मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

क्या है इस राहत पैकेज का मकसद !


उमेश चतुर्वेदी
लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदलाव नहीं आता। आज अगर लोहिया जी होते तो वे देखते कि माला पहनाने वाली इस कौम की तरह सरकारी व्यवस्था और रवायत में कोई बदलाव नहीं आता। भले ही सरकारें बदल जाती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ऐन चुनावों से पहले भारत निर्माण का अभियान केंद्र की यूपीए सरकार नहीं शुरू करती।
शाइनिंग इंडिया की याद है आपको....2004 के आम चुनावों से ठीक पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने शाइनिंग इंडिया यानी चमकते भारत को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने का अभियान छेड़ दिया था। तब आज की सरकार चला रही कांग्रेस ने इस अभियान की जमकर खिंचाई की थी। आपको इंडिया शाइनिंग की याद है तो आपको 2004 में आम चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का रोड शो भी याद होगा। इस शो का मकसद ही था कि इंडिया शाइनिंग की हकीकत दुनिया को दिखाई जाए और इसका सियासी फायदा उठाया जाय। कहना ना होगा, सोनिया गांधी अपने मकसद में कामयाब रहीं और बीजेपी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हवा निकल गई थी।
मंदी के इस दौर में भारत निर्माण अभियान मीडिया के लिए अच्छी संजीवनी बन कर आया है। अखबारों से लेकर टेलीविजन तक हर जगह यूपीए की अगुआई में भारत निर्माण का दर्शन हो रहा है। कभी अपने शाइनिंग इंडिया अभियान की आलोचना झेल और बर्दाश्त कर चुकी बीजेपी भारत निर्माण के विरोध में नहीं दिख रही। इसका ये मतलब नहीं है कि वह भारत निर्माण के कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार के दावे से सहमत है। हकीकत तो ये है कि मंदी के दौर में मीडिया भी पिस रहा है। ना सिर्फ प्रिंट, बल्कि टेलीविजन संस्थान भी आर्थिक दिक्कतों से दो-चार हो रहे हैं। शायद ही कोई मीडिया समूह बचा है, जहां कर्मचारियों की छंटनी नहीं हो रही है या फिर उनके सिर छंटनी की तलवार नहीं लटक रही है। फिर चुनावी साल है...इतनी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद अब भी मीडिया संस्थान इतने ताकतवर हैं कि उन्हें कोई भी राजनीतिक दल नजरंदाज करने की हालत में नहीं है। लिहाजा बीजेपी भी इस अभियान का विरोध करके खुद को मीडिया के निशाने पर लाने से बच रही है।
भारत निर्माण अभियान के जरिए भारत सरकार दरअसल अपने दो लक्ष्य साधने की कोशिश कर रही है। उसे पता है कि इसके जरिए मीडिया घरानों के पास पैसा पहुंचेगा। लिहाजा उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत रहेगी और वे कम से कम मंदी के नाम पर उसे घेरने से बचेंगे। मंदी के चलते देशभर में नौकरियों का संकट बढ़ता जा रहा है। रोजाना रोजगार के तमाम क्षेत्रों से छंटनी की खबरें आ रही हैं। लेकिन मीडिया में इसे लेकर कहीं गुस्सा नहीं दिखता..भारत निर्माण अभियान अगर गुस्से की थोड़ी – बहुत झलक कहीं है भी तो उसे कम करने में अपनी बेहतर भूमिका निभा सकता है।
मंदी की मार से उबरने के लिए उद्योगों के लिए सरकार वैसे ही कई योजनाएं लागू कर चुकी है। रिजर्व बैंक कई बार रैपो रेट घटा चुका है। ऐसे में मीडिया को राहत मिलनी ही चाहिए। इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता। मीडिया के लिए भी राहत पैकेज की मांग को लेकर पिछले दिनों प्रिंट मीडिया के दिग्गजों ने सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री आनंद शर्मा से मुलाकात की। इस मुलाकात में हिंदुस्तान टाइम्स की संपादकीय निदेशक शोभना भरतिया, इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता और बिजनेस स्टैंडर्ड के टी एन नैनन भी शामिल थे। इस बैठक में आनंद शर्मा से मीडिया घरानों ने अपने लिए राहत पैकेज की मांग के साथ ही अखबारी कागज के आयात शुल्क में छूट देने की भी मांग रखी। ये सच है कि अखबारी कागज की बढ़ती कीमतों ने भी प्रिंट मीडिया संस्थानों की कमर तोड़ रखी है। पिछले साल इसकी कीमत छह सौ डालर प्रति टन से बढ़कर 960 डालर तक पहुंच गई। फिर मंदी के चलते विज्ञापनों में गिरावट आई। एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक इस देश में तकरीबन साढ़े चार हजार बड़े विज्ञापनदाता हैं। विज्ञापनों के लिहाज से नवंबर और दिसंबर मीडिया के लिए सबसे ज्यादा मसरूफियत वाला महीना रहा है। लेकिन मंदी के चलते इस बार वैसी व्यस्तता नहीं दिखी। बड़े विज्ञापनदाताओं के बजट में भी कटौती दिखी। ऐसा नहीं कि इस पर सरकार का ध्यान नहीं रहा है और मीडिया घरानों से मुलाकात के बाद ही उसका इस समस्या की ओर ध्यान गया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक बड़े अफसर के मुताबिक भारत निर्माण अभियान की शुरूआत में इसका भी ध्यान रखा गया था।
मीडिया उद्योग को राहत पैकेज की पहली बार मांग पत्रकार से राजनेता बने राजीव शुक्ला ने संसद के पिछले सत्र में ही रखी थी। उसके बाद से ही मीडिया घरानों में इसे लेकर सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति बनने लगी थी। आनंद शर्मा से मुलाकात इसी रणनीति का नतीजा है, जिसका फायदा कुछ दिनों में मिलने वाला है। जिसमें अखबारी कागज के आयात टैक्स पर छूट भी हो सकती है। हालांकि सरकार ने खबरिया चैनलों के लिए किसी राहत का ऐलान नहीं किया है। लेकिन भारत निर्माण के जरिए उनकी भी मदद तो की ही जा रही है।
एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया हर तिमाही में मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों के आंकड़े जारी करता है। इस बार जो आंकड़ा आएगा, ये तय है कि उसमें केंद्र सरकार सबसे बड़े विज्ञापनदाता के तौर पर उभरेगी। ऐसा 2004 की पहली तिमाही में भी हुआ था। तब भी अपने इंडिया शाइनिंग अभियान के चलते सरकार सबसे बड़ी विज्ञापनदाता थी। ये बात और है कि तब सरकारी खजाने के दुरूपयोग को लेकर उस वक्त की केंद्र सरकार की जमकर लानत-मलामत की गई थी। जिसका खामियाजा वाजपेयी सरकार को हार के तौर पर भुगतना पड़ा था। मंदी की मार झेल रहे मीडिया को सरकारी राहत से फायदा तो जरूर मिलेगा। लेकिन वोटों की खेती में इसका कितना फायदा केंद्र की यूपीए सरकार उठा पाती है, इस पर सबकी निगाह लगी रहेगी।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

गैरजिम्मेदार टीवी रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार कौन ?

उमेश चतुर्वेदी
तोप से मुकाबिल रहने वाले प्रिंट मीडिया की सारी तोपें इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर जोरशोर से निशाना साधे हुए हैं। वजह बनी है मुंबई में आतंकी हमलों की नाटकीय रिपोर्टिंग.. डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से प्रिंट माध्यमों को भस्मासुरी अंदाज में पटखनी देते आ रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इस नाटकीयता ने प्रिंट को अच्छा-खासा मौका दे दिया है। आलोचनाओं और कटघरे में खड़ा करने का दौर जारी है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपना मुंह छुपाने को मजबूर हो गया है। उदारीकरण और बाजारवाद के दौर में जिस तरह अंधाधुंध टीवी का विस्तार हुआ है – उसमें बौद्धिकता के लिए खास गुंजाइश और जगह नहीं रही..लिहाजा टीवी माध्यम सहज ही बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गया है। इसके साथ ही इस माध्यम को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने का दौर तेज हो गया है। चूंकि प्रभावशाली प्रिंट मीडिया और बौद्धिक तबका इस आक्रमण अभियान में शामिल है – इसलिए सरकार को भी मौका मिल गया है और उसने कुछ चैनलों को कारण बताओ नोटिस जारी करने में देर नहीं लगाई।
टीवी को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने के बीच इसकी असल वजहों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। टीवी वाले नाटकीय और सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार तो हैं – इसे अब टेलीविजन के न्यूजरुम में काम करने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग भी मानने लगा है। इसके बावजूद ना सिर्फ मुंबई हमले – बल्कि दूसरी ऐसी घटनाओं की भी ऐसी रिपोर्टिंग जारी है। इस मसले पर पूरी पड़ताल करने से पहले एक बार हमें समानांतर सिनेमा के दौर में जारी साहित्य और सिनेमा के आपसी रिश्ते और उसे लेकर जारी विवाद को भी याद कर लेना जरूरी होगा। पिछली सदी तीस के दशक में हिंदी कहानी के सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार प्रेमचंद ने मायानगरी में नया कैरियर बनाने को लेकर पांव रखे थे – लेकिन उन्हें मायावी दुनिया रास नहीं आई और वे बनारस लौट आए थे। पचास के दशक में मुंबई गए अमृतलाल नागर का भी वैसा ही अनुभव रहा। ये बात है कि उन्हीं दिनों साहित्य की दुनिया से फिल्मी दुनिया में गए पंडित नरेंद्र शर्मा ने साहित्य से इतर फिल्मी दुनिया में नया मुकाम रचा। सातवें दशक में यही काम कमलेश्वर ने किया। लेकिन प्रेमचंद और अमृतलाल नागर के दौर में सिनेमा को लेकर साहित्यिक हलकों में जो पूर्वाग्रह पनपा – वह कमोबेश आज भी जारी है। शायद यही वजह है कि कमलेश्वर रहे हों या फिर नरेंद्र शर्मा ...उन्हें साहित्यिक जगत में वह सम्मान और आदर नहीं मिला – जिसके वे हकदार रहे। कुछ ऐसा ही संबंध आज आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के बीच भी है। इसीलिए जब भी टेलीविजन की दुनिया में मुंबई जैसी घटनाओं की गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग होती है – पूरा का पूरा प्रिंट माध्यम उस पर पिल पड़ता है।

ऐसा नहीं कि 27 नवंबर 2008 को हुए मुंबई हमले की ही टीवी ने अतिरेकी रिपोर्टिंग की। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमले की भी ऐसी ही रिपोर्टिंग हुई। जयपुर और अहमदाबाद धमाके को लेकर भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने ऐसा ही कदम उठाया। आलोचना तब भी हुई – लेकिन इस बार ज्यादा बावेला इसलिए मचा है – क्योंकि एक चैनल ने ना सिर्फ एक कथित आतंकवादी का फोनो चलाया। बल्कि अपने इस काम को सही साबित करने की कवायद में भी जोरशोर से जुट गया है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोई आतंकवादी किसी चैनल पर आकर ये प्रस्ताव रखे कि वह देश को उड़ाने या प्रधानमंत्री पर ही हमला बोलने का ऐलान करने वाला है तो क्या उसे टीवी अपना स्टूडियो और अपना पैनल कंट्रोल रूम इसके लिए मुहैय्या कराएगा। सवाल ये भी है कि क्या किसी पत्रकार के पास किसी मासूम लड़की या महिला से बलात्कार का फुटेज है तो उसे भी बिना सेंसर्ड और बिना संपादन दिखा दिया जाएगा। करीब छह साल पहले आगरा में एक अध्यापिका का उसके ही कुछ छात्रों ने बलात्कार किया। इसकी फुटेज किसी के पास क्या होती। लेकिन अपने दर्शकों को ये घटना दिखाने के लिए एक प्रमुख चैनल ने बाकायदा इस रेप कांड का नाट्यरूपांतरण कराया और उसे खबर में वांछित जगह पर संपादित करके चलाया भी। उसका भी तब विरोध हुआ था।
टेलीविजन चैनलों में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका मानना है कि खबर की सच्चाई दिखाने के लिए उसका ये कदम जायज है। इसी आधार पर 2004 में गुजरात के एक खास संप्रदाय के साधुओं की यौनलीला को एक चैनल ने बाकायदा बिना किसी संपादन के दिखाया था। लेकिन हकीकत ये थी कि न्यूज रूम में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार इससे सहमत नहीं थे। महिला पत्रकारों की न्यूज रूम में हालत क्या थी – उसे ही पता है, जो उस समय न्यूज रूम में था।
बहरहाल जो ये चैनल मान रहे हैं कि सच्चाई के लिए ये सारी चीजें उन्हें दिखाने का हक है । पत्रकारिता में बुराई को उजागर करने के लिए बुराई को ज्यों का त्यों दिखाने का एक वर्ग तेजी से इन दिनों बढ़ा है। बुराई दिखाई जाए..उसे लेकर दर्शकों और पाठकों का आगाह किया जाए- इससे शायद ही किसी को एतराज होगा। लेकिन इसकी सीमा क्या होगी – यह तो कहीं न कहीं उन्हें तय करना ही होगा। अन्यथा उन्हें अमेरिका के नैकेड न्यूज नामक चैनल को भी दिखाने से गुरेज नहीं होगा। इंटरनेट पर भी वह चैनल मौजूद है। नेकेड न्यूज नाम के इस चैनल के सारे एंकर बिल्कुल नंगे इंटरव्यू लेते या लेती हैं। खबरें भी नंगे बदन ही पढ़ी जाती हैं। दरअसल बहस और आलोचना की वजह भी यही है कि अगर ऐसा किया गया तो औरों से अलग और बौद्धिक दिखने वाले पत्रकार वर्ग और बाकी लोगों के विवेक में फर्क कहां रह जाएगा।
मार्च 2002 में गुजरात दंगों में खुलेआम लोगों को जलाने की घटनाओं की रिपोर्टिंग को लेकर भी विवाद हुआ था। लेकिन तब इसकी मुखालफत नहीं हुई थी। प्रिंट मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने इसका समर्थन किया था। इसकी रिपोर्टिंग करने वाले लोगों ने तब के विरोधियों के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया था। विरोधियों का तर्क था कि इससे हिंसा को और बढ़ावा मिला। लेकिन मुंबई पर आतंकी हमले के बाद चीजें बदल गईं हैं। पूरे देश में इस घटना को लेकर विरोध के सुर उठ रहे हैं। लिहाजा टीवी में काम करने वाले लोगों का बड़ा तबका इस घटना को लेकर रक्षात्मक बना हुआ है।
मुंबई हमले पर टीवी ने क्या – क्या किया...इसे तकरीबन पूरे देश ने देखा है। कुछ लोगों का सवाल है कि ताज होटल से छुड़ाए गए बंधकों से टीवी वालों ने पूछा कि आपको कैसा लग रहा है। प्रिंट के कई दिग्गजों ने इसकी भी आलोचना की है कि टीवी पत्रकारों ने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा और बदहवास लोगों का इंटरव्यू करने या उनकी बाइट लेने के लिए दौड़ पड़ा। ये सच है कि टीवी वाले इस सवाल का प्रतिकार नहीं कर रहे हैं – लेकिन क्या यह कार्य इतना गिरा हुआ है कि इसकी आलोचना की जाए। क्या किसी सार्वजनिक माध्यम का यह दायित्व नहीं बनता कि वह दुनिया को यह बताए कि आतंकी हमले के दौरान ताज होटल के अंदर क्या हो रहा था और इसका आंखों देखा हाल बताने के लिए बंधकों के अलावा और दूसरा कौन हो सकता है। ऐसे सवाल तो प्रिंट के पत्रकार भी पूछ रहे थे और केस हिस्ट्री तो अगले दिन के अखबारों में भी इंटरव्यू और बंधकों की आपबीती के रूप में भरी पड़ी थी। लेकिन उस पर सवाल तो नहीं उठा।
यह सच है कि टीवी की अतिरेकी रिपोर्टिंग से शुरू में आतंकियों को मदद मिली। यह गलती इतनी बड़ी है – जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को सबक लेना चाहिए। लेकिन कभी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि टीवी के न्यूज रूम में आखिर ऐसा क्यों होता है। ये सच है कि टीवी रिपोर्टर इस दौरान हर गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए थे। पल-पल की खबरें अपने पैनल कंट्रोल रूम को भेज रहे थे। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि इसे जनता को दिखाने- अपने चैनल पर चलाने और न चलाने का फैसला उनके आका ले रहे थे। टेलीविजन न्यूज रूम का आज के दौर में जैसा विकास हुआ है और टीआरपी की गलाकाट प्रतियोगिता पर जिस तरह बाजार और विज्ञापनों की दुनिया टिकी हुई है – उसके चलते न्यूज रूम का कोई आका अगर दूसरे चैनल पर ऐसी रिपोर्टिंग दिख गई तो अपने चैनल पर साया करने से रोकने का दुस्साहस नहीं कर सकता। टीवी न्यूजरूम के प्रमुख लोगों की निगाह अपने प्रतिद्वंद्वी चैनलों पर लगी रहती है। अगर सामने वाले चैनल के रिपोर्टर ने अतिरेकवादी भूमिका निभाई तो न्यूज रूम में दहाड़ सुनाई देने लगती है। रिपोर्टर और कैमरामैन को मोबाइल पर निर्देश दिए जाने लगते हैं कि वैसा ही कुछ करके दिखाओ – जैसा सड़क पार या पड़ोस का चैनल करके दिखा रहा है। यही वजह है कि एक दौर में ताज की रिपोर्टिंग कर रही सभी टीमों के रिपोर्टर सोकर रिपोर्टिंग करते दिखे। जबकि उनके कैमरा मैन पहले की ही तरह खड़े थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गोली लगने का खतरा सिर्फ रिपोर्टरों को था और कैमरामैन बुलेटप्रूफ पहनकर महफूज थे। निश्चित रूप से इसका जवाब ना में है। अगले दिन के अखबारों में ये पूरी की पूरी तस्वीर छपी भी और आम लोगों तक ये नाटकीयता पहुंची भी। इन तस्वीरों ने भी टीवी रिपोर्टिंग को लेकर सवाल उठाने का मौका दिया।
लेकिन इस पूरी आलोचना और बहसबाजी के दौर में टेलीविजन न्यूज रूम के असल संकट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। एक-दो दशक पहले तक जो लोग पत्रकारिता में आ रहे थे – उनके सामने दुनिया को बदलने और कुछ कर दिखाने का जज्बा हुआ करता था। लेकिन बाजारवाद के दौर में ये हकीकत बदल गई है। टीवी के लोग खुद को पत्रकार भले ही कहें – लेकिन एक पूरी की पूरी पीढ़ी अब नौकरी करने आई है। गली-मोहल्ले के पत्रकारिता संस्थानों से लाखों रूपए की फीस देकर कथित पढ़ाई के बाद निकले नए लड़के-लड़कियों का नजरिया साफ है। उनका मानना है कि वे नौकरी करने आए हैं – पत्रकारिता करने नहीं। शायद यही वजह है कि उन्हें जब भी पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारीय मानदंडों की अवहेलना करने को कहा जाता है, वे वैसा करने में देर नहीं लगाते। लाखों रूपए के कर्ज की रकम पर मिली शिक्षा से निकले पत्रकार ने दम दिखाया तो उसकी नौकरी जा सकती है।
रही बात न्यूज रूम के आकाओं की तो उनकी भी हालत कुछ बेहतर नहीं है-सिवा मोटी पगार के। नौकरी पर लगातार लटकी तलवार के चलते वे भी पत्रकारीय दंभ और मानदंड पर कायम रह नहीं पाते। टीआरपी गिरी नहीं कि नौकरी पर लटकी तलवार और नजदीक हुई। बाजारवाद ने लोगों के सामने आदर्शों के लिए जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में चाहे लाख सवाल उठे – होना तो वही है जो बाजार चाहता है। टीवी पर सवाल उठाना कुछ वैसा ही है – जैसे बाजार में रहकर बाजार का विरोध...

दरअसल हर पेशे की एक नैतिकता भी होती है। आजादी के आंदोलन की कोख से निकली भारतीय पत्रकारिता के लिए पहले इसकी जरूरत नहीं रही। आजादी के आंदोलन का पत्रकारिता भी एक उपादान रही है। चूंकि तब पत्रकारिता का मकसद आजादी पाना था, इसलिए उसमें राष्ट्रीय आंदोलन की वे सारी चीजें समाहित हो गई थीं – जिसके बल पर राष्ट्रीय आंदोलन ने गति पकड़ी और उफान पर रहा। आजादी के बाद के करीब एक दशक तक पत्रकारिता उसी रोमांसवाद से प्रभावित रही। लेकिन नब्बे के दशक में शुरू हुए बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता ने अपनी इस नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाना शुरू किया। चूंकि टेलीविजन इस बाजारवाद के दौर में ही पनपा, उभरा और विराट बना, इसलिए उसने बाजारवाद की तमाम खासियतें बेरोकटोक खुद में समाहित कर लीं। अखबार में संपादकीय टीम की मीटिंगों में जहां महंगाई, कानून-व्यवस्था और सुरक्षा की बदहाली सबसे बड़ा मुद्दा रही हैं – टेलीविजन न्यूज रूम की मीटिंगों में नए ब्रांड के कपड़े, फैशन शो और कार की गिरती-बढ़ती कीमतों का मसला छाया रहता है। वैसे टीवी पर सवाल उठाने वाले प्रिंट माध्यमों की बैठकों में धीरे-धीरे ही सही – टीवी का ये रोग आता जा रहा है। रही – सही कसर टैम रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की माया ने पूरी कर दी है। टैम का जो पैमाना है – उस पर भी बाजारवाद की चीजें ही हावी हैं। ऐसे में ये सोचना कि इस व्यवस्था पर टिका टेलीविजन उद्योग और उसके पत्रकार पेशेवर नैतिकता के तहत ही काम करेंगे – बिल्कुल बेमानी है।
वकालत, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशों की नैतिकता निर्धारित करने , उनकी आचार संहिता बनाने के लिए बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल जैसे संगठन हैं। लेकिन मीडिया के लिए ऐसा कोई पेशेवर संगठन नहीं है – जिसके जरिए पत्रकारों को नैतिक दायरे में बांधे रखने का काम किया जा सके। मुंबई हमलों के बाद एक बार फिर से मीडिया के लिए ऐसे ही एक पेशेवर संगठन की जरूरत बढ़ती जा रही है। ताकि वह मीडिया और उसमें काम करने वाले लोगों के लिए एक मानदंड तय करे। उनकी आचार संहिता तय करे और उसे लागू करने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाए। सूचना और प्रसारण मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने 2002 में मीडिया कौंसिल के गठन का सवाल जब उछाला था – तब इसका ना सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और घरानों ने भी विरोध किया था। पत्रकारों का एक तबका तो खैर आगे था ही। लेकिन अब इसे लेकर भी सहमति बनती दिख रही है। टीवी पत्रकारों का एक बड़ा तबका भी मानने लगा है कि कम से कम उन्हें भी पेशेवर नैतिकता और आचारसंहिता के दायरे में बंधना ही होगा। पेशेवराना अंदाज को जब तक संरक्षण नहीं दिया जाएगा, टीआरपी के बाजारवादी पैमाने बदले नहीं जाएंगे..टीवी माध्यमों को नैतिकता और देशहित के नाम पर जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आचार संहिता बनाने की वकालत करने वाले दिग्गज पत्रकार और राजनेता इस मोर्चे पर सचमुच तैयार हैं।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

क्यों चुप है चीन

उमेश चतु्र्वेदी
जून 2003 में चीन की धरती पर तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जब कदम पड़े थे – तब ना सिर्फ भारतीय, बल्कि चीन के मीडिया ने भी दोनों देशों के बीच रिश्तों की नई इबारत लिखे जाने की भरपूर उम्मीद जताई थी। इस उम्मीद की वजह भी थी। 1962 में भारत की शर्मनाक पराजय के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की ये पहली चीन यात्रा थी, जिससे किसी सार्थक नतीजे की उम्मीद जताई जा रही थी। ये उम्मीद परवान चढ़ती नजर भी आई...जब 44 साल से बंद सिक्किम की सीमा पर स्थित नाथूला दर्रे को 6 जुलाई 2006 को खोल दिया गया। तब से लेकर गंगा और यांग टिसी क्यांग में न जाने कितना पानी बह चुका है। आर्थिक बदलाव के दौर में इन दोनों पड़ोसी देशों के बीच अर्थव्यवस्था से लेकर सियासी हालात ...हर मोर्चे पर बेहतर संबंधों की उम्मीद जताई जाती रही है। लेकिन क्या ये उम्मीद सचमुच सफल हो पाई है...इस पर नजर डालने के लिए हाल में हुए मुंबई हमले को लेकर चीन की सरकार और वहां के मीडिया के रूख पर निगाह डालना ज्यादा समीचीन होगा।
26 नवंबर को मुंबई हमले के बाद पूरी दुनिया की सवालिया निगाहें पाकिस्तान और पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद पर टिकी हुई हैं। अमेरिका की एफबीआई तक मुंबई में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब से पूछताछ कर चुकी है। इसे लेकर अमेरिकी मीडिया में खबरों की भरमार है। पाकिस्तान को चेतावनियों वाले लेख लगातार साया हो रहे हैं। कुछ यही हाल ब्रिटेन का भी है। ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड इन दिनों भारत यात्रा पर हैं। उन्होंने भी पाकिस्तान को आतंकवाद का निर्यात रोकने और उस पर काबू पाने के लिए चेतावनी दी है। जाहिर है..ये खबर भी इन दिनों यूरोपीय और अमेरिकी अखबारों की सुर्खियां बनी है। सात समंदर पार या सात हजार मील दूर की सरकार और वहां की मीडिया के लिए पाकिस्तान इन दिनों बड़ा सवाल है। लेकिन अपने ठीक पड़ोस में ...हिमालय के पार स्थित चीन के लिए जैसे ये घटना कोई खबर ही नहीं है। यह उस चीन का नजरिया है, जिसके साथ हमारे अर्थशास्त्री बदलते आर्थिक दौर में मिलकर नई इबारत लिखने की उम्मीद पाले हुए हैं।
जो चीन को जानते हैं और उसे देखते – परखते रहे हैं, उन्हें पता है कि चीन का मीडिया क्यों चुप है। चीन में वैसा मीडिया नहीं है, जैसा भारत, पाकिस्तान या फिर यूरोप-अमेरिका में है। इन जगहों के मुताबिक यहां का मीडिया ना तो स्वतंत्र है, ना ही निष्पक्ष। चीन का मीडिया उन्हीं खबरों को तवज्जो देता है या यहां वही खबरें सुर्खियां बनतीं हैं ...जिसके लिए चीन सरकार से हरी झंडी मिलती है। साफ है - यहां के मीडिया पर सरकारी नियंत्रण है। शायद यही वजह है कि चीन के मीडिया को वहां की सरकार का मुखपत्र ही कहा जाता है।
जब चीन की सरकार ही इस मसले को लेकर पूरी तरह चुप्पी साधे हुए है तो वहां का सबसे बड़ा अखबार पीपुल्स डेली या सरकारी समाचार एजेंसी झिंन्हुआ कैसे पाकिस्तान पर उंगली उठा सकती है। 26 नवंबर के आतंकी हमले के बाद चीन के सरकारी रेडियो चाइना इंटरनेशनल ने भी कायदे की डिस्पैच दिल्ली से नहीं भेजी या भेजी भी तो उसे प्रसारित नहीं किया गया। सिर्फ तीस नवंबर को इसने एक खबर जारी की। वह खबर थी कि भारतीय गृहमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री को मुंबई हमले के सिलसिले में अपना इस्तीफा सौंपा। जाहिर है ये खबर तब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल के इस्तीफे को लेकर थी। ऐसा नहीं कि चीन की सरकार इस मसले पर चुप ही है। उसने चार दिसंबर को एक अपील जरूर जारी की। इसमें चीन की सरकार ने भारत और पाकिस्तान सरकार से मुंबई हमले को लेकर बातचीत करने की अपील की थी। इस खबर को पीपुल्स डेली ने चार दिसंबर को प्रमुखता से साया किया। इसके बाद से मुंबई हमले को लेकर चीन का मीडिया हैरतनाक तरीके से चुप है। हां 14 दिसंबर को उसकी चुप्पी एक बार टूटी जरूर ...लेकिन उसमें ये जानकारी दी गई कि मुंबई हमले को लेकर चीन सरकार और प्रशासन भी चिंतित है और यही वजह है कि बीजिंग में सुरक्षा इंतजामों को लेकर रिहर्सल की गई।
चीन के मीडिया की चुप्पी भी समझ में आती है। हिमालय के दोनों तरफ दोस्ती के लाख दावे किए जाएं- लेकिन ये उतना ही बड़ा सच है कि आज भी दोनों देशों के रिश्तों में वह गरमाहट नहीं आई है, जितनी चीन और पाकिस्तान के बीच है। शायद यही वजह है कि जहां दुनिया भर का मीडिया मुंबई हमलों के लिए पाकिस्तान समर्थित लश्कर-ए-तैय्यबा को जिम्मेदार ठहरा रहा है। वहीं चीन के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली ने 28 नवंबर को ये रिपोर्ट प्रकाशित करने में देर नहीं लगाई कि इन हमलों के लिए डेक्कन मुजाहिद्दीन नामक भारतीय संगठन जिम्मेदार है। पीपुल्स डेली ने पाकिस्तानी उर्दू अखबारों की उन रिपोर्टों को प्रमुखता से प्रकाशित करने में भी देर नहीं लगाई – जिनमें इस हमले के लिए हिंदू आतंकवादी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया गया।
पीपुल्स डेली में तो एक अनाम विश्लेषक के हवाले एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की गई। जिसमें मुंबई हमले के पीछे पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों का हाथ होने से पाकिस्तानी अधिकारियों और नेताओं ने इनकार किया था। चीनी मीडिया की ये चुप्पी और भी दिलचस्प बन जाती है – जब आपको पता चलता है कि चीन की सरकारी संवाद एजेंसी झिन्हुआ ने मुंबई हमलों को 2008 के टॉप टेन वर्ल्ड न्यूज में शुमार किया था। चीन के मीडिया ने किस तरह भारतीय पक्ष को कमजोर दिखाने की कोशिश की – इसका उदाहरण है एक रिपोर्ट। तीस दिसंबर को प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मुंबई हमले की संयुक्त जांच के संबंध में भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी के बयान से पाकिस्तान के सबूतों को ही बल मिलता है। ये रिपोर्ट कितनी शातिराना है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने मुंबई हमले की संयुक्त जांच के पाकिस्तान के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया था। लेकिन इस रिपोर्ट में भारत के इस इनकार का कोई जिक्र नहीं है।
तीस दिसंबर को ही झिन्हुआ ने एक रिपोर्ट जारी की। पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसफ अली जरदारी और चीन के उप राष्ट्रपति ही याफेई के बीच बैठक के बाद एक तरह से चीन सरकार के वक्तव्य के तौर पर जारी किया गया था। इसके मुताबिक – दक्षिण पूर्वी एशिया के इलाके में शांति और स्थिरता को लेकर चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कम करने के लिए रचनात्मक भूमिका निभाता रहेगा।
चीन के मीडिया की इस भूमिका के विश्लेषण के बाद भी क्या दोनों देशों के बीच पारदर्शिता पर आधारित दोस्ती की कोई गुंजाइश बाकी रह जाती है। इस पर उन लोगों को खासतौर पर विचार करना चाहिए, जिन्हें लगता है कि दोनों देशों के रिश्तों के बीच पड़ी हिमालय की ठंडी बरफ को पिघलाना कठिन नहीं है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

मीडिया के पन्ने या युद्ध का मैदान

उमेश चतुर्वेदी
पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई में आतंकी हमले के बाद अरब सागर में न जाने कितने ज्वार-भाटा आ चुके हैं। लेकिन एक सवाल का जवाब दोनों तरफ बड़ी बेसब्री से तलाशा जा रहा है कि युद्ध होगा या नहीं ....दोनों तरफ एक वर्ग ऐसा है, जिसे लड़ाई के ही सहारे सारी समस्याओं का हल सूझ रहा है तो दूसरा तबका ऐसा भी है – जिसे लोहिया जी के भारत-पाक महासंघ को पुनर्जीवित करने में आज भी दिलचस्पी है।
पिछली सदी के साठ के दशक में डॉक्टर लोहिया ने भारत-पाक महासंघ की कल्पना की थी। उन्होंने ये विचार देते वक्त कहा था कि हिंदुस्तान के भले ही तीन टुकड़े हो गए हैं – लेकिन ये बदलाव बनावटी है। क्योंकि संस्कृति और भौगोलिक आधार पर दोनों या बल्कि अब कहें तो तीनों यानी भारत, पाकिस्तान और बांगलादेश में कोई अंतर नहीं है। भाषाई सवालों को छोड़ दें तो तीनों की नाल एक ही है ...तीनों का उद्गम एक है। ये तो समय और राजनीति की मार है कि इतिहास के एक बड़े पत्थर ने तीनों को अलग-अलग धाराओं में बांट दिया। डॉक्टर लोहिया ने कहा था कि अगर सोवियत संघ एक हो सकता है – जर्मनी के दोनों हिस्से एक होने की कवायद में जुट सकते हैं तो एक बनावटी विभाजन के चलते पैदा हुए भारत और पाकिस्तान एक होने की कोशिश में क्यों नहीं जुट सकते। लोहिया ने कहा था कि विदेश नीति, रक्षा और मुद्रा जैसे मामले एक रखकर दोनों या कहें तीनों देश आपसी कई समस्याओं से निजात पा सकते हैं।
लोहिया की इस कल्पना का तफसील से विश्लेषण बाद में ...अब जरा 26 नवंबर के बाद की घटनाओं पर भारत और पाकिस्तानी मीडिया के रूख पर ध्यान दें। दोनों तरफ की मीडिया की चिंताओं से रूबरू होने से पहले दोनों तरफ की मीडिया की एक सामान्य प्रवृत्ति पर ध्यान देने की जरूरत है। पाकिस्तान से युद्ध हो या क्रिकेट ....मीडिया भी इसमें वैसे ही भाग लेता है ...जैसे वह खुद सिपाही या क्रिकेटर हो। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया का स्पेस भी क्रिकेट या युद्ध के मैदान में तबदील हो जाता है। दोनों तरफ युद्धोन्माद पैदा करने में दोनों तरफ का मीडिया भी कूद पड़ता है। भारत के खबरिया टेलीविजन चैनलों का तो पाकिस्तान से मैच खबर बेचने का जबर्दस्त यूएसपी है। कहना ना होगा इस बार भी ये युद्ध का ये हाइप भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। भारत और पाकिस्तान के बयान बहादुर राजनेता पूरी शिद्दत से एक – दूसरे को झूठा और खुद को ईमानदार दिखाने – जताने की कोशिश में जुटे हुए हैं। ऐसे में बार – बार दोनों तरफ ये सवाल उठ रहा है कि क्या लड़ाई होगी। भारत का अंग्रेजी – हिंदी समेत तकरीबन सभी भारतीय भाषाओं का मीडिया युद्ध नहीं चाहता। मुंबई पर आतंकी हमले के खिलाफ बने माहौल के चलते अंग्रेजी मीडिया इन दिनों अपनी सेक्युलर छवि से कहीं ज्यादा अपराधियों को दंड दिलाने की मंशा के साथ रिपोर्टिंग कर रहा है। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ये मीडिया संसद पर आतंकी हमले के लिए वाजपेयी और उनके जिम्मेदार गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को ही जिम्मेदार ठहराने में जोरशोर से जुटा था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। कुछ यही हालत पाकिस्तान के भी अंग्रेजी मीडिया का भी है। सबसे अच्छी बात ये है कि वहां के मशहूर दैनिक द डॉन और द न्यूज ने एफबीआई के हवाले से ये खबरें देने में हिचक नहीं दिखाई कि मुंबई में पकड़ा गया आतंकी कसाब पाकिस्तानी नागरिक ही है। द न्यूज और द डॉन के संवाददाता पाकिस्तान के फरीदकोट जिले के उस गांव तक पहुंच गए- जहां का कसाब निवासी है। लेकिन वहां के उर्दू अखबारों का रवैया ऐसा नहीं है। खुद द डॉन के ही ग्रुप के उर्दू अखबार जंग का रवैया वैसा नहीं रहा। उसने भारत को ही दोषी साबित करने में देर नहीं लगाई और कसाब को भारत का नागरिक बताने से भी नहीं हिचका।
पाकिस्तान के दूसरे प्रतिष्ठित अखबार द नेशन और फ्राइडे टाइम्स का रवैया कभी संतुलित नजर आया तो कभी वह पाकिस्तान को लेकर मोहग्रस्त भी रहा। लेकिन उर्दू अखबार पहले की ही तरह अखबारी पन्नों पर भारत के खिलाफ जंग लड़ते रहे। सबसे ज्यादा हमला नवा ए वक्त ने बोला। पाकिस्तान के एक अखबार से जुड़े हमारे एक जानकार ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि पाकिस्तान में उर्दू अखबारों ने जिम्मेदराना रूख अख्तियार नहीं किया।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए ..जब भारतीय उर्दू अखबारों में भी पाकिस्तान को दोषी ठहराने से हिचक दिखती थी। हालांकि इस बार ऐसा नहीं हुआ है। अंग्रेजी के मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपने पिछले कॉलम में ही लिखा है कि मुंबई हमले में जो करीब 185 लोग मारे गए –उनमें चालीस से ज्यादा मुसलमान थे। खुशवंत का कहना है कि यही वजह है कि मुंबई में मारे गए आतंकियों से भारतीय मुसलमानों को कोई हमदर्दी नहीं है। शायद यही वजह है कि इस बार पाकिस्तानी आतंकवादियों को लेकर उर्दू प्रेस भी तल्ख है।
उर्दू और अंग्रेजी मीडिया की रपटों और संपादकीयों में इस अंतर से साफ है कि दोनों दरअसल दो तरह की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं और दोनों का लक्ष्य समूह अलग है। भारत में भी कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो उर्दू प्रेस के साथ पूर्वाग्रह के आरोप लगते रहे हैं और पाकिस्तान का अधिसंख्य उर्दू प्रेस कट्टरपंथी मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व करता है। यही वजह है कि अंग्रेजी मीडिया जहां हकीकत आधारित रिपोर्टिंग कर रहा है—उसे लड़ाई और आतंकवाद में भलाई नहीं दिख रही है। वहीं उर्दू प्रेस अभी-भी अपने पुराने रवैये पर कायम है।
पता नहीं ..लोहिया जी के विचारों से अंग्रेजी प्रेस कितना मुतमईन रहा है। लेकिन अगर आज वे जिंदा रहते तो मुख्यधारा की पत्रकारिता- जिसमें पाकिस्तान का अंग्रेजी प्रेस के साथ ही भारत की प्रमुख भाषाओं का प्रेस शामिल है – में आए इस बदलाव को अपने विचारों की जीत के एक सोपान के तौर पर देखते।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

नई सुबह की उम्मीद

यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हो चुका है।
उमेश चतुर्वेदी
हर बीते हुए लमहे की अपनी कुछ उपलब्धियां होती हैं तो कुछ असफलताएं भी होती हैं। जाहिर है दो हजार आठ ने भी कुछ कामयाबियां हासिल कीं तो कुछ नाकामयाबियों से भी उसे रूबरू होना पड़ा है। बीता हुआ जब इतिहास में तब्दील होता है तो उसकी महत्वपूर्ण कामयाबियां और नाकामियां ही आने वाले वक्त को याद रह पाती हैं। इतिहास में दर्ज होते वक्त हर लमहे की कोशिश होती है कि उसकी कामयाबियों की ही चर्चा हो। भारत में अभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भले ही परिपक्वता की उम्र सीमा में नहीं पहुंच पाया है – लेकिन उसकी भी यही कोशिश रही है कि उसकी कामयाबियां ही इतिहास में दर्ज हों। लेकिन साल के आखिरी महीने के ठीक पहले मुंबई में जो कुछ हुआ और उसे लेकर मीडिया का जो रवैया रहा ...वह कम से कम इतिहास में दर्ज होने की सदइच्छाओँ पर भारी पड़ गया। मुंबई में आतंकी हमले के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ---खासकर खबरिया चैनलों की भूमिका इतनी खराब रही कि ना सिर्फ मीडिया के अंदर – बल्कि समाज के दूसरे तबकों से इसके खिलाफ सवाल जमकर उठे। आतंकवादी हमले के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई की पल-पल की रिपोर्टिंग भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मजबूरी रही हो – लेकिन उसे जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से नहीं निभाया गया। पहले से ही सांप-बिच्छू नचाकर टीआरपी बटोरने के खेल के लिए आलोचना का पात्र रहे मीडिया ने कथित आतंकवादी का फोनो चलाकर जैसे खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।
दो हजार आठ का मीडिया परिदृश्य मुंबई में आतंकी घटनाओं की रिपोर्टिंग के दौरान अपनी गैर जिम्मेदारी के लिए जमकर याद किया जाएगा। मानव का स्वभाव है ...वह बाद की घटनाओं को पहले की घटनाओं की बनिस्बत कहीं ज्यादा गहराई से याद करता है। मुंबई के ताज होटल और ट्राइडेंट में आतंकी हमले के ठीक पहले दिल्ली में 13 सितंबर को सीरियल धमाके हुए थे। उस वक्त मीडिया के एक बड़े तबके ने जिम्मेदार रिपोर्टिंग का परिचय दिया था। हालांकि एक – दो प्रमुख चैनलों के कुछ रिपोर्टरों ने एक लड़के को थैला लेकर भागते देखकर टाइम बम की अफवाह फैलाने में भी देर नहीं लगाई थी। हालांकि अफरातफरी के आलम में ऐसी एक – दो घटनाएं हो जाती हैं। लेकिन उस दिन रिपोर्टरों ने घायलों को अस्पताल पहुंचाने में जितना जिम्मेदराना रूख दिखाया था – उसकी आम लोगों ने तारीफ ही की थी। घायलों को परिजनों को जरूरी सहायता को रिपोर्टरों ने रिपोर्टिंग से ज्यादा तवज्जो देकर अपनी जिम्मेदारी का बखूबी परिचय दिया था। ये टेलीविजन रिपोर्टर ही थे – जिन्होंने नीरो की तरह चैन से बांसुरी बजा रहे शिवराज पाटिल के ड्रेस सेंस पर स्टोरियां की। अखबारी रिपोर्टरों से कहीं ज्यादा टीवी रिपोर्टरों के निशाने पर ही पाटिल के सफेद झक्कास – कलफदार सूट रहे। यही वजह है कि मुंबई धमाकों के बाद शिवराज पाटिल को विदा होना पड़ा।
टीवी की जिम्मेदार रिपोर्टिंग के नाम 13 मई के जयपुर और 26 जुलाई के अहमदाबाद धमाके भी रहे। हालांकि आरडीएक्स और साइकिलों के जरिए धमाके को दिखाने के लिए जिस तरह कुछ खबरिया चैनलों के न्यूज रूम में जिस तरह साइकिलें लाई गईं और उनकी घंटियां बजाईं गईं ...उसे लोगों ने पसंद नहीं किया। लेकिन जयपुर की गंगजमुनी संस्कृति को आगे लाने और एक – दूसरे संप्रदायों के लोगों की ओर से शुरू किए गए राहत उपायों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दमदार खबरें दिखाने में आगे रहे। इसका असर भी दिखा। आतंकवादी अपने नापाक मंसूबों में कामयाब नहीं रहे। बम धमाकों के जरिए आतंकी दरअसल देश के प्रमुख संप्रदायों के बीच दरार कायम करने की कोशिश में रहते हैं ताकि लोग आपस में लड़ें और उनकी कोशिशें कामयाब हों।
मुंबई धमाकों की तरह एक और घटना की रिपोर्टिंग में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दे सका। वह घटना रही 15 मई को नोएडा के एक पॉश इलाके में एक डॉक्टर राजेश तलवार की लड़की आरूषि और उनके नौकर हेमराज की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड को लेकर मीडिया ने बिना जांचे-समझे जमकर रिपोर्टिंग की। कई चैनलों ने आरूषि के घर अपनी रिपोर्टिंग टीम को स्थायी तौर पर तैनात कर दी। नोएडा पुलिस ने बिना जांचे-परखे जैसी सूचनाएं उन्हें मुहैय्या कराई – उन्होंने अपने टीवी पर्दे पर साया करने में देर नहीं लगाई। मासूम आरूषि के नौकर हेमराज से शारीरिक संबंध, राजेश तलवार के उसकी सहयोगी एक और डॉक्टर से संबंध जैसी खबरों को पुलिस ने मीडिया को दी और बिना जांचे-परखे छापने में देर नहीं लगाई।
इसका फायदा भी टीवी चैनलों को मिला। जिन दिनों आरूषि की हत्या हुई – उस समय आईपीएल के मैच चल रहे थे। टैम के मुताबिक आईपीएल के मैचों को महज 7.5 प्वाईंट टीआरपी हासिल हुई तो समाचार चैनलों को 9 प्वाईंट टीआरपी मिली। टैम के मुताबिक इस हत्याकाण्ड के कारण सबसे ज्यादा 2 प्वाईंट की टीआरपी बढ़ोत्तरी हिन्दी चैनलों को मिली। टैम के समानांतर चलने वाली रेटिंग एजेंसी एमैप का भी कहना है कि आईपीएल मैचों के बीच भी आरूषि हत्याकाण्ड के कारण टीवी चैनल टीआरपी लपकने में कामयाब रहे। 23 मई को जिस दिन आरुषि के बार राजेश तलवार को हत्या के अंदेशा में गिरफ्तार किया गया उस दिन मोहाली और हैदराबाद के बीच मैच था। लेकिन इस मैच को टीवी पर जितने दर्शक उससे ज्यादा दर्शकों को आरूषि हत्याकाण्ड की बदौलत अपने साथ जोड़कर रखा। उस दौरान आईपीएल को 0.96 टीआरपी मिली तो पांच प्रमुख हिन्दी अंग्रेजी चैनलों को 1.0 प्वाइंट टीआरपी हासिल हुई।
ये सच है कि टीआरपी के लिए काम करना चैनलों की मजबूरी है। लेकिन मुंबई हमले के बाद जिस तरह मीडिया कटघरे में खड़ा हुआ और मीडिया को अपनी आचार संहिता बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके लिए भी बीते साल को याद किया जाएगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले साल में देसी खबरिया चैनल पिछली गलतियां नहीं दुहराएंगे।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

मंदी का बहाना है ....


उमेश चतुर्वेदी
कहते हैं दीपक तले अंधेरा होता है। इस कहावत का सबसे बेहतरीन नमूना इन दिनों मीडिया की अपनी खुद की दुनिया है। पीलीवर्दीधारियों (जेट एयरवेज की एयरहोस्टस की वर्दी) की खबर को मनमोहनी अर्थव्यवस्था के मुंह पर बड़ा तमाचा बताने वाले मीडिया वाला खुद पीली वर्दीधारियों की हालत में पहुंच गया है। शायद ही कोई मीडिया हाउस है – जहां मंदी के नाम पर छंटनी की तलवार नहीं चल रही है। लेकिन मीडिया के अंदरूनी दुनिया की कोई खबर नहीं बन रही है।

कहा जा रहा है कि 1929 की भयानक मंदी के बाद ये अब तक की सबसे बड़ी मंदी है। मंदी के उस दौर में खाने तक के लाले पड़ गए थे। लेकिन अभी तक हालात खास नहीं बदले हैं। हां विलासिता की चीजों के बाजार – मसलन ऑटोमोबाइल और रिटेल सेक्टर में कुछ गिरावट जरूर दिख रही है। लेकिन उपभोक्ता बाजार अभी तक कायम है। इसका ही असर है कि टेलीविजन के पर्दे से विज्ञापन गायब नहीं हुए हैं। कुछ यही हालत अखबारों की भी है। वहां भी विज्ञापनों भरे पृष्ठों में कमी नहीं आई है। ये सच है कि मंदी के चलते अखबारी कागजों की कीमतें जरूर बढ़ी हैं। इसकी कीमत में बीस से चालीस फीसद तक की बढ़त देखी जा रही है। ये सच है कि इन बढ़ी कीमतों का अखबारों की अर्थव्यवस्था पर असर जरूर पड़ा है। लेकिन इतना कि लोगों की रोजी-रोटी पर बन आए...उन लोगों की रोजी-रोटी पर ...जिन्होंने खुद इन अखबारों को सजाने – बचाने में खून-पसीना एक किया है ...तकलीफदेह जरूर है। लेकिन छंटनी का बाजार तेज है।

आइए देखते हैं कि अखबारी दुनिया की इस छंटनी की हकीकत क्या है ? बिजनेस स्टैंडर्ड के गुजराती संस्करण, दैनिक जागरण और टीवी 18 के प्रस्तावित गुजराती बिजनेस अखबार और गुजराती बिजनेस भास्कर को छोड़ दें तो हर अखबार में संपादकीय विभाग से गिने-चुने लोगों की ही छंटनी की गई है या की जा रही है। सबसे ज्यादा इस छंटाई प्रक्रिया के शिकार पेजीनेटर बन रहे हैं या बनाए जा रहे हैं। पेजीनेटर यानी कंप्यूटर पर पेज बनाने वाले लोग। तकनीकी तौर पर ये लोग न्यूजरूम में संपादकीय विभाग के कर्मचारी होते हैं। डेस्क टॉप पब्लिशिंग के दौर की शुरूआत के साथ ही पेजीनेटरों के जिम्मे ही अखबारों के पेज बनाने का जिम्मा रहा है। लेकिन अब मंदी के नाम पर ये जिम्मेदारी उपसंपादकों पर डाली जा रही है। उनसे कहा जा रहा है कि अब वे ही पेज बनाएं। अब तक अपने पेज के लिए सामग्री का चयन की उनकी जिम्मेदारी रही है। उसका शीर्षक लगाना और पेज को सजाना उपसंपादकों का प्राथमिक काम रहा है। लेकिन मंदी ने उन पर अब पेज बनाने का बोझ भी डालना शुरू कर दिया है। एक अखबार में तकरीबन सभी पेजीनेटरों को मंदी के नाम पर हटा दिया गया। इससे संपादकीय विभाग में भी हड़कंप मच गया और अखबार निकालने में मुश्किलें आने लगीं। इसका आभास जब मैनेजमेंट को हुआ तो उसने बाकायदा संपादकीय विभाग की बैठक ली और उन्हें ये भरोसा दिलाया कि उनकी नौकरियां सलामत हैं। लेकिन उनसे ये आग्रह जरूर किया गया कि वे पेज बनाने की जिम्मेदारी भी ले लें।
ये पहला मौका नहीं है – जब आर्थिक बदहाली या मंदी के नाम पर अखबारी संस्थानों में छंटनी की गई है। नब्बे के दशक में मनमोहनी अर्थव्यवस्था की ओर भले ही देश बढ़ रहा था – लेकिन तब मीडिया का वैसा विस्तार नहीं हो रहा था। तकनीक बदल रही थी। डीटीपी का जोर बढ़ रहा था। उस दौर में तकनीक में बदलाव के नाम पर अखबारों की दुनिया से तीन पद धीरे-धीरे खत्म किए गए। तब अखबारों में कंपोजिटर का पद भी होता था। हाथ से लिखने के दौर में कंपोजिटर और टाइपिस्ट की दुनिया हुआ करती थी। उनके बिना अखबारी न्यूज रूम की कल्पना नहीं की जा सकती थी। लेकिन आर्थिक बदहाली के दौर में कंपोजिटर और प्रूफरीडर का पद पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। और ये जिम्मेदारी भी आज की तरह उपसंपादकों पर डाल दी गई। ये सच है कि आज ज्यादातर रिपोर्टर अपनी कॉपी कंप्यूटर पर टाइप करके ही भेजते हैं – लेकिन ये भी सच है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में अब भी हाथ से लिखने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। हाथ से लिखी खबरें-टिप्पणियां और लेख...सबकुछ आता है और इन सबको प्रकाशित करने की जिम्मेदारी निभाने वाले उप संपादकों इन्हें टाइप और कंपोज भी करना पड़ता है। इसके साथ ही उन्हें प्रूफ भी पढ़ना पड़ता है।

मैनेजमेंट की दुनिया में इन दिनों एक शब्द जमकर चल रहा है – मल्टीस्किल्ड। यानी एक शख्स को तमाम तरह के काम आने चाहिए। इटली के मशहूर चित्रकार और कवि लियोनार्दो द विंची के बारे में कहा जाता था कि एक ही बार में वे यदि दाहिने हाथ से चित्र बना रहे होते तो वे दूसरे हाथ से कविता भी उतनी ही प्रौढ़ता और गहराई से लिख लेते थे। आज के उपसंपादकों से विंची जैसा ही बनने की उम्मीद की जा रही है। और इसका बहाना बनी है मंदी ...लेकिन मैनेजमेंट ये भूल जाता है कि विंची या विंची जैसा कोई एक या दो ही शख्स होता है। इसका असर कम से कम आम पाठकों को रोजाना अखबारों के पृष्ठों पर दिखता है। जब प्रूफ की गलतियां किसी अच्छी खबर या अच्छे लेख का मजा किरकिरा कर देती हैं।
सवाल ये है कि ये कब तक जारी रहेगा...क्या इसका कोई अंत है ....पीली वर्दीधारियों की चिंताओं को राष्ट्र की चिंता बनाने वालों की ये जायज परेशानियां किसी की चिंता और परेशानी की सबब बनेगी.. जब तक इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए किसी और की ओर पत्रकार समाज देखता रहेगा ...उप संपादक की पीड़ाएं और बोझ बढ़ता रहेगा। मंदी के बहाने चक्की की चाल तेज होती रहेगी।

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

क्यों महान हैं गांधी ...


गांधी जी की महानता को लेकर आए दिन सवाल-जवाब और तर्क-वितर्क होते रहे हैं। ऐसे ही सवालों से लबरेज एक जर्मन जिज्ञासु युवती का सहारा समय उत्तर प्रदेश के सीनियर प्रोड्यूसर राजकुमार पांडेय का सामना हुआ तो उन्हें इसका जवाब खोजने के लिए काफी कवायद करनी पड़ी। उसी कवायद को उन्होंने शब्दों में पिरोकर मीडिया मीमांसा को भेजा है। पेश है राजकुमार पांडेय जी के विचार-
महात्मा गांधी को महान किस चीज ने बनाया। ये सवाल भले ही अटपटा लगे लेकिन इसका जबाव इतना आसान नहीं है। वो भी उस हालत में जब कोई विदेशी बातचीत के दौरान ये सवाल पूछ बैठे। एक बातचीत में जर्मनी की एक युवती ने ये प्रश्न खड़ा कर दिया। बैठकी पत्रकारों की थी, लिहाजा हमें जवाब देना ही था। तरह तरह के उत्तरों के बीच मैंने कहा कि गांधी की ईमानदारी, उनकी सादगी और मानव मात्र के प्रति उनके आदर भाव ने गांधी को महान बनाया। एक मित्र ने बीच में ही टोक दिया- गांधी ने कमजोरों को सशक्त किया था। इस लिए वे महान बने। लेकिन पश्चिमी समाज में आदमी की ताकत को पैसे से तौला जाता है। लिहाजा जर्मन युवती के लिए ये जवाब हैरत की बात थी। ऐसे में उसे फिर से सवाल दागना ही था - गांधी के पास वो ताकत कहां से आई कि वो किसी और को ताकत दे सकें।
प्रश्न मासूम और तर्किक लग रहा था। जिसे भारतीय दर्शन की पारंपरिकता से परिपूर्ण समझ न हो तो उसे ऐसे सवाल परेशान करते ही रहेंगे। दरअसल ताकत का अर्थ पश्चिमी दर्शन भौतिक ताकत से ही लगाता है। आत्मिक ताकत का अंदाजा उसे तब तक नहीं हो सकता, जब तक भारतीय जीवन पद्धति और दर्शन से वाकफियत न हो।
मैने उस युवती से बातचीत कर शायद उसे काफी हद तक संतुष्ट कर दिया, लेकिन चूंकि चर्चा में मदिरा भी शामिल थी लिहाजा कोई खास नतीजा नहीं निकलना था।
लेकिन मुझे लगता है कि हम भारतीय लोग अपने लिए प्रतिमूर्तियां गढ़ते हैं। कई बार किसी और की बनाई हुई छवि भी हमें इतनी रोचक लगती है कि हम उसके दीवाने हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हम छविवादी है। इसी से मिलता जुलता एक तर्क सादृश्यमूलक युक्ति भी है। हालांकि सादृश्यमूलक युक्ति में हम बनी बनाई छवियों में अपने जैसा कुछ देख कर उसे अपना मानने लगते हैं। फिर उस छवि को हम तरह तरह की कसौटियों पर कसते हैं। ये कसौटिंयां इतनी खरी होती हैं कि बहुत सी छवियां या प्रतिमूर्तियां समय के साथ भंग भी होती जाती है। इसी छविवाद के तहत श्री राम, श्री कृष्ण भगवान हैं और अमिताभ, शाहरुख हमारे हीरो हैं। हम सचिन और गावसकर के दीवाने हैं।
गांधी जी की छवि भारत में उनके जुझारुपन, और आंदोलनों के प्रति उनके अपने नज़रिए के कारण बनी। साथ में उनकी सादगी, ईमानदारी और मानव मात्र को सम्मान देने के उनके भाव ने उन्हें संत का स्थान दिलाया। उन्हें छवियों के पीछे चलने की हमारी प्रवृति का लाभ मिला और चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर.... की स्थिति हो गयी। गांधी जी के कहने पर करोड़ों लोग उनके पीछे चलने लगे।
दरअसल इनमें से कोई भी एक गुण अकेला किसी को बड़ा तो बना सकता है। लेकिन महान नहीं। गांधी जी जिस तरह से व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे, या फिर जो सादगी उनके पास थी, जिस तरह से वे ईमानदार थे, सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में उन सब चीजों ने मिल कर उन्हें महान बनाया। भारतीय परंपरा में अब से तकरीबन तीन दशक पहले जो संत कम से कम कपड़े पहन कर सादगी के साथ तपस्या में लगा रहता था वही महात्मा कहलाता था। तमाम आशाराम या फिर किसी और की तरह भौतिक साधनों का भयंकर इस्तेमाल करने वाला संत नहीं माना जाता था। गांधी का युग वही था। उन्होंने भी बहुत कुछ छोड़ा। वे एक सफल आंदोलन के महानायक के रूप में भारत आए थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने नेतृत्व की शक्ति दिखा दी थी। उन्होंने यहां पर देखा कि मानव मानव में गहरा भेद है। थोड़े से अभिजात्य या ब्राह्मण जाति के लोग तो शूद्र की परछाई से भी दूर भागते हैं। वही शूद्र उनका मैला सिर पर उठा कर चल रहा है। हरिजनों कों मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। गांधी जी ने बराबरी का नारा ही नहीं दिया, मंदिरों के दरवाजे हरिजनों के लिए खुलवाए। सबको बताया कि सभी मानव बराबर है। तब जा कर सुदूर बिहार के हरिजन टोले में भी “गान्ही बाबा” की टोली तैयार हो गई। हिंदू धर्म की सहिष्णुता को अपने जीवन में दिखा कर उन्होंने मुसलमानों का भी भरोसा हांसिल किया। अब ज्यादातर भारतीयों को वह छवि दिखने लगी, जो उन्हें आजादी दिला सकने वाले नेता में दिखनी चाहिए थी। तब जा कर लोगों ने ही उन्हें वह ताकत दे दी- जिससे वे महान हो सके। जिस ताकत से अंग्रेज फौज और अंग्रेजी हाक़िम डरें। ये गांधी जी ही थे, जिनके सम्मान में उन्हीं के विरुद्ध सुनवाई करने वाले जज ने खड़े हो कर कुछ पक्तियां कहीं। इसकी दूसरी मिसाल शायद ही इतिहास में कहीं और मिले। उनके प्रति लोगों के प्रेम का ही सबूत था कि उन्होंने एक आंदोलन शुरू करने को कहा और आंदोलन चल पड़ा। बाद में जब चौरा चौरी कांड हुआ तो तमाम खतरों के बावजूद उन्होंने आंदोलन वापस लेने में भी हिचक नहीं दिखाई। आंदोलन रुक भी गया। अगर हम गांधी को सिर्फ नेता मानते तो उनके कहने पर आंदोलन चला तो देते, उनकी एक आवाज पर आंदोलन रोकते नहीं। इसकी भी मिसाल कम ही मिलेगी।
गांधी जी के बारे में हम भारतीय तो बचपन से ही जानते हैं, फिर भी ये सब कुछ लिखने की वजह ये हुई कि कहीं कोई और अगर गांधी के बारे में सवाल करे तो हमारे पास उनके राष्ट्रपिता बनने के कारणों की दार्शनिक वजह भी रहे।