मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों का योगदान-3

उमेश चतुर्वेदी
सन 1828 में हिंदी पर लंदन से एक बेहद अहम पुस्तक ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्ट्रक्चर ऑफ द हिंदुस्तानी टंग एंड जेनरल लैंग्वेज प्रकाशित हुई। जिसके लेखक अंग्रेज विद्वान ऑर्नॉल्ड थे। उनकी इस परंपरा को फोर्ब्र्स नामक अंग्रेज विद्वान ने आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदी मैनुअल तैयार किया। जो 1845 में लंदन में प्रकाशित हुआ। अंग्रेज सरकार को दो विद्रोही अधिकारियों फ्रेडरिक जॉनशोर तथा फ्रेडरिक पिस्ट को भी झेलना पड़ा। पहले ने अंग्रेजी को हिंदी या हिंदुस्तानी के मुकाबले कमजोर भाषा बताते हुए अपने अकाट्य तर्क पेश किए, वहीं उन्होंने हिंदी के स्वराघात एवं वैज्ञानिकता की जबर्दस्त प्रशंसा की तो दूसरे ने इस देश की राजभाषा हिंदी को बनाने के लिए जोरदार अभियान चलाया। जॉनशोर की 1837 में प्रकाशित पुस्तक नोट ऑन द इंडियन अफेयर्स पढ़ने के बाद यही लगेगा कि ये शख्स दिल से हिंदुस्तानी था और भूलवश इंगलैंड में पैदा हो गया था। इसके बाद नाम आता है अंग्रेज विद्वान जेम्स रॉबर्ट वैलंटाइन की, जिसने ब्रज और दक्खिनी हिंदी को मिलाकर व्याकरण की एक पुस्तक तैयार की।
यहां अगर एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी लेफ्टिनेंट थॉमस रोषक का जिक्र न किया जाय तो ये चर्चा अधूरी ही रहेगी। उन्होंने सबसे पहले हिंदी की कहावतों और मुहावरों का संग्रह तैयार किया था। जो सन 1824 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। हिंदी की प्रशासनिक शब्दावली का संग्रह एच एस विल्सन ने ग्लॉसरी ऑफ ज्युडिशियल एंड रेवेन्यू टम्र्स नाम से तैयार किया, जो 1855 में लंदन में प्रकाशित हुआ। सही मायने में ये वह काम था- जिससे हिंदी की प्रशासनिक भाषा बनने की नींव मजबूत हुई।
इन सारे विद्वानों की इतनी बड़ी सेवा के बाद एक अंग्रेज अफसर लॉर्ड मैकाले की मिन्ट योजना ने पानी फेर दिया। वैसे अंग्रेजी शासन काल के दौरान ये योजना हिंदी की राह में उतनी बड़ी रूकावट नहीं बनी- जितना 1950 में संविधान लागू होने के बाद बनी। इन विद्वानों के अलावा ग्रिफिथ, कैला और ग्रम के हिंदी के उत्थान संबंधी प्रयासों को नकारना कृतघ्नता होगी। इन लोगों की कोशिशों के साथ ही अंग्रेज अधिकारी जॉन अब्राहम ग्रियर्सन का नाम सदा याद रखा जाएगा। उन्होंने ही उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल एशियाटिक सोसायटी के बैनर तले भारतीय भाषाओं का भाषा वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया- जो आज तक हिंदी और भारतीय भाषाओं को सर्वेक्षण का मानक आधार बना हुआ है। लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया नाम से प्रकाशित इस सर्वे में भारत की 1533 बोलियों और भाषाओं का सर्वे आज भारतीय भाषा इतिहास की धरोहर बन गया है। ग्रियर्सन ने मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तानी के नाम से हिंदी साहित्य का इतिहास भी लिखा है।

1 टिप्पणी:

अनुनाद सिंह ने कहा…

आपने सही जानकारी दी है। हिन्दी ही नहीं, संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के विकास में भी विदेशी विद्वानों का बहुत योगदान है।

किन्तु यह किसी भी तरह से अस्वभाविक या आश्चर्यजनक नहीं है। आत्मविस्मृत समाज के साथ ऐसी अनेकों बिडम्बनाये देखीं जा सकती हैं। आपके घर में सोने का कलश गड़ा हो और आपको इसका भान तक न हो, प्राय: देखा जाता है। जब हम गुलाम थे, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय संस्कृति और भाषा की दुर्दशा होना कोई अचम्भे की चीज नहीं है। उस समय यूरोपीय समाज हमसे अनेकों मामलों में बहुत आगे था । इसी लिये वे हमारी थाती को देख पाये , और हमें भी उसका दर्शन कराया।

आपने काफी अच्छा विषय चुना, इसके लिये साधुवाद! लिखते रहिये।