सोमवार, 15 जुलाई 2013

खाली सिनेमा हॉल के बीच उदासी


(संपादित अंश नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है।)
उमेश चतुर्वेदी
शरद पूर्णिमा की रात दिल्ली में ठंड ने हौले से दस्तक दे दी है...लेकिन दूर पहाड़ों की रानी शिमला में ठंड अपने शवाब पर है...हिमाचल में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं..लेकिन माहौल में कोई चुनावी गर्मी नजर नहीं आ रही है...अगर गर्मी है भी तो अखबारी पन्नों पर...अखबारी हरफों में जुबानी जंग की गरमी की तासीर थोड़ी ही देर तक रह पाती है...फिर शिमला की ठंडी वादियों में बिला जा रही है...दिल्ली में शाम होते ही अलग तरह की रौनक बढ़ जाती है...शुक्रवार और शनिवार की शाम हो तो चहल-पहल का पूछना ही क्या...लेकिन शिमला रोजाना शाम के सात-साढ़े सात बजते ही उंघने लगता है..इस उंघने के बीच चुनावी शोर सुनने आए हमारे कान जिंदगी की एकरसता तोड़ने को उतावले हो उठते हैं...पता चलता है माल रोड के शाही सिनेमा हॉल में चक्रव्यूह लगी है...मैदानी शहरों में शाम छह का शो जाड़े के दिनों में बेहतर माना जाता है...अपना मैदानी मन भी पहुंच जाता है शाम का शो देखने...लेकिन यह क्या..नक्सलवाद के चक्रव्यूह की गरम तासीर को महसूसने पहुंचते हैं सिर्फ चार लोग...एक खुद इन पंक्तियों
का लेखक और दो उसके पत्रकार दोस्त..तीसरा राजनीतिक कार्यकर्ता...शाही सिनेमा हॉल के मैनेजर साहब हमारी उत्कंठा भांप जाते हैं...टिकट खिड़की के ही भीतर चल रहे रसरंजन के कार्यक्रम को बीच में ही छोड़कर बाहर निकल आते हैं...कोई तोमर हैं...हमसे सिफारिश करते हैं..सर बीस मिनट इंतजार कर लीजिए...शाम का शो चल रहा है...अपन उम्मीद लगाते हैं कि खासे लोग होंगे..प्रकाश झा का निर्देशकीय कौशल देखने कम से कम सैलानी तो जुटे ही होंगे..लेकिन यह क्या शो सवा सात बजे छूटता है और बाहर निकलते हैं कुल जमा दस-बारह लोग..लेकिन इससे भी ज्यादा हैरत तब होती है..जब साढ़े सात के शो में बॉलकनी का टिकट लेकर हम चार ही लोग दाखिल होते हैं..करीब सौ साल पुराने इस सिनेमा हॉल का ऑपरेटर कुछ मिनटों तक इंतजार करता है...नीचे रियर स्टॉल में एक लड़की और लड़का आते हैं पचहत्तर का टिकट लेकर..शायद वे भी हमारी तरह बाहरी हैं..सैलानी...हॉल को खाली पाकर उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है...लेकिन हम डटे रहते हैं..चक्रव्यूह शुरू हो जाता है...रवायत के मुताबिक कई ट्रेलर चलते हैं...नमूना सर्वे को सही जानकारी देने वाला सरकारी विज्ञापन भी...लेकिन हमारे दोस्त आशीष से रहा नहीं जाता...वह ऑपरेटर को प्रोजेक्टर की खिड़की से ही इशारा करता है...भाई हम सिर्फ चार ही हैं और हमारी विज्ञापन-ट्रेलर में कोई दिलचस्पी नहीं..फिल्म चलती रहती है..हम नक्सलवाद, उसके चक्रव्यूह और प्रकाश झा के निर्देशन में उलझ जाते हैं...इस बीच इंटरवल होता है...आम सिनेमा हॉल होता तो मकई के लावे को कूटने, हाजत जाने, पानी पीने की होड़ लग जाती...बीच के वक्त में कुछ लोग धुआं भी उड़ा आते..लेकिन यहां तो ठहरे हम सिर्फ चार...ऑपरेटर को इशारा करते हैं..भाई सिनेमा चालू रखो.शायद ऑपरेटर को भी जल्दी है..वह सिनेमा चालू कर देता है...सवा दस बजे रात को चक्रव्यूह भले ही नहीं टूटता...हमारी सोच और हैरत में उसका एक घेरा और बढ़ जाता है...रात के आखिरी शो के लिए सिर्फ पांच लोग हैं और सिनेमा हॉल के मैनेजर तंवर जी और उनका अमला शो शुरू करने के लिए तैयार है। शो शुरू भी हो जाता है...खाली वक्त में शाम को मैनेजर और कर्मचारी लगता है पूरी हायरारिकी भूल जाते हैं..टिकट खिड़कियों के पीछे रसरंजन जारी है...हम बाहर निकलते हैं..वे भी बाहर निकल आते हैं...कुछ सवाल उनकी तरफ उछाले जाते हैं...बेहद संजीदगी से वे जवाब हमारी तरह हौले से उछाल देते हैं..पता चलता है कि अंग्रेजों के बनवाए इस सिनेमा हाल में दिन का शो हमेशा ठीकठाक चलता है..शनिवार और रविवार को शाम साढ़े सात तक का शो ठीक ठाक चलता है...लेकिन बाकी दिनों में सन्नाटा छाया रहता है...हम उनकी तरफ सवाल उछालते हैं- क्या दर्शकों की कमी से आप उदास नहीं होते...उनका जवाब बेहद शालीन है...पहाड़ उदास कहां होने देता है सर...लेकिन अपना अनुभव कुछ दूसरा ही है...दो तीन दिनों के बाद पहाड़ उदास करने लगता है..लगता है उसकी ऊंचाई हमें हकीकत से दूर कर देती है...इससे एक खास तरह के अकेलेपन का बोध होने लगता है और वह रोज-ब-रोज त्रासद होता जाता है..शाही सिनेमा हाल में दर्शकों की कमी ने उसी उदासीपन को बढ़ा दिया था...ऐसी उदासी मुझे तब भी महसूस हुई थी...जब बरसों पहले पूर्वी यूरोप के पहाड़ों की उदासी से भरे निर्मल वर्मा की दो किताबें पढ़ीं थीं। उनके उपन्यास वे दिन के पारायण के बाद उदासी का दौरा तो महीनों तक तारी रहा...चीड़ों पर चांदनी को पढ़ने के बाद इसमें इजाफा भी हुआ...खाली सिनेमा हाल से निकलने के बाद एक बार फिर ये दोनों ही किताबें याद आ रही हैं।

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