उमेश चतुर्वेदी
क्या सचमुच हिंदी के ढेर सारे शब्दों को लोग अब नहीं समझते...क्या पत्रिका की जगह सिर्फ मैगजीन ही लोग समझते हैं, क्या कुतिया जैसा शब्द सिर्फ गाली ही है, कुत्ते का स्त्रीलिंग नहीं, क्या कंपीटिशन ही लोग जानते हैं, प्रतियोगी परीक्षा को लोगों के दिमागी शब्दकोश से निकल गया है, न्यूज को अब बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश वाया दिल्ली मध्य प्रदेश का पाठक जानता है, उसके लिए समाचार का कोई मतलब नहीं है। स्वीकार या स्वीकृति लोगों के जुबानी चलन से बाहर हो गया है, सिर्फ वेलकम या इस्तेमाल ही अब हिंदी जुबान को मंजूर है...लीडर ही अब दुनिया को समझता है, नेता और अगुआ की कोई वकत नहीं रही, मध्यस्थ को कोई पूछता नहीं, सिर्फ मीडियेटर ही अब आगे रह गया है.....पत्रकारिता की दुनिया में लगातार ऐसे सवालों से जूझते और दो-चार होना जैसे हम जैसे लोगों की नियति बन गई है। इन सवालों के बहुसंख्यक जवाब निश्चित तौर पर निराशा के बोधक हैं। शब्दों की दुनिया के अधिकारियों की नजर में इन और इन जैसे सवालों के जवाब निश्चित तौर पर हां हैं। लेकिन मेरा मन है कि मानने को तैयार ही नहीं है। क्योंकि व्यवहारिक दुनिया से जुड़े इन सवालों का जवाब तभी सटीक हो सकता है, जब उनके लिए व्यवहारिक दुनिया पर आधारित मानदंड भी तय किए गए हों। लेकिन हकीकत तो यह है कि इन जवाबों को सिर्फ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही स्वीकृत कर लिया गया है। सूचना और संचार क्रांति के इस दौर में ऐसे आधारों ने अपनी भाषा का कितना अवमूल्यन किया है, इसका अंदाजा अब लगना शुरू हो गया है। दूसरी और तीसरी श्रेणी तक के नगरों-शहरों से पढ़कर निकल रही पीढ़ी की हिंदी का भाषाई ज्ञान निश्चित तौर पर निराश करने वाला है। अधिकांश छात्रों की एक ही समस्या है, व्याकरण और भाषाई अनुशासन के नजरिए से एक पैराग्राफ भी अच्छी हिंदी नहीं लिख पाना। अगर किसी से आपने अच्छी हिंदी की उम्मीद पाल ली तो वह मक्षिका स्थाने मक्षिका वाली दुरूह और कठिन हिंदी लिखने लगे। सहज होने को कहिए तो उसके लिए उपयोग शब्द बदलकर सहज होते हुए इस्तेमाल बन कर रह जाएगा, प्रतीक्षा सिर्फ इंतजार बन कर रह जाएगी, विश्वास सिर्फ भरोसा बन जाएगा और ऐसे में विश्वासपात्र का भरोसामंद बन जाना ही है। कहने का मतलब यह है कि सहजता के बारे में मान लिया गया है कि सिर्फ भाषा की उर्दूकरण ही सहज भाषा होने की निशानी है। इस चलन को टेलीविजन मीडिया ने सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया है। जब से हिंदी में खबरिया चैनलों की शुरूआत में दो तरह के प्रयोग शुरू हुए, हिंदी के साथ चलन के नाम पर अंग्रेजी के तमाम ऐसे शब्दों का भी प्रयोग, जिनके लिए सहज और आसान हिंदी के शब्द चलन में हैं और दूसरी धारा उर्दू मिश्रित हिंदी की थी। उर्दू मिश्रित हिंदी की परंपरा अपने यहां पारसी थियेटर में भी रही है। याद कीजिए पाकीजा, मुगल ए आजम और रजिया सुल्तान के संवाद, वहां भारी-भरकम उर्दू शब्दावली का जमकर प्रयोग हुआ था। कहना न होगा कि चाक्षुष माध्यम होने के चलते खबरिया टेलीविजन चैनलों को भी अपने लिए भाषा गढ़ते वक्त पारसी थियेटर की वही शैली पसंद आई। लेकिन इन चैनलों की भाषा नीति तैयार करने वाले लोग भूल गए कि यह माध्यम भविष्य में पूरी तरह बाजार के हवाले होने वाला है। क्योंकि बाजारवाद की शुरूआत के साथ ही सूचना क्रांति के ये औजार भारत में भी विकसित होना शुरू हुए थे। लिहाजा एक दिन ऐसा आएगा कि बाजार भाषाओं की समृद्ध संस्कृति को अपने कब्जे में ले लेगा और फिर हम बेचारा की तरह भाषाई समृद्धि और परंपरा को तहस-नहस होते देखने के लिए मजबूर हो जाएंगे। मजे की बात यह है कि इस परिपाटी को शुरू करने वाले लोग अपने पेशेवर संवादों के अलावा जब भी मंचासीन होते हैं तो भाषा की दुर्गति पर विलाप करने से नहीं चूकते।
अब बाजार भाषाओं को बदल रहा है। सहज होने के नाम पर वह हिंदी को अत्यधिक उर्दू अनुरागी बना रहा है या फिर हिंग्रेजी की संस्कृति में ढाल रहा है। मजे की बात यह है कि सब कुछ गांधी जी की उस कल्पना के नाम पर हो रहा है, जिसके तहत उन्होंने गंग-जमुनी संस्कृति और भाषा के स्तर पर जिस हिंदोस्तानी की कल्पना की थी, ये सारा बदलाव उसी नाम पर हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस रोग से सबसे ज्यादा हमारा मीडिया ही ग्रस्त है। 1991 के आसपास जब इस चलन की शुरूआत हुई तो भाषा के जानकारों और संस्कृति के अध्येताओं को आशंका थी कि भावी पीढ़ियों की जुबानी घुट्टी से अपनी मां जैसी भाषाएं दूर होती जाएंगी। कहना न होगा कि अब ऐसा ही होता दिख रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि इस बदहाल परंपरा पर रोक कैसे लगेगी। या फिर इसमें सकारात्मक बदलाव के लिए इंतजार किया जाता रहा है। सोचना तो हम हिंदी वालों को ही है।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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3 टिप्पणियां:
is baajar waad ne hindi ko bhi baajaru bana diya hai jiska jaisa man karta hai waise iska istemaal kar leta hai.hindi ki shudhta ka to kisi ko koi dhyan hi nahi hai,
एक वरिष्ठ कवि ने कहा है, - जिस तरह तो बोलता है उस तरह तू लिख...और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख......
आज की नई पौध का जब बाज़ार से साक्षात्कार हुआ तो वह इन्टरनेट, मोबाइल के संग था...टीवी को भी इसी श्रेणी में रखे तो व्याकरण के हिसाब से वाक्य विन्यास को वह भूलता गया और लोकशुध की परम्परा को आगे बढ़ाने में हर कोई लगा रहा.
खैर, आपका सवाल और चिंता दोनों ही वाजिब है...लेकिन नई पौध इस से कितना सरोकार रखेगी...
परिवर्तन की बयार तो बहेगी
चाहे अच्छे से बुरे की ओर
या बुरे से अच्छे की ओर
नहीं तो हो जायेंगे सब बोर
इस पर नहीं किसी का जोर।
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