रविवार, 6 अप्रैल 2008

तो आप किस घराने के पत्रकार हैं?

संजय तिवारी का ये लेख पत्रकारिता जगत के लिए काफी मौजूं है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर ये लेख लिखा है। मीडिया की मौजूदा प्रवृत्तियों को रूपायित करने वाला ये लेख साभार यहां साया किया जा रहा है।

इस देश में पत्रकारिता जिस ऊंचाई से शुरू हुई थी वह बहुत गौरवशाली है. इसे आप संयोग भी कह सकते हैं और नियति भी कि ब्रिटिशों से आजादी के संघर्ष के दौरान भारत में पत्रकारिता की शुरूआत होती है. इसलिए यहां पत्रकारिता हमेशा सत्ता प्रतिष्ठान के आलोचक की भूमिका में ही रही है. आज जो पत्रकारिता के पुराने घराने दिखाई देते हैं उनकी भी शुरूआत ऐसी ही रही है और एक से एक श्रेष्ठ लोगों ने इसकी आधारशिला रखने में अपनी आहुति दी है.

मसलन हिन्दुस्तान साप्ताहिक के एक संपादक का किस्सा है 50-55 के आसपास का. कहते हैं जब कोई लेखक उनसे मिलने आता था तो वे उसे दफ्तर की चाय पिलाकर छुट्टी नहीं पा लेते थे. वे उसे लेकर बाजार जाते और पूरी आवभगत करते थे. एक बार किसी ने उनसे पूछा कि सर जब दफ्तर में सारी सुविधा है फिर आप लेखकों के ऊपर बाहर जाकर पैसा क्यों खर्च करते हैं? उन्होंने जवाब दिया था कि ये लेखक ही हमारी पूंजी हैं. ये जैसा लिखेंगे वैसी ही पत्रिका चलेगी.

लेकिन आज संपादकों की उन्हीं घरानों में क्या भूमिका है? घराने सबसे पहले एक संपादक पकड़ते हैं और उसे इतना पैसा देते हैं कि वह बेखटके अपने से नीचे के लोगों का शोषण कर सके. अब संपादक की काबिलियत यह नहीं होती कि खबर को कैसे ट्रीट करता है बल्कि उसकी काबिलियत का पैमाना यह है कि वह खबर और खबरची दोनों को कैसे पीटता है. कैसे एक रीढ़युक्त इंसान को रीढ़वीहिन पत्रकार में तब्दील कर देता है. हो सकता है उसे पता हो कि वह गलत कर रहा है लेकिन उसे यह सब करना पड़ता है क्योंकि इसी काम के लिए उसे पैसे दिये जाते हैं. पत्रकार भी अब संपादक के सिपहसालार नहीं होते बल्कि घराने के पत्रकार हो गये हैं. अब संपादक नहीं बल्कि घराना तय करता है कि आपको कैसी पत्रकारिता करनी है. फिर वह चाहे बिड़ला घराना हो या फिर समीर जैन का. जो नये घराने पैदा हो रहे हैं उनकी दशा अगर इस मामले में ठीक है कि अपने कर्मचारियों (मैं उन्हें पत्रकार कहने से हिचक रहा हूं) को अच्छा पैसा देते हैं तो उनकी अस्मिता को जमकर लूटते भी है.

और देखते ही देखते घराना पत्रकारिता का जन्म हो जाता है जो आम आदमी के लिए नहीं कारपोरेट घरानों और सरकारों का भोंपू बन जाता है. खबर खोजने वाला पत्रकार या तो खबर पैदा करने लगता है या फिर आफिस तक चलकर आयी प्रेस विज्ञप्तियों को खबर बनाकर छाप देता है. कहने की जरूरत नहीं कि कंपनियों ने देखा कि अगर ऐसा ही होता है तो उन्होंने सुंदर लड़कियों को इस काम पर लगा दिया जो अखबार-टीवी के दफ्तरों में घूमकर खबर बांटती हैं. और उनकी खबरें छपती भी हैं. ऐसे तो पत्रकार स्वयंभू तानाशाह होता है लेकिन घराने के अहाते में आते ही तनखहिया नौकर की तरह व्यवहार करने लगता है.

आज देश में आठ-दस बड़े घराने हैं जिनके पास पत्रकारिता का ठेका रखा हुआ है. इसमें दो सबसे बड़े घराने हैं जो आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं वे हैं टाईम्स घराना और हिन्दुस्तान टाईम्स घराना. (क्योंकि मैं सिर्फ हिन्दी पत्रकारिता के संदर्भ में बात कर रहा हूं इसलिए हिन्दू वगैरह की बात नहीं करता.) अगर कोई पत्रकार इन दो घरानों के पेरोल पर है तो वह पत्रकार हो जाता है. और अपने अलावा किसी और को पत्रकार नहीं मानता.

उसका यह श्रेष्ठताबोध अनावश्यक नहीं है. गोपाल कहता है कि ऐसे पत्रकारों को पत्रकार का संबोधन देने की बजाय बिड़ला जी के पत्रकार या फिर समीर जैन के पत्रकार कहना चाहिए. दुर्भाग्य से मुक्त पत्रकारों की आज भी पत्रकार बिरादरी में कोई खास इज्जत नहीं होती. जबकि होना चाहिए उल्टा. मुक्त पत्रकार ही असल में ज्यादा प्रोफेशनल होकर काम कर सकता है. वह नहीं कर पाता इसके कारण दूसरे हैं. लेकिन मेरा मानना है कि उसे घराना पत्रकारों से हर हाल में ज्यादा सम्मान मिलना चाहिए. लेकिन घराना पत्रकार ऐसा नहीं होने देता.

फिर यहां से शोषण की जिस श्रृंखला की शुरूआत होती है उसकी चोट न केवल पत्रकारों पर पड़ती है बल्कि भाषा भी नष्ट होती है और समाज का स्थाई अहित होता है. घराना पत्रकारिता से मुक्ति कैसे मिले इसके लिए पूरे समाज को बहुत काम करने की जरूरत है. अन्यथा तो ये घराने और घराने के पत्रकार दोनों ही समाज को कंपनियों का गुलाम बनाकर छोड़ेंगे.

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

पत्र्कारिता पर बेबाक और यथार्थ टिप्‍पणी पर बधाई. आजकल संपादक होते कहां हें. या तो मालिक स्‍वयं ही संपादक का तमगा अपने सीने पर जड़ लेते हैं अथवा किसी ऐसे व्‍यक्ति को रखलेते हें, जो पञकार भले ही न हो, लेकिन प्रशासक कुशल होना चाहिए. जहां तक पञकारों का सवाल है, अब पञकार नहीं लाइजनिंग के लिए स्‍मार्ट युवा रखे जाते हैं, ताकि घरानों के हित साधन कर सके. बेबाक लेख के लिए पुनः बधाई.

Unknown ने कहा…

लगता है संजय जी अब राजनीति की तरह पत्रकारिता मे भी घरानेबाजी को प्रमुखता दी जानी लगी है . बहुत बढ़िया आलेख कलई खोलने वाला आभार