उमेश चतुर्वेदी
पूरे देश में मौसमी दहलीज पर जब सर्दी दस्तक देती है तो जिंदगी को जल्दी समेटने की तैयारियां तेज हो जाती हैं। एक तरफ सूरज देवता अपनी किरणों को समेटते हैं और दूसरी तरफ देश गुदड़ी से लेकर अलाव तक के सहारे रात का अंधेरा काटने की दिशा में आगे बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि गुलाबी सर्दियां सिर्फ शहरों को ही भली लगती हैं, गांवों को भी गुलाबी सर्दियां उतना ही आनंद और सुकून देती हैं, जितना सुविधाजीवी शहरातियों को। लेकिन हाड़ कंपाने वाली ठंड पूरे देश में जिंदगी की गाड़ी को भी ठंडी कर देती है। लेकिन इन्हीं दिनों दिल्ली के साहित्यिक गलियारे गुलजार हो जाते हैं। सर्दियों की परवाह करने की जरूरत भी नहीं रहती। रसरंजन का सर्दियां बेहतरीन बहाना बन जाती हैं। इसी बहाने किताबों के विमोचन का दौर तेज हो जाता है। साहित्यिक गलियारे की यह गर्मी साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए जोड़तोड़ के चलते बढ़ जाती है। वैसे भी इन दिनों विशुद्ध लेखक किस्म के साहित्यकारों की पूछ कम हुई है। लेखक अगर प्राध्यापक हुआ या फिर सरकारी आला अधिकारी तो समझो सोने पर सुहागा। प्रकाशकों की फौज उनकी किताबों के प्रकाशन और प्रकाशन के बाद लोकार्पण के बहाने वैचारिक विमर्श में जुट जाती है। अगर लेखक ऊंचा सरकारी अफसर हुआ तो क्रांतिकारी होने का दावा करने वाले लेखक और आलोचक तक उसकी किताब को न भूतो न भविष्यति का विशेषण देने लगता है। दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला के बाद सर्दियां ही ऐसा बड़ा अवसर होती हैं, जब दिल्ली का साहित्यिक समाज सक्रिय हो जाता है। मशहूर लेखक हिमांशु जोशी कहते रहे हैं कि हिंदी को जरूरत है ऐसे लेखक की जो चौबीस घंटे की जिंदगी में पच्चीस घंटे लेखन में व्यतीत करे। ऐसे लेखक हैं भी लेकिन प्रकाशक मित्रों का उन पर ध्यान कम ही जाता है। उनके लिए अधिकारी लेखक कहीं ज्यादा मुफीद है। पच्चीस घंटे लिखने वाला लेखक प्रकाशक की किताबें भला कैसे बिकवा सकता है। लेकिन अफसर या रसूखदार प्रोफेसर हुआ तो किताबें बिकवाना उसके लिए बाएं हाथ का खेल है। जाहिर है ऐसे लेखक प्रकाशक को मुफीद लगते हैं। इसीलिए उनकी कविता हो या कामचलाऊ गद्य की पुस्तक, सब कुछ छाप देता है और उसे पत्रकारिता के हवाले कर देता है। इन दिनों एक और प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है। टेलीविजन के लोकप्रिय चेहरों से किताबें लिखवाने का, उन्हें बाकायदा लोकार्पित भी किया जाता है। पिछले दिनों ऐसी ही एक शख्सियत की किताब का पुनर्संस्करण प्रकाशित हुआ। उस किताब को भी न भूतो न भविष्यति बताने के लिए बड़ा कार्यक्रम हुआ। हिंदी के एक नामी प्रकाशक ने इन पंक्तियों के लेखक को एक ऐसे मशहूर टीवी पत्रकार के लिए घोस्टराइटिंग करने का प्रस्ताव दिया था, जिनका बड़ा नाम है। हिंदी के बड़े अखबारों को भी अब अपनी रियल प्रतिभाएं कम ही प्रभावित करती हैं। उन्हें अधकचरी हिंदी लिखने या धाराप्रवाह अंग्रेजी लिखने वाले सोशलाइट किस्म के पत्रकार, नेता या अधिकारी ही विचार पक्ष को मजबूत करने के लिए बेहतर लगते हैं। हिंदी की अपनी मौलिक प्रतिभाओं पर उनका भरोसा नहीं है। जिनका मूल काम ही लिखना-पढ़ना है, हिंदी के ही अखबारों का उन पर इकबाल कम हुआ है। हिंदी के प्रकाशक भी उसी प्रवृत्ति को अपने ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं। प्रकाशकों का तर्क है कि मशहूर टीवी पत्रकारों की किताबें खूब बिकती हैं। ऐसा नहीं कि सभी टीवी एंकरों को लिखना ही नहीं आता। लेकिन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि जिनकी किताबें छप रही हैं, उनमें से कम के ही पास लिखने का शऊर है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बिकाऊ चेहरों, कोर्स में किताबें रखवाने की हैसियत रखने वाले प्रोफेसरों और अफसर लेखकों के ही सहारे हिंदी का कारवां आगे बढ़ेगा। इसका जवाब हिंदीभाषी समाज को खोजना पड़ेगा।
चलते-चलते- आठ दिसंबर को दिल्ली का तापमान आठ डिग्री सेल्सियस के आसपास था, उसी दिन वाणी प्रकाशन ने एक साथ आठ उपन्यासों का लोकार्पण करके इतिहास रच दिया। मशहूर लेखक असगर वजाहत का उपन्यास पहर दोपहर, रमेश चंद्र शाह का असबाब-ए-वीरानी , पुन्नी सिंह का जो घाटी ने कहा, ध्रुव शुक्ल का उसी शहर में उसका घर, मोहनदास नैमिषराय का जख्म हमारे, पत्रकार और कवि विमल कुमार का चांद एट द रेट डॉट कॉम, पत्रकार प्रदीप सौरभ का तीसरी ताली और सुरेश कुमार वर्मा का उपन्यास मुमताज महल का एक साथ लोकार्पण निश्चित तौर पर हिंदी साहित्यिक जगत के लिए महत्वपूर्ण घटना रही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें