जयप्रकाश ज्यादा जरूरी हैं या अमिताभ
उमेश चतुर्वेदी
अमिताभ बच्चन और जयप्रकाश नारायण में क्या समानता है। आप ये सवाल पूछ सकते हैं कि आखिर अमिताभ और जयप्रकाश नारायण से तुलना करने की क्या जरूरत आ पड़ी! अगर तुलना जरूरी है भी तो जयप्रकाश का नाम पहले आना चाहिए,इस सवाल का जवाब देने से पहले एक सवाल और अमिताभ बच्चन और जयप्रकाश नारायण में क्या अंतर है!
जयप्रकाश नारायण और अमिताभ बच्चन में एक ही समानता है कि दोनों का जन्म 11 अक्टूबर को हुआ था। दोनों की अहमियत और व्यक्तित्व में क्या अंतर है-इसे बीते 11 अक्टूबर को देश के मौजूदा हालात से थोड़ा भी वास्ता रखने वालों ने जरूर समझा होगा। इस बार मीडिया परिदृश्य से जप्रकाश या तो गायब थे-या फिर उन्हें याद करने की औपचारिकता पूरी की गई। कई जगहों से तो वह औपचारिकता भी वैसे ही गायब थी-जैसे उनके ही अनुयायियों ने करीब ढाई दशक पहले उन्हें भुला दिया था। हां,पूरे मीडिया परिदृश्य पर अमिताभ बच्चन छाए हुए थे।
1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत के बाद आर्थिक इस प्रक्रिया पर निगाह रखने वाले जानकारों ने सबसे बड़ी चिंता देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के विचलन की जताई थी। आर्थिक मोर्चे पर देश लगातार आगे बढ़ता जा रहा है-लेकिन उसकी वैचारिकता में विचलन आता जा रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो देश के इतिहास में कम से कम दो बार जबर्दस्त हस्तक्षेप करने वाले जयप्रकाश नारायण महज औपचारिकता का विषय नहीं रह जाते। अमिताभ बच्चन का जन्मदिन मनाया जाना चाहिए-बॉलीवुड में उनके ऐतिहासिक योगदान को नकारा भी नहीं जा सकता। लेकिन जयप्रकाश नारायण औपचारिक याद का भी विषय न समझे जाएं-कम से कम ये बात तो समझ के परे है।
लेकिन हमें याद रखना चाहिए-अमिताभ बच्चन जिस विचारधारा के जरिए सुपरस्टॉरडम के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंचे-उनमें जयप्रकाश नारायण के 1974 के युवा आंदोलन का भारी योगदान है। जिस दीवार और जंजीर जैसी फिल्मों के जरिए अमिताभ बच्चन हिंदी सिनेमा के मील के पत्थर बने-दरअसल ये फिल्में जयप्रकाश आंदोलन की ही सिनेमाई अभिव्यक्ति थीं। देश में फैल रही गरीबी,अराजकता और भ्रष्टाचार ने उस वक्त युवाओं और छात्रों को क्षोभ और गुस्से से भर दिया था। जयप्रकाश नारायण ने उन्हीं युवाओं के आंदोलन का नेतृत्व किया था। इसी दौर में अमिताभ बच्चन यंग्री यंग मैन की नई छवि में अवतरित हुए थे। इसके पहले सात हिंदुस्तानी,रेशमा और शेरा और आनंद जैसी फिल्मों के जरिए भले ही वे अपने अभिनय की छाप छोड़ रहे थे, लेकिन सही मायने में उन्हें सुपर स्टार बनाया उनकी यंग्री यंग मैन की ही छवि ने। क्या कोई ये कल्पना कर सकता है कि जयप्रकाश आंदोलन के बिना अमिताभ की ये फिल्में सामने आ सकती थीं? सच तो ये है कि प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे फिल्म निर्माता जयप्रकाश आंदोलन से वाकिफ थे और उन्होंने दीवार और जंजीर जैसी फिल्मों के जरिए उस दौर के क्षोभ को ही अभिव्यक्ति देने की कोशिश की थी।
लेकिन आज के दौर में असल आंदोलनकारी तो भुला दिया जाता है,लेकिन उसके आंदोलन पर अभिनय करने वाली शख्सियत को पूरी शिद्दत से याद किया जाता है। दरअसल आज क्रांतिकारी भी तभी बिकेगा-जब उसके बाजार में बिकने की संभावना होगी। देश के लिए त्याग,राजनीतिक सत्ता को बदलने की कूव्वत की आज तभी कोई अहमियत है-जब बाज़ार में उसके बिकने की गुंजाइश हो,अन्यथा इंदिरा गांधी की तानाशाही को उखाड़ फेंकने की आज के मीडिया परिदृश्य में उसकी तभी़ कोई अहमियत है-जब उसके खरीददार मिलें। चूंकि अमिताभ बिकते हैं-उनकी मार्केट वैल्यू है,इसलिए वे मीडिया परिदृश्य पर छाए रहते हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण बिकाउ नहीं हैं, लिहाजा उन्हें कौन याद करता है।
लेकिन उनके अनुयायी ही उन्हें कहां याद कर रहे हैं। उन्हें मुलायम सिंह अपने ढंग से याद कर रहे हैं। उनके लिए जयप्रकाश का जन्मदिन भी अपनी निजी राजनीति चमकाने का मौका लगता है। जयप्रकाश नारायण को याद करने की इस प्रक्रिया में उनके साथ जार्ज फर्नांडिस भी शामिल हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही जयप्रकाश नारायण के जन्मस्थान सिताबदियारा में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी उन्हें हर साल याद करते रहे। लेकिन जयप्रकाश नारायण के सपनों को उन्होंने कितना पूरा किया है-इसका हिसाब तो उनसे इतिहास मांगेगा। जयप्रकाश स्मृति ट्रस्ट में जिस तरह उनके परिवारजनों ने कब्जा जमाने की कोशिशें कीं, उससे साफ है कि जयप्रकाश के सपनों के साथ क्या हो रहा है। ये बात दीगर है कि उत्तर प्रदेश के रजिस्ट्रार ने इस ट्रस्ट पर उनके परिवारजनों के कब्जे को नकार कर नए चुनाव कराने का आदेश दे दिया।
जयप्रकाश नारायण और जवाहरलाल नेहरू के पत्र व्यवहार को हाल ही में राष्ट्रीय अभिलेखागार ने प्रदर्शित किया। इनमें वह पत्र भी है-जिसमें जयप्रकाश ने नेहरू कैबिनेट में शामिल होने से इंकार कर दिया था। अपने पत्र में जयप्रकाश ने लिखा कि उनका गांधीजी के उस विचार में भरोसा है,जिसमें विकास नीचे से उपर की ओर होना चाहिए,जबकि नेहरू जी की सोच उल्टी है। ऐसे में कैबिनेट में ‘शामिल होने के बाद दोनों के बीच मतभेद बढ़ेगा,जो सरकार और देशहित में नहीं होगा। लेकिन आज चाहे समाजवादी नेता हों या फिर दूसरी विचारधारा के लोग-उनके लिए जयप्रकाश का जन्मदिन मनाना तो आसान है,लेकिन वे उनके विचारों को याद तक नहीं। उस पर आचरण तो दूर की बात है।
आर्थिक उदारीकरण के दौर में आज गांव कहां हैं? ये किसी से छिपा नहीं है। जब देश को दिशा देने वाले नेता ही बिकाऊपन को बढ़ावा देने में भरोसा कर रहे हों-राजनीति सिर्फ सत्ता का साधन मात्र रह गई हो-राजनीति से विचार गायब होते जा रहे हों-ऐसे में जयप्रकाश नारायण को अपनी राजनीति का जरिया ही बनाया जाएगा। जयप्रकाश से कहीं ज्यादा अहम अमिताभ ही नज़र आएंगे। लेकिन जिस तरह देश में अब भी असमानता फैल रही है-उसमें वह दिन दूर नहीं-जब देश को विचार करना होगा कि देष के लिए ज्यादा अहम अमिताभ हैं या फिर जयप्रकाश नारायण।
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1 टिप्पणी:
अच्छा लिखे हैं.
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