उमेश चतुर्वेदी
बाद के दौर में भी ऐसे किस्से दोहराए गए। फिर पनपा भाई-भतीजावाद। बिना जान - पहचान और चापलूसी के अखबारी संस्थानों में भर्तियां दूर की कौड़ी होती गईं। जाहिर है , इसका असर पत्रकारिता की गुणवत्ता पर भी पड़ा। एक गड़बड़ी और भी हुई। इसी दौर में कथित राष्ट्रीय हिंदी अखबार सिकुड़ते गए, जबकि हिंदी के बाजार के बढ़ते दबदबे को देखते हुए हिंदी के क्षेत्रीय पत्रों का विकास तेजी से हुआ। लेकिन इनकी ऊंची कुर्सियां प्रोफेशनल तौर पर कुशल और धाकड़ पत्रकारों को कम ही मिली। कहना ना होगा- उनमें से कई आज भी अहम जगहों पर हैं। इन्होंने अब बिना विज्ञापन के ही भर्तियों की नई परंपरा ही विकसित कर डाली है। आज अगर पत्रकारिता का चेहरा लोकतांत्रिक नहीं दिखता, वहां समाज के दबे- कुचले वर्ग की आवाज नहीं उठ पा रही है तो इसका एक कारण यह भी है। एनडीटीवी इंडिया के संपादक रहे दिबांग इस दौर की पत्रकारिता के पहले रसूखदार व्यक्ति हैं- जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत की इस गड़बड़ी पर सवाल उठाया है।
आज टेलीविजन की दुनिया पर जमकर सवाल उठाए जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर आरोप है कि वे नाटकीय तत्वों को ही उभारने में सबसे ज्यादा मदद दे रहे हैं। हकीकत में उन्हें ऐसा करना भी पड़ रहा है और इसकी वजह है टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अगर टीआरपी की दौड़ में चैनल आगे नहीं रहा तो उसे विज्ञापन मिलने बंद हो जाएंगे और विज्ञापन नहीं मिला तो तकनीक से लदाफदा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का तामझाम नहीं चल पाएगा। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की आलोचना की दुनिया में सबसे ज्यादा पत्रकार अखबारी दुनिया के ही हैं। ये आलोचक आलोचना करते वक्त ये भूल जाते हैं कि टेलीविजन का पर्दा उन्हें भी कम नहीं लुभाता। साथ की लालसा भी और विरोध का दर्शन भी –ये ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। आपको अपनी सीमा रेखा खींचनी ही होगी।
बहरहाल इस दौर में छोटे-छोटे समूहों की पत्रकारिता ने नई आस जगाई है। सुनीता नारायण का सीएसई न्यूज हो या बुंदेलखंड का खबर लहरिया। ऐसे पत्रों ने जनसरोकारों को उठाने और उन्हें आवाज देने में अहम भूमिका निभाई है। जिस तरह आज का हिंदी अखबारी जगत अपनी सामाजिक भूमिका को भूलता जा रहा है। उसमें खबर लहरिया जैसे पत्रों की भूमिका बढ़ती नजर आ रही है। आने वाले दिनों में ऐसी आवाजें और बुलंद ही होंगी। जिस तरह वंचितों और शोषितों का नया वर्ग उभर कर सामने आ रहा है और अपनी अभिव्यक्ति के लिए नई मीडिया की तलाश कर रहा है, उसके पीछे भी कहीं न कहीं वे कारण ही जिम्मेदार हैं- जिनकी चर्चा इस आलेख के शुरूआती हिस्से में की गई है।
वैसे भी ये तलाश जारी रहेगी। लेकिन इसका भी एक खतरा नजर आ रहा है। दलित और पिछड़े वर्ग के उभार में उसी तरह की आक्रामकता नजर आ रही है, जैसी हाल तक सवर्ण मानसिकता में रही है या है। ऐसे में ये सोच पाना कि उनके लिए उभर रहा और उनकी आवाज बन रहा मीडिया संयम बरतेगा – बेबुनियाद है। बल्कि इस बात की पूरी आशंका है कि प्रचलित मानकों को ध्वस्त करने में यह मीडिया ज्यादा अहम भूमिका निभाएगा। इसका असर दलित लेखन पर दिखने भी लगा है। जहां दलितों के हितैषी महात्मा गांधी शैतान की औलाद बता दिए जाते हैं या प्रेमचंद की रंगभूमि की प्रतियां दलित विरोधी बताकर जलाई जाती हैं।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
उमेश चतुर्वेदी लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदला...
-
टेलीविजन के खिलाफ उमेश चतुर्वेदी वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें