उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के हालिया विधानसभा चुनाव में एक बड़ी पार्टी के बड़े नेता को भी जिम्मेदारी दी गई थी। अपनी पार्टी के प्रचार में उन्होंने गुजरात के जिले-जिले का दौरा किया था। इस दौरान उन्हें जो अनुभव हुआ- वह चौंकाने वाला था। उन्होंने हैरतभरे लहजे में बताया कि हर जिले में उनकी प्रेस कांफ्रेंस को कवर करने के लिए भारी संख्या में पत्रकार आते थे। उन्हें गौर से सुना भी जाता था, सवाल-जवाब भी खूब होते। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस खत्म होने के बाद उनसे घुमा - फिराकर सवाल पूछा जाता, उनके अखबार या फिर पत्रिका को वे कितनी रकम देंगे। दिल्ली में अपना अधिकांश वक्त बड़े पत्रकारों और समाचार पत्रों के मालिकों के साथ गुजारने वाले एक बड़ी पार्टी के प्रवक्ता के लिए पत्रकारों द्वारा पैसा मांगे जाने का ये अनुभव पहला था। मजे की बात ये है कि पूरे गुजरात में उनसे ऐसे सवाल किए गए- ऐसी अपेक्षाएं पाली गईं। ये बात और है कि उन्होंने किसी को पैसा नहीं दिया। दिल्ली लौटकर ये अनुभव साझा करते वक्त भी उनका आश्चर्य कम नहीं हुआ था। उन्हें लगा कि ऐसा पहली बार हुआ। ये बताते वक्त वे ये भी बताना नहीं भूले कि जब उन्होंने इसके लिए तहकीकात किया तो पता चला कि हर पत्रकार का अखबारों ने लक्ष्य तय कर दिया था। कई बार ये भी हुआ था कि अखबार ने अपनी जिला यूनिट को भी टारगेट दिया था।
उस पार्टी प्रवक्ता के लिए ये भले ही पहला अनुभव हो – लेकिन ये खेल बहुत पहले से चल रहा है। पत्रकारिता की दुनिया में आने वाले शावक पत्रकारों को पहले ही समझा दिया जाता था कि चुनाव अखबारों के लिए उत्सव के समान होते हैं। लेकिन ये बातें सिर्फ कंटेंट के स्तर पर होती थीं। तब अखबारों में होड़ रहती थी कि कौन कितनी ज्यादा कवरेज करता है। पत्रकारों की कोशिश रहती थी कि वे ये साबित कर सकें कि जनता की नब्ज उन्होंने सबसे गहराई से पकड़ा। लेकिन उदारीकरण की हवा में अब ये सब अब बीते दिनों की बातें होती जा रही हैं। ऐसा नहीं कि चुनाव में पहली बार पैसा खाने की बात सामने आ रही है। पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन कम से कम सीधे-सीधे पैसे मांगने की हिम्मत विरले पत्रकार ही करते रहे हैं। वैसे दिल्ली की 1998 के विधानसभा चुनाव में एक बड़े नेता से एक पत्रकार ने सीधे-सीधे पैसे मांगने की जुर्रत की थी। जिसकी शिकायत उस बड़े नेता ने उस पत्रकार के दफ्तर को कर दी थी। पत्रकारिता जगत में ये चर्चा तब छाई रही थी। लेकिन तब भी ये चलन नहीं बन पाया था। लेकिन अब ये संस्थानिक दर्जा हासिल कर चुका है।
हिंदी में पहली बार मध्य भारत के एक अखबार ने 1999 के आम चुनाव से शुरू किया था। उसने अपनी सभी यूनिटों के लिए उसकी क्षमता के मुताबिक लक्ष्य तय कर दिया था। उम्मीदवारों के बारे में खबरें छापने के लिए उनकी यूनिटों ने पैसे तय कर दिए थे। तब उस अखबार के इलाके में इसकी आलोचना हुई थी। तब अखबार की दलील थी कि जब चुनाव लड़ने वाले नेता से पत्रकार पैसे खाने की कोशिश करते हैं तो अखबार ही सीधे-सीधे क्यों न पैसे लें। तब इस चलन पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले अखबार भी देर-सवेर नैतिकता के इस उहापोह से निकल गए। 2004 के आम चुनावों और 2003 के विधानसभा चुनावों में इस प्रवृत्ति को कुछ – एक बड़े अखबारों को छोड़कर – संस्थानिक दर्जा मिलने लगा था। पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी अखबारों ने ऐसा किया।
ऐसा नहीं कि पहले पैसे लेकर खबरें नहीं प्रकाशित की जाती थीं। लेकिन तब अखबार या पत्रिका पत्रकारिता के नैतिक दबावों के चलते कहीं कोने में ये जरूर छाप देते थे – ये एडवर्टोरियल है। लेकिन उदारीकरण की आंधी में एडवर्टोरियल लिखने- बताने का नैतिक दबाव भी नहीं रहा। इसके लिए अब तो बाकायदा विज्ञापन के तौर पर पैसे कमाने वाली यूनिटों को बाकायदा कमीशन भी देते हैं। ये जानकारी लेनी है तो इन अखबारों के दफ्तरों में काम करने वाले पत्रकारों से संपर्क किया जा सकता है।
मीडिया का काम सही खबरें लोगों तक पहुंचाना है। सही मायने में न्यूज बिजनेस की जो अवधारणा है – उसमें मौजूदा चलन की कोई जगह नहीं है। सवाल ये उठता है कि जब अपने लक्ष्य के मुताबिक पैसा जुटाने के लिए पत्रकार पर दबाव होगा तो वह कैसे निष्पक्ष खबरें दे पाएगा। इसका जवाब देर-सवेर प्रिंट मीडिया को ही ढूंढ़ना होगा। आजकल एक चलन ने जोर पकड़ लिया है – टेलीविजन पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा करना। लेकिन प्रिंट माध्यम में ये जो बदलाव आता जा रहा है – उस पर विचार करने की जहमत नहीं उठाई जा रही। माना टेलीविजन चैनल पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं – लेकिन प्रिंट माध्यमों की इस पत्रकारिता को सही कैसे ठहराया जाएगा। इस सवाल का जवाब फिलहाल उस राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी ढूंढ़ रहे हैं। लेकिन अभी तक उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ पाया है।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
शनिवार, 26 जनवरी 2008
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4 टिप्पणियां:
बिल्कुल. केवल टीवी पर ही बहस क्यों हो?
भाई। बीमारी तो पैसा दे कर खबर में रहने वालों ने ही फैलाई है। फिर भी पत्रकारिता ऐसा पेशा है जिसे कर्तव्य की तरह लेने वाले सदैव बने रहेंगे।
these days journalism is debus her pathway sotaht if want realy to somthing for media and socaity then begun yourself because of that nobody can help you so that you satrt youself......... ultmetly i would like to say that i very sorry for this suggatoin becose my hight is too little in sphere of media...........
जरुरत है कि टेलीविजन के साथ साथ अखबार भी अपनी नब्ज टटोलें... और व्यावसायिकता के आवरण से बाहर आकर विशुद्ध पत्रकारिता करें.... तभी मीडिया की गरिमा बरकरार रह पायेगी।
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