उमेश चतुर्वेदी
देशभर में महंगाई अपने पूरे उफान पर है। चावल, दाल, आटा, तेल और सब्जियां..सबकी कीमतें आसमान छू रही हैं। इस महंगाई ने लोगों की जिंदगी की गाड़ी को धीमी कर दिया है। खासतौर पर कम आयवर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोगों का घरेलू बजट गड़बड़ा गया है। इस पर कहां तक प्रभावी रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार कमर कसती, वह प्रकारांतर से लोगों को समझाने में जुट गई है कि भाई, ये हिंदुस्तान है-यहां महंगाई कम है। इसमें मददगार बन रहे गुलाबी पन्नों वाले आर्थिक अखबार। ऐसे ही एक अखबार ने एक दिन लिखा कि थाईलैंड और यूक्रेन में तो गेहूं 15 रूपए किलो की दर से मिल रहा है। जाहिर है वहां की तुलना में आपको यानी भारतीयों को कम कीमत पर आटा मिल रहा है। उसी अखबार ने ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों का हवाला देकर लिखा कि वहां चावल की कीमत देसी चावल से ज्यादा है। अखबार ने लगे हाथ ये भी चेतावनी दे दी कि बासमती के निर्यात रोकने से भारत को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा।
यानी अब मीडिया का काम भी सरकारी भोंपू की तरह प्रचार करना रह गया है। जेम्स हिक्की की वह परंपरा मीडिया भूलता जा रहा है – जिसके लिए सरकारी प्रचार से कहीं ज्यादा अहम थी आम लोगों की जिंदगी , उनकी सहूलियतें ....
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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