उमेश चतुर्वेदी
करीब आठ साल पहले की बात है। मेरे तब के बॉस शरद द्विवेदी ने एक दिन मुझसे कहा कि तुम्हें भी एक पुरस्कार दिला देते हैं। उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर राजनीतिक संवाददाता काम कर रहा था और दिल्ली की पत्रकारिता जगत में दद्दा के नाम से विख्यात शरद द्विवेदी हमारे बॉस थे। दिल्ली में मुझे भले ही अब तक कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन जब तक मैं बलिया में पढ़ता था, तब तक मुझे कई पुरस्कार मिल चुके थे। भोजपुरी कहानी लेखन, बाल साहित्य लेखन और लघुकथा लेखन के लिए मुझे कई पुरस्कार मिल चुके हैं। बलिया में रहते वक्त मैं संकोची और अनाम सा लेखक था, लेकिन पुरस्कार चल कर मेरे दरवाजे तक आए। गोरखपुर रेडियो में प्रोग्राम का न्यौता भी मिला। तब तक मैंने कहीं कोई अप्रोच नहीं किया था। दुख की बात ये है कि रोजी-रोटी के दबाव में अब न तो लघुकथा ही लिख पाता हूं ना ही भोजपुरी कहानियों की रचना के लिए धैर्य बचा। यही हाल बाल साहित्य लेखन के साथ भी है। शरद जी ने जब ये प्रस्ताव दिया तो मुझे खुशी भी हुई और लगा कि कुछ फायदा हो जाएगा। तब मैं भले ही दैनिक भास्कर में काम करता था, लेकिन वेतन इतना कम था कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता था। इसलिए मुझे इधर-उधर काफी फ्रीलांसिंग करनी पड़ती थी। तब जाकर दिल्ली में जीने लायक पैसों का जुगाड़ हो पाता था। ऐसे में शरद जी का प्रस्ताव मेरे लिए सुखद अहसास जैसा था। मुझे लगा कि मेरे किसी लेख पर कोई संस्था प्रभावित हुई है और उसने मुझे पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। लेकिन जब शरद जी से पता चला कि ये पुरस्कार एक संस्था थोक के भाव से हर साल देती है और वह सिर्फ पुरस्कार देने के लिए नामों का चुनाव करती है। जिसमें ज्यादातर लोग संस्था के कर्ता-धर्ता के परिचित हैं तो मैंने ऐसा पुरस्कार लेने से साफ इनकार कर दिया। कहना ना होगा, इस संस्था के जरिए हर साल कई अनाम लोग किसी मंच पर पुरस्कृत होने का सुकून और सुख पा लेते हैं और फिर से अनाम की तरह विलीन हो जाते हैं।
यहीं पर याद आती है एक पत्रकार मित्र की गर्वोक्ति। हमारे ये जानकार पत्रकार एक प्रोडक्शन हाउस के सर्वेसर्वा हैं। अजित सिंह समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई राजनेताओं से उनका परिचय है। परिचय ही नहीं-घरापा है। एनडीए शासन के दौरान एक शाम अपने दफ्तर में वे मुझे बताने लगे कि मेरे पास भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार के तहत बाल साहित्य की रचनाएं परखने के लिए आई हैं। लगे हाथ वे ये भी बताने से नहीं हिचके कि उनके पास वक्त की कमी है- लिहाजा उन किताबों को वे नहीं देख पा रहे हैं। मुझे लगा कि मेरे मित्र बाल साहित्य में भी गहरी पैठ रखते हैं। लेकिन जब उन्होंने खुद ये बताया कि बाल साहित्य में ना तो उनकी रूचि है ना ही वे कभी ऐसा साहित्य पढ़ते हैं। बाल साहित्य में कभी उन्होंने अपनी कलम भी नहीं आजमाई है। तो चौंकने की बारी मेरी थी। दरअसल वे महज रूतबे के लिए परीक्षक बन गए थे और उनके चाहने वाले राजनेताओं ने उनका नाम सुझा दिया था।
हिंदी साहित्य में पुरस्कारों पर अक्सर सवाल उठाए जाते रहे हैं। मजे की बात ये है कि ये सवाल अक्सर पत्रकारों की ही ओर से मीडिया में जोरशोर से उठाए जाते हैं। लेकिन अब ये ही सब पत्रकारिता में भी हो रहा है। चहेते लोगों को पुरस्कार और फेलोशिप दी जा रही है और पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए चिंता भी जताई जा रही है। यानी रोग के मूल में जाने की कोशिश नहीं हो रही है। लेकिन रोग पर चिंताएं भी खूब जताई जा रही हैं। अभी हाल तक हिंदी की एक महिला पत्रकार जगह-जगह अपने संपादक को इसलिए गाली देती फिर रही थीं कि उनकी बजाय उनकी एक सहकर्मी को जगह-जगह पुरस्कृत किया जा रहा है। रसरंजन के बाद वे अपने संपादक को गाली देने से भी नहीं चूकती थीं। लेकिन उनके नजदीकी लोगों का कहना है कि अब उनका गुस्सा शांत हो गया है। उन्हें भी फेलोशिप मिल गई है। संपादक जी को अब भी गाली देती हैं- लेकिन गाली की वजह बदल गई है।
ऐसे में पत्रकारिता का कितना भला होगा - ये समझना आसान है। ऐसा नहीं कि मूल्यों और प्रतिबद्दता की पत्रकारिता करने वाले लोग नहीं हैं। लेकिन पुरस्कार और फेलोशिप देने की हैसियत में उनके कोई परिचित नहीं हैं। लिहाजा वे हाशिए पर हैं। माफ कीजिएगा, कथित मुख्यधारा में वे हाशिए पर हैं। लेकिन पाठकों की दुनिया में सही मायने में उनका ही राज है। क्योंकि फेलोशिप और पुरस्कार से दूर वे सिर्फ और सिर्फ सरोकारों की पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
उमेश चतुर्वेदी लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदला...
-
टेलीविजन के खिलाफ उमेश चतुर्वेदी वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का ...
2 टिप्पणियां:
बढ़िया है जी, वैसे पब्लिक सब जानती समझती है इन पुरस्कारों के नाटकों को.
आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.
इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.
यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.
एक टिप्पणी भेजें