शनिवार, 26 जनवरी 2008

स्टिंग का खेल और टीवी पत्रकारिता

गीता
1991 में जब उदारीकरण की बयार इस देश में बहाए जाने की तैयारी थी- तब उसके विरोधियों का एक तर्क ये भी था कि उदारीकरण की बयार देश की संस्कृति और परंपरा पर भी असर डालेगी। कहना ना होगा कि पत्रकारिता पर भी इसका खासा असर देखने को मिल रहा है। झटपट चर्चित ओने और पैसा कमाने का मोह आज पत्रकारिता पर भी हावी हो गया है। चूंकि भारत में टेलीविजन पत्रकारिता चूंकि इसी दौर में पनपी है- इसलिए भौतिकवादी जीवनधारा (मैटरलिस्टिक लाइफ स्टाइल) पर इसका कुछ ज्यादा ही असर दिख रहा है। स्टिंग पत्रकारिता भी इसी की एक कड़ी है।
पिछले दिनों दो स्टिंग मीडिया में बेहद चर्चित रहे। पहला स्टिंग रहा - जनमत के परिवर्तित नाम वाले चैनल इंडिया लाइव का- जिसके असर से एक अच्छी-भली अध्यापिका की जिंदगी सूली पर चढ़ गई। उमा खुराना स्कूली छात्राओं से वेश्यावृत्ति नहीं कराती थी- पुलिस जांच से ये साबित भी हो गया है। लेकिन एक चैनल ने सनसनी बटोरने के लिए ये पड़ताल करना जरूरी नहीं समझा कि स्टिंग की हकीकत क्या है। यहीं पर अनुभव की बात आती है। इस चैनल के युवा कर्ताधर्ताओं को सनसनी चाहिए थी और उनकी इस चाहत का ही फायदा उठाया नए पत्रकार प्रकाश ने। मजे की बात ये है कि इसमें स्कूली छात्रा की भूमिका निभाने वाली भी लड़की पत्रकार रही है। सनसनी और पैसे कमाने की चाहत ने साध्य की पवित्रता का कोई खयाल नहीं रखा और उमा खुराना को सूली पर चढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी गई। जब तक टेलीविजन नहीं थे- सिर्फ अखबारी दुनिया थी- तब पत्रकारों के बीच एक कहावत प्रचलित थी- नो न्यूज इज बेटर न्यूज यानी खबर का ना होना बेहतर खबर है। लेकिन आज के पत्रकार के पत्रकारीय मुंह को खबरों का खून लग गया है। ऐसे में नो न्यूज की चिंता ही उसे खाए डालती है। उदारीकरण की कोख से निकले टेलीविजन पत्रकारों को ये खून कुछ ज्यादा ही लग गया है। इसी का असर है कि किसी शिक्षिका को भी बदनाम करने के पहले सोचा नहीं जाता और दंगे हो जाते हैं। वैसे भी इंडिया लाइव के जो कर्ताधर्ता हैं- उनका वैसे भी कोई साफ पत्रकारीय रिकॉर्ड नहीं रहा है। ऐसे में ये कहना कि प्रकाश ने उसे झांसे में रखा- सहज भरोसेमंद नहीं है। सच तो ये है कि आज के दौर में पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखने वाले हर नौजवान की एक ही पसंद है- टेलीविजन के पर्दे पर छा जाना। एक-दो नौजवान ही मिलते हैं- जिनकी दिलचस्पी सोच-विचार वाले माध्यम अखबार और पत्रिका में काम करने में होती है। असलियत तो ये है कि उमा खुराना का स्टिंग करने वाला प्रकाश पहले आईबीएन सेवेन नाम के नवेले हिंदी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा था और उसे इस स्टिंग के सहारे बुद्धू बक्से वाले पत्रकारिता पर छा जाने की उम्मीद थी। लेकिन जब उसका मकसद आईबीएन में साबित होता नहीं दिखा तो वह इंडिया लाइव में आ गया। उसका ऑपरेशन सफल भी रहा- रातोंरात इंडिया लाइव छा भी गया- उसके कर्ताधर्ताओं के फोटो और इंटरव्यू अखबारों में चस्पा होने लगे। लेकिन पुलिस की जांच ने उनके सारे गुब्बारे की हवा निकाल दी।
दूसरा स्टिंग भी इसी तरह का रहा। झारखंड के सांसद रामेश्वर उरांव को फर्जी पत्रकारों की एक टीम ने फंसाने की कोशिश की। लेकिन आज का हर राजनेता बंगारू लक्ष्मण नहीं रहा। अब राजनेता भी सतर्क हो गए हैं। उरांव भी सावधान थे तो उन्होंने पुलिस ही बुला ली और तीन फर्जी पत्रकार -दूसरे शब्दों में कहें तो स्टिंगबाज धरे गए। जब पुलिस ने उनसे पूछताछ की तो उन्होंने एक-दो चैनलों को छोड़कर तकरीबन सभी बड़े दबंग स्टिंग और खोजी संपादकों का नाम ले डाला। उनका कहना था कि उन्होंने सबसे तेज से लेकर सबसे आक्रामक चैनल के खोजी संपादकों के लिए स्टिंग किए हैं। जब उन्होंने पुलिस को ये बयान दिए तो संबंधित संपादकों के हाथों से तोते उड़ते नजर आए। फिर शुरू हुआ आननफानन में हर एक चैनलों को फोन करके ये खबर न चलाने की गुजारिश का खेल। इसमें उनकी बदनामी जो होनी थी। ऐसा हुआ भी। अपनी बिरादरी का पत्रकारों ने खयाल रखा भी। लेकिन इससे एक सवाल तो उठ खड़ा हुआ ही कि आखिर टेलीविजन के पर्दे पर क्या किया जा रहा है। वैसे भी जिस जनता के नाम पर खबरों का खेल दिखाया जाता है- वह जनता भी अब चैनलों के इस खेल का रस लेकर आनंद उठाने लगी है। इसका असर है कि आज टेलीविजन को खबरों के लिए नहीं- बकवासबाजी का आनंद उठाने के लिए देखा जा रहा है। इससे टेलीविजन पत्रकार शायद ही सहमत होंगे- लेकिन हकीकत ये है कि जनता से उनका भी कोई सीधा साबका नहीं रहा। लिहाजा उन्हें पता ही नहीं है कि जिस जनता के नाम पर वे स्टिंग कर रहे हैं, उसका खयाल भी कुछ और ही है। इसे जानने के लिए पान वाले से लेकर अखबारों और चायवालों की दुकानों की खाक छाननी पड़ेगी। लाख टके का सवाल ये है कि चैनलों के कर्ताधर्ता इसे समझने की कोशिश करेंगे या नहीं। लेकिन ये भी सच है कि अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो टेलीविजन की साख को बचा पाना आसान नहीं होगा- साख के संकट से जूझ रही टेलीविजन पत्रकारिता के लिए ये बहुत ही महंगा सौदा होगा।

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप ने सामयिक आलेख लिखा है ताज्जुब इस बात का कि २४ घंटों में एक भी टिप्पणी नहीं है। आप इस का शीर्षक देवनागरी में भी लिखें।