उमेश चतुर्वेदी
पुस्तक- मन का तुलसी चौरा
लेखक – तरूण विजय
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
कभी हिंदी पाठकीयता की श्रीवृद्धि में अहम स्थान रखने वाली ललित निबंध विधा
अब भूले-भटके वाली विधा हो गई है। कारपोरेट दबाव में अब सीधी सपाट बयानबाजी पत्रकारिता
का अहम स्थान बना चुकी है। इस बीच भी अगर कोई पत्रकार अपने लेखन में लालित्य को बचाए
रख सका है तो निश्चित तौर पर उसे दाद देनी ही पड़ेगी। तरूण विजय अब महज पत्रकार ही
नहीं रहे, बल्कि सांसद हो गए हैं। लेकिन उनके लेखन का लालित्य अब भी बरकरार है और हिंदी
के चुनिंदा अखबारों में सामयिक विषयों पर भी उऩका भावोत्मक लेखन जारी है। मन तुलसी
का चौरा उनके ऐसे ही अखबारी लेखों का संग्रह है। जिसे पढ़ते हुए आपको एक बार भी नहीं
लगेगा कि आप अखबारी लेखों से गुजर रहे हैं। सामयिकता का दबाव अखबारी लेखन पर इस कदर
हावी रहता है कि वहां प्रकाशन के कुछ ही घंटों बाद उस लेखन में बासीपन आ जाता है। लेकिन
इस संग्रह में शायद ही कोई रचना हो, जिसमें यह बासीपन आ पाया होगा।
तरूण विजय के लेखन को हिंदुत्ववादी होने
के आरोप में एक वर्ग भले ही नकारने की कोशिश करे, लेकिन सच तो यह है कि उनके लेखन में
भारतीयता की अजस्र धारा लगातार बहती रहती है। जाहिर है कि उनकी रचनात्मक दृष्टि में
सांस्कृतिक भारत की महान खासियतें भी अपनी पूरी करूणा और जिजीविषा के साथ सामने आती
हैं। इस पुस्तक में अनेक स्थल ऐसे हैं, जिन्हें भावोद्रेक के चलते उद्धृत किया जा सकता
है। पुस्तक की भूमिका में रमेश चंद्र शाह ने इस संग्रह के पहले ही लेख मन तुलसी का
चौरा का एक अंश उद्धृत किया है - “ देश का मन और जल दोनों गंदला गए हैं। दिल्ली में यमुना का आचमन तो दूर, स्पर्श
तक नहीं किया जा सकता। पीढ़ियों से अपने धार्मिक संस्कार सुरक्षित रखे सूरीनाम और त्रिनिनाद
के लोग काशी गए तो गंदगी से भरी गलियां,..और ईश्वरोपासना की पहली ही सीढ़ी पर जाति
के जुगुप्साजनक अहंकार का परिचय। ...अब कोई विधर्मी नहीं, जो हमारी गंगा, जमुना या
मंदिरों को गंदा करने आते हों। यह काम हम खुद ही करते हैं।” अपने इस विचार से तरूण विजय साफ कर देते हैं कि आखिर किस कदर हमरा अपना ही
समाज अपने दोषों के लिए जिम्मेदार है। हिंदुत्व के विरोध में जब भी आवाज उठती है, तब
हिंदुत्व के पैरोकारों पर ही सवाल उठते हैं। तरूण विजय उन्हीं पैरोकारों में से ही
हैं। लेकिन उनके लेखन का स्वर तो कुछ और ही नजर आता है।
तरूण विजय देश भर की यात्रा भी करते रहे
हैं। इन यात्राओं के दौरान देश के उस इलाका विशेष की संस्कृति और परंपराओं को देखने
के पीछे बेशक उनकी सांस्कृतिक दृष्टि ही रही हो, लेकिन इसके बावजूद भारतीय राष्ट्रीयता
की अवधारणा से लगातार दूर होते उस इलाके के दर्द को उभार पाने में तरूण कामयाब रहते
हैं। कण्णगी का पुनर्जन्म हो या कोहिमा की कूकीथोई के प्रश्न...तरूण का यह दर्द हर
जगह छलकता ही रहता है। तरूण के इस संग्रह में कहीं सतलुज की धारा अपने पूरे तेजोमय
संस्कार को लेकर उत्तर की संस्कृति को प्रतिध्वनित कर रही है तो कहीं कावेरी भी अपने
पूरे उल्लास के साथ है। लेकिन सबका मूल स्वर एक ही है कि आधुनिकता की दौड़ और नई राजनीति
के दबाव में अपनी जो भारतीयता रही है, कहीं ना कहीं खो जरूर गई है। तरूण अपनी भारतीयता
को बचाने और धर्मनिरपेक्षता की मौजूदा धारणा को छद्म साबित करने की कोशिशें भी कम नहीं
करते। ऐसा करते वक्त कई बार मंजा हुआ भी रचनाकार लालित्य को बरकरार नहीं रख पाता है।
लेकिन पूरे संग्रह में अगर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के राष्ट्र के विचलन का क्षोभ है
भी तो वह भी पूरे लालित्य सौष्ठव के साथ है। लेखन के नजरिए से तरूण की यह कामयाबी तो
मानी ही जा सकती है। कुल मिलाकर इन लेखों का संग्रह हिंदुत्ववादियों को ही नहीं, विरोधियों
को भी जरूर पढ़ना चाहिए। ताकि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के चलते हिंदुत्व और सांस्कृतिक
भारतीयता के उस चेहरे को भी देखा और पहचाना जा सके, जो कभी गांधी जी को भी स्वीकार्य
था।(अमर उजाला में प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें