंदिरा का भी समर्थक रहा। निश्चित तौर पर इसमें जूट प्रेस की बड़ी हिस्सेदारी थी।
( हिंदुस्तान टाइम्स समेत तमाम बड़े अखबारी घरानों का तब मुख्य व्यवसाय जूट की
फैक्टरियां चलाना था।) इस जूट प्रेस ने भी नैतिकता को अपने ढंग से पारिभाषित किया।
इसे समझने के लिए 2013 में बालकृष्ण गुप्त की प्रकाशित किताब हाशिए पर पड़ी दुनिया
को पढ़ना होगा। यहां यह बता देना जरूरी है कि बालकृष्ण गुप्त लोहिया के सहयोगी थे
और राज्यसभा के सदस्य भी रहे। लेकिन मीडिया में तब तक प्रसृत सभी धाराओं को चोट 25
जून 1975 को आधी रात को लागू आपातकाल के बाद लगी और इसके बाद मीडिया की आजादी सबसे
बड़ा लक्ष्य हो गई। 1977 में जनता सरकार के गठन के बाद विकसित मीडिया में उफनते
तेवर की वजह आपातकाल के काले अनुभव थे। तब से लेकर उदारीकरण की आंधी की शुरूआत
यानी करीब 1995 तक भारतीय मीडिया के पेशेवराना अंदाज की पहली शर्त जनता और राष्ट्र
के हितों का ध्यान रखते हुए नैतिकता के ऊंचे मानदंडों को बनाए रखना रही। निश्चित
तौर पर इसमें बहु और विविधरंगी मीडिया ने भी अपनी तरह से भूमिका निभाई। तब हर शहर
में नजदीक के बड़े शहरों से आने वाले दो-एक बड़े अखबारों के अलावा अपने छोटे अखबार
भी थे। जाहिर है कि उनमें स्थानीय माटी की सोंधी सुगंध और संस्कृति का निजी चटख
रंग होता था। लेकिन उदारीकरण के बाद पूंजी के बढ़ते प्रभाव ने स्थानीय माटी और
संस्कृति पर सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई। एक तरह से एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का विकास
हुआ और बड़े शहरों के बड़े अखबार ही अपनी दबंगई दिखाने के लिए पूंजी के खेल में
शामिल हो गए।
भारतीय मीडिया 1998
के विधानसभा चुनावों से खुले तौर पर पेड न्यूज के संकट का सामना कर रहा है।
चुनावों को भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से ने पेड न्यूज के जरिए कमाई का बड़ा
लक्ष्य तय करना शुरू कर दिया। इसके लिए उसे जनता के सामने अनावृत्त होने से भी
परहेज नहीं रहा। इसका 2009 के आम चुनावों में जब हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष
प्रभाष जोशी को पेड न्यूज का साक्षात दर्शन हुआ तो उन्होंने इसके खिलाफ अभियान
छेड़ दिया। यह दुर्भाग्य ही रहा कि नवंबर 2009 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।
इससे इस अभियान को थोड़ी चोट तो पहुंची, लेकिन रामबहादुर राय, पुरंजय गुहा
ठाकुर्ता समेत तमाम पत्रकारों ने अभियान जारी रखा। इसके बाद प्रेस कौंसिल ऑफ
इंडिया को ठाकुर्ता की अगुआई में एक जांच समिति बनानी पड़ी। इस जांच समिति ने अपनी
रिपोर्ट भी दी। यह बात और है कि कारपोरेट दबाव में उसे छोटा करके प्रकाशित किया
गया।
मीडिया के मुख्यत: तीन लक्ष्य माने जाते रहे हैं- सूचना देना, शिक्षा
देना और मनोरंजन करना। भारतीय परंपरा में कहें तो इन तीनों लक्ष्यों के पीछे सबसे
बड़ा मकसद लोकमंगल रहा है। लेकिन आज चाहे टेलीविजन हो या फिर अखबार, उन पर सबसे
बड़ा अपवाद यह है कि उनकी सोच में अब लोकमंगल का यह लक्ष्य कहीं तिरोहित हो गया
है। अखबार हों या टेलीविजन चैनल, उनके लिए लोकमंगल के बजाय अब कारपोरेट लक्ष्य और
कमाई कहीं ज्यादा अहम हो गए हैं। अखबारी नैतिकता कहती है कि विज्ञापन और खबरों में
स्पष्ट तौर पर विभाजन होना चाहिए। लेकिन पूंजी के बढ़ते दबाव और कारपोरेट की बढ़ती
दखल में अब न तो लोकमंगल का खयाल रखा जा रहा है और न ही विज्ञापन और सामग्री के
बीच स्पष्ट विभाजन रेखा नजर आ रही है। टेलीविजन चैनलों के लिए खबरों का मतलब सिर्फ
तमाशा हो गया है। इसे लेकर एक लोकनियामक संस्था की जरूरत पर बल दिया जा रहा है।
हाल के दिनों में टेलीविजन चैनलों पर भूत-प्रेत, तमाशा और हीरो-हीरोइनों की
शादियां बड़ी खबरें हो गईं, इतनी बड़ी खबरें कि उस दिन पेश देश का बजट, नदियों में
आई बाढ़, विभीषिका जैसी घटनाएं तिरोहित हो जाती हैं। प्रख्यात पत्रकार वीजी वर्गीज
ने 20 जुलाई 2014 को दिए एक भाषण में इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए
रेग्युलेटरी अथॉरिटी की स्थापना पर जोर देने का प्रस्ताव किया। उन्होंने उदाहरण
दिया कि अमेरिका में रेग्युलेटर निजी और सरकारी क्षेत्र मिलकर चला रहे और
पत्रकारिता में नैतिक मूल्यों के साथ ही लोकमंगल की भावना को बचाए हुए हैं।
ब्रिटेन का सरकारी कंटेंट कमीशन भी अपनी तरह से मीडिया को रेग्युलेट कर रहा है।
वर्गीज के विचारों को पुरातन मानकर खारिज करने वाले भी कम नहीं है। भारत में
मीडिया पर लगाम लगाने की हर कोशिश के विरोध के लिए मीडिया की आजादी को ही ढाल
बनाया जाता है। इसके साथ ही स्वनियमन की अवधारणा पर जोर दिया जाने लगता है। भारत
के टेलीविजन चैनलों की प्रसारण सामग्री की जब आलोचना बढ़ी तो उन्होंने नेशनल
ब्राडकास्ट एसोसिएशन के अधीन एक कंटेंट कमीशन बना दिया। बेशक उसका अध्यक्ष
अवकाशप्राप्त न्यायाधीश ही होता है। लेकिन इसका खास असर होता नजर नहीं आया।
ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन हो या फिर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया या फिर कोई और
पत्रकारीय संगठन, अव्वल तो मीडिया पर उनकी नैतिक लगाम कमजोर हुई है और ज्वलंत
मुद्दों , मीडिया के साख पर उठते सवालों और मीडिया को परेशान कर रहे ज्वलंत
मुद्दों पर इनमें से किसी भी संगठन ने मुखर आवाज कभी नहीं उठाई।
भारतीय मीडिया हमेशा से पाक-साफ रहा हो, यह भी कहना आसान नहीं है। लेकिन यह सच
है कि वह सामग्री और विज्ञापन में फर्क की अपनी नैतिक मर्यादा का पालन करते हुए
लोकमंगल पर भी खुद को केंद्रित करता रहा है। लेकिन 2005 में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह
को चलाने वाली बैनेट कोलमैन एंड कंपनी ने दस कंपनियों से एक व्यापारिक योजना के
साथ समझौते किए। इसके लिए इस कंपनी के प्रकाशनों में विज्ञापन छपवाने के लिए नकद
पैसे देने की बजाय बैनेट कोलमैन एंड कंपनी का शेयर खरीदना था। दिलचस्प यह है कि इस
व्यापारिक समझौते में वीडियोकॉन और काइनेटिक जैसी कंपनियां भी शामिल थी। एक आकलन
के मुताबिक करीब 200 के बीच कंपनियों से समझौते किए और हर समझौते से करीब 15 से 20
करोड़ रूपए था। इसी तरह का व्यापारिक समझौता हाल के दिनों में टीवी 18 ने किया। अब
तो वह घोषित तौर पर रिलायंस की कंपनी हो गई है। देश के सबसे बड़े खबरिया चैनल माने
जाने वाले आजतक की कंपनी टीवी टुडे में भी आदित्य बिड़ला ग्रुप की कंपनी की
हिस्सेदारी है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर जिस खबरिया चैनल या अखबार की कंपनी
के मालिकाने में बड़ी कंपनियां और कारपोरेट हाउसों की हिस्सेदारी होगी, वह उनके
खिलाफ अगर खबरें हुईं तो उन्हें कैसे दिखा सकेगा।
मीडिया के बारे में अब तक माना जाता है कि उसे देश और समाज द्वारा बड़ा
दायित्व सौंपा गया है। निश्चित तौर पर इतना बड़ा दायित्व हासिल करने के बाद मीडिया
दूसरे व्यवसायों जैसा सिर्फ पैसा कमाने जैसा व्यवसाय नहीं हो सकता। मीडिया देश और
समाज को लेकर अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वाह कर सके, इसीलिए कुछ नैतिक
मानदंड तय किए गए थे। ये मानदंड सार्वभौम हैं, इन मूल्यों पर न तो अमेरिका में
सवाल है, न रूस में और ना ही भारत में। वरिष्ठ पत्रकार धीरंजन मालवे इसे सप्तशील
कहते हैं यानी सच्चाई, संवेदनशीलता, संतुलन, संयम, संदर्भ,निष्पक्षता और
न्यायशीलता। लेकिन दुर्भाग्यवश मीडिया इन सप्तशीलों को भूल गया है। इसे समझने के
लिए मीडिया पर बढ़ते पूंजी का असर और उससे बढ़ती कमाई के आंकड़ों की तरफ ध्यान
देना होगा। भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर 2013 में फिक्की ने केपीएमजी
रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के मुकाबले 2012 में मीडिया
ने 13 प्रतिशत ज्यादा व्यापार किया, जो करीब 821 करोड रूपए का था। इस रिपोर्ट के
आकलन के मुताबिक इस उद्योग का विकास अगले कुछ वर्षों तक 15 फीसदी तक रहने के आसार
हैं। यहां इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि देश की सकल घरेलू उत्पाद दर
घटते-घटते पांच फीसदी के नीचे आ गई है। 2014-15 के बजट में वित्त मंत्री ने जीडीपी
का अनुमान साढ़े पांच फीसदी का लगाया है। जबकि मीडिया की विकास दर पंद्रह फीसदी रहनी
है। सिर्फ टेलीविजन उद्योग ने ही 2012 में फिक्की के आंकड़ों के मुताबिक अकेले 370
करोड़ का व्यापार किया। अगले पांच सालों तक इसमें 18 फीसदी की दर से विकसित होने
का अनुमान है, जो करीब साढ़े आठ सौ अरब हो जाएगा। 2012 में टेलीविजन उद्योग को
विज्ञापन के जरिए 125 अरब रूपयों की कमाई हुई। अनुमान को मुताबिक 2017 तक यह रकम
240 अरब तक हो जाएगी। अव्वल तो होना यह चाहिए कि इतनी कमाई के बाद इस उद्योग की
हालत अच्छी होनी चाहिए और इसमें काम करने वाले लोगों की स्थिति अच्छी होगी। लेकिन
हालत इसके ठीक उलट है। कब कौन-सा संस्थान बंद हो जाए और किसकी नौकरी कब चली
जाए,कोई ठीक नहीं है। फिर टेलीविजन के खबरिया उद्योग में इन दिनों चिट फंड
कंपनियों और बिल्डर कंपनियों का बोलबाला बढ़ा है। जैसे उन पर कोई शिकंजा कसता है,
उन्हें सबसे पहले अपने मनोरंजन और टेलीविजन उद्योग को समेटना ही आसान लगता है।
कारपोरेट और पूंजी का यह दबाव ही है कि अब खबरिया चैनल हों या अखबार या पत्रिका, संपादक
नाम की संस्था लगातार कमजोर होती गई है। वैसे टेलीविजन चैनलों के विस्तार की
शुरूआत के दौर में बेहतर पत्रकारों और नैतिक मूल्यों वाली हस्तियों ने इसे दोयम
दर्जे का मीडिया मानकर इससे किनारा रखना ही गवारा किया। हश्र यह हुआ कि उस दौर में
मीडिया में जिन्हें प्लेटफॉर्म नहीं मिला, उन्होंने टेलीविजन की तरफ रूख किया।
इनमें से ज्यादातर का न तो नैतिक मूल्यों में भरोसा था और ना ही पेशेवर अंदाज में।
वही पीढ़ी आज खबरिया चैनलों को नियंत्रित कर रही है। जाहिर है कि उनके व्यक्तित्व
का असर मीडिया पर ज्यादा नजर आ रहा है।
अखबारों की भी आर्थिक हालत बेहतर ही है। 2012 में अकेले इस उद्योग ने 224
करोड़ की कमाई की। जो पिछले साल के मुकाबले सात फीसदी ज्यादा था। अंदाजा है कि
बढ़ती साक्षरता की वजह से अभी यह उद्योग अगले कुछ सालों तक करीब नौ फीसदी की दर से
बढ़ता जाएगा और 2017 तक करीब 630 करोड़ तक पहुंच जाएगा। 2012 में विज्ञापनों के
जरिए मीडिया को कमाई का दो तिहाई हिस्सा मिला। 2017 तक अखबारों-पत्रिकाओं की कमाई
का करीब तीन चौथाई हिस्सा विज्ञापनों से आएगा। लेकिन अखबारों में भी कर्मचारियों
और पत्रकारों की हालत बहुत बेहतर नहीं है।
जाहिर है कि कंटेंट पर इसका ज्यादा असर पड़ रहा है। ऐसे में सार्वजनिक प्रसारक
की भूमिका बढ़ जाती है। जब भी सार्वजनिक प्रसारक की चर्चा होती है, बीबीसी का मॉडल
सामने आ जाता है। बीबीसी रेडियो का चैनल 4 जिस तरह सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर
विविधरंगी कार्यक्रम अपने जन्म से लेकर अब तक प्रसारित करता रहा है, उसने ब्रिटेन
के समाज को बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। इसी तरह बीबीसी टीवी के चैनल 4
ने भी अपनी तरह से विविधरंगी कार्यक्रम पेश किए हैं और पेश कर रहा है। इसकी बड़ी
वजह है कि उसकी जवाबदेही ब्रिटिश संसद के प्रति है। उसकी कमाई का स्रोत विज्ञापन
नहीं है। बल्कि ब्रिटेन में एक दौर में रेडियो सेट पर टैक्स लगता था और अब
टेलीविजन सेट पर लगता है। उससे हुई कमाई से ही बीबीसी चलता है। इसलिए वह अपनी जवाबदेही
अपने करदाताओं के प्रति ही मानता रहा है। दूसरी बड़ी बात यह है कि उसे चलाने के
लिए हमेशा प्रोफेशनल ही चुने जाते रहे हैं, अफसर नहीं। ऐसी बात नहीं है कि बीबीसी
पर राष्ट्रीय हितों के लिए दबाव नहीं पड़ता। 1956 में स्वेज नहर के लिए हुई लड़ाई
के दौरान बीबीसी ने सरकार के खिलाफ भी रिपोर्टिंग की। वैसे इराक हमले के बाद भी जब
रासायनिक हथियारों वाली रिपोर्ट लीक हुई और बीबीसी ने रिपोर्ट किया कि इराक में
रासायनिक हथियारों वाली रिपोर्ट बेबुनियाद थी। जिसे आधार बनाकर ब्रिटेन के
प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर ने इराक पर हमला
किया। इस रिपोर्ट के बाद बीबीसी पर दबाव बढ़ा और उसके महानिदेशक को इस्तीफा देना
पड़ा। अगर इन अपवादों को छोड़ दें तो ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ने सप्तशील
के सिद्धांत के साथ कोई समझौता नहीं किया। इन अर्थों में देखें तो भारत का प्रसार
भारती कहीं नहीं ठहरता। उसे हमेशा अफसर ही चलाते रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि आज
नैतिक और पेशेवर विचलन के दौर में सबसे ज्यादा साख भारतीय सार्वजनिक प्रसारक
दूरदर्शन और आकाशवाणी की ही है। निजी चैनलों की बनिस्बत भारतीयता और सप्तशील की
अवधारणा दूरदर्शन पर ही ज्यादा नजर आती है।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि भारतीय मीडिया पेशेवर और नैतिक विचलन के साथ ही
कारपोरेट दबाव का सामना कर रहा है। इसलिए यहां काम करने वाले ज्यादातर लोगों की
हालत भी ठीक नहीं है। भारतीय मीडिया की तमाम स्तरों पर जारी समस्याओं का सही निदान
क्या हो, इसके लिए तीसरा प्रेस आयोग बनाने की मांग चल रही है। रामबहादुर राय,
रामशरण जोशी, पुरंजय गुहा ठाकुर्ता, वीजी वर्गीज, कुलदीप नैय्यर सरीखे पत्रकारों
की यह मांग अब भी अनसुनी ही है।
1 टिप्पणी:
bahut badhiya likha hai Umesh jee.
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