उमेश चतुर्वेदी
1994-95 की बात है। दिल्ली के तब के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना विदेश दौरे पर थे। उनकी गैरमौजूदगी में तब के शिक्षा और विकास मंत्री साहब सिंह वर्मा कार्यकारी मुख्यमंत्री की भूमिका निभा रहे थे। इस दौरान उन्होंने तय किया कि पब्लिक स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी की पढ़ाई पर रोक लगा दी जाय और उन्होंने उसे रोक दिया। इसे लेकर राजधानी के अंग्रेजीभाषी समाज में भूचाल आ गया। अंग्रेजी मीडिया और पब्लिक स्कूलों ने सुर में सुर मिलाकर तर्क देना शुरू कर दिया था कि अंग्रेजी की पढ़ाई के बिना तकनीकी पढ़ाई का क्या होगा। यहां यह बताना बेकार है कि मदनलाल खुराना के विदेश से लौटने तक अंग्रेजी के खेवनहार जीत गए थे और साहब सिंह वर्मा का गंवई मन मसोस कर अपने ही फैसले को वापस होता देखता रह गया। लेकिन इस साल आईआईटी की परीक्षा के जो नतीजे आए हैं, उसने इस धारणा को गलत साबित कर दिया है कि हिंदी माध्यम वाले बच्चे देश की इस सबसे बेहतर तकनीकी संस्थान में दाखिला नहीं ले सकते और बेहतरीन विद्यार्थी नहीं हो सकते।
इस साल आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा में कुल 13,104 उम्मीदवार सफल हुए हैं। जिसमें हिंदी माध्यम से पास होने वाले छात्रों की संख्या 554 है। तेरह हजार से ज्यादा कामयाब छात्रों के बीच हिंदी वाले छात्रों की इतनी संख्या छोटी हो सकती है। लेकिन पिछले रिकॉर्ड पर जब नजर जाती है तो यह कामयाबी कहीं ज्यादा बड़ी नजर आती है। खुद आईआईटी के ही मुताबिक पिछले साल हिंदी माध्यम से सिर्फ 184 प्रतियोगी सफल रहे थे। इसकी तुलना में तो इस साल की कामयाबी करीब तीन गुना ज्यादा बैठती है। जाहिर है कि इससे हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाले नए प्रतियोगी और उत्साहित होंगे और अगली बार कामयाबी में उनकी भागीदारी और भी ज्यादा होगी।
1835 में जब मैकाले ने मिंट योजना लागू की थी तो उसका एक मात्र उद्देश्य अंग्रेजी सरकार के लिए बाबुओं को तैयार करना था। मैकाले की आत्मा जहां भी होगी, वह अपनी कामयाबी का अब तक जश्न मनाती रही है। क्योंकि भारत में अंग्रेजी का व्यवहार अंग्रेजी की अपनी ब्रिटिश धरती की तुलना में कहीं ज्यादा रहा है। लेकिन आईआईटी में हिंदी माध्यम वालों की कामयाबी ने कम से कम मैकाले की आत्मा को भी अब जरूर परेशान करना शुरू कर दिया होगा। अपने देश में जब भी अंग्रेजी के खिलाफ कोई तर्क दिया जाता है, तुरंत हिंदी के विरोध में भी कहा जाने लगता है कि हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई के लिए न तो किताबें हैं और न ही उसमें इतनी क्षमता है कि वह अंग्रेजी की तरह तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान की चीजों को अभिव्यक्त कर सके। इसके खिलाफ चीन और जापान की तकनीकी क्रांति और दुनिया में आर्थिक महाशक्ति बनते जाने का उदाहरण भी दिया जाता रहा है। लेकिन भारतीय मानसिकता यह है कि वह अपनी सनातनी पद्धति के गौरव का जिक्र तो करती है, लेकिन भारतीयता के प्रतीक माने जाते रहे दो शब्दों गंगा और सिंदूर को देने वाली धरती की ओर नहीं झांकती। भारतीयता के प्रतीक ये दोनों ही शब्द पड़ोसी देश चीन से आए हैं। चीन की प्रगति की हम अब बात तो करने लगे हैं, लेकिन वहां जारी अपनी भाषाओं और अंग्रेजी के खिलाफ बढ़ते माहौल को लेकर हम उदासीन ही रहते हैं। आर्थिक उदारीकरण के दौर में चीन और जापान की तकनीकी क्रांति अब हमें भी लुभा रही है, हम उन्हीं की तरह आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर आगे बढ़ने की बात तो करने लगे हैं, लेकिन हमें उनकी तरह अपनी भाषाओं से प्यार का ककहरा सीखने में झल्लाहट और हिचक जारी है।
देश में बढ़ते अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के पीछे एक बड़ा तर्क यह भी है कि हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाले लोग क्लर्क और चपरासी तो बन सकते हैं, लेकिन इंजीनियर, डॉक्टर और आईएएस नहीं बन सकते। यही वजह है कि देश के दूरदराज तक के इलाकों में अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों की बाढ़ आ गई है। लोगों में यह भावना घर कर गई है कि चाहे भूखे रहेंगे, आधी रोटी खाएंगे, लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ाएंगे। हालांकि इस प्रवृत्ति की मुखालफत साठ के दशक में डीएस कोठारी की अध्यक्षता वाला कोठारी कमीशन से लेकर आज के दौर के मशहूर शिक्षाशास्त्री और वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल तक कर चुके हैं। सबसे बड़ी बात यह कि दोनों ही विद्वान अंग्रेजी के भी वैसे ही जानकार हैं, जैसे भारतीय अंग्रेजी दां हैं। देश की तकरीबन हर सरकार भी इन विद्वानों की राय का आदर करती रही हैं, लेकिन अंग्रेजी समर्थक लॉबी के दबाव में बच्चों से अंग्रेजी का दबाव हटाने की दिशा में कभी इच्छाशक्ति नहीं दिखा पाईं।
भारत के अपने लोग और अपने अगुआ भले ही जिस काम को नहीं कर पाए, आर्थिक उदारीकरण के बाद बढ़ते भारत के विशाल मध्यवर्ग ने वह कर दिखाया है। आज भारत में माना जा रहा है कि करीब चालीस करोड़ लोगों का विशाल मध्यवर्ग है, जिसकी खरीद क्षमता बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि दुनिया के बड़ी कंपनियां तक कमाई के लिए भारत का रूख कर रही हैं। उन्हें पता है कि इस बाजार का दोहन हिंदी और भारतीय भाषाओं के जरिए ही किया जा सकता है, यही वजह है कि वे हिंदी में काम को बढ़ावा दे रही हैं। इस तरह हिंदी नए सिरे से प्रतिष्ठापित हो रही है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के इस जयगान में भारतीय लोकतंत्र का भी बड़ा हाथ है। लोकतंत्र में पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के लोगों की ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी तक वह पहुंच नहीं बन पाई है, जो हिंदी और भारतीय भाषाओं की है। कोई सरकार भले ही राजभाषा के मंच पर प्रतिष्ठित राजभाषा की उपेक्षा कर दे, लेकिन सत्ता विमर्श में उभर कर सामने आ रही इन जातियों और इन वर्गों की अनदेखी नहीं कर सकती। इसलिए उन्हें हिंदी और भारतीय भाषाओं को आईआईटी और संघ लोकसेवा आयोग तक प्रवेश देना पड़ रहा है, जहां हिंदी अब तक चेरी या दोयम भूमिका में रही है। इसका नतीजा दिख रहा है कि अब हिंदी माध्यम के परीक्षार्थी आईआईटी और सिविल सर्विस तक में कामयाब होने लगे हैं। कार्मिक मंत्रालय ने सिविल सर्विस परीक्षा की जो रिपोर्ट जारी की है, उसके मुताबिक पिछले साल आईएएस के लिए जिन 111 लोगों का चयन हुआ, उनमें से हिंदी माध्यम के सफल प्रतियोगी 19 थे। संघ लोकसेवा आयोग के ही मुताबिक इस साल कामयाब टॉप 25 में चार प्रतियोगियों ने हिंदी माध्यम में परीक्षा दी थी। इन छात्रों की कामयाबी का जश्न इसलिए भी ज्यादा हो जाता है, क्योंकि खुद आईआईटी की आर्गेनाइजिंग कमेटी की रिपोर्ट ही मानती है कि हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों के लिए आईआईटी परीक्षा में पास होना आसान नहीं है।
जाहिर है इसका असर सामाजिक तौर पर भी पड़ रहा है। संघ लोकसेवा आयोग के सदस्य और हिंदी के जाने-माने विद्वान पुरुषोत्तम अग्रवाल भी मानते हैं कि हिंदी माध्यम ने सिविल सर्विस की परीक्षाओं में ग्रामीण इलाकों के छात्रों के लिए भी दरवाजे खोले हैं। जाहिर है इसका असर इंजीनियरों और सिविल सेवा अधिकारियों की मानसिकता पर भी पड़ेगा। अब तक इन सेवाओं को सिर्फ शहरी नजरिए से ही देखा जाता रहा है। भारत के गांवों के पिछड़ेपन को लेकर अब तक जितने भी आरोप लगते रहे हैं, उसमें एक बड़ा कारण यह भी माना जाता रहा है कि जो भी योजनाएं बनती हैं, उन्हें बनाने वाले ज्यादातर लोगों को गांवों से परिचय सिर्फ निबंध लेखन तक ही होता है। लेकिन हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से जो छात्र इंजीनियरिंग या सिविल सर्विस में आ रहे हैं, उनका नजरिया जाहिर है कुछ अलग ही होगा। उनकी सोच अपने धूल भरी गांवों की गलियों के उत्थान के लिए भी होगा। तो क्या हम ये मानने लगें कि भारत की 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी में बदलाव की नई बयार बहने वाली है। आईआईटी और सिविल सर्विस में हिंदी और भारतीय भाषाओं की यह कामयाबी कम से कम ऐसी उम्मीद तो जरूर जताती है।
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3 टिप्पणियां:
यह समाचार भारतीय भाषाओं के लिये सुखद है। सही बात तो यह है कि हम चीन आदि देशों से पिछड़ रहे हैं तो इसका असली कारण अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा है। इसके कारण मौलिक सोच वाले भारतीय आगे नहीं आ पाते जिससे भारत मौलिक काम नहीं कर पा रहा है। चीन में इस समय मौलिक नवाचारों (इन्नोवेशन्स) की बहार आयी हुई है।
bohat badiya he sr.. apko is par apne vicharo se kataksh krni hogi jyada se jyada tbhi bat banegi..
bohat badiya he sr.. apko apne vicharo se is par jyada se jyada kataksh krni hogi tabhi bat bnegi.
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