उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में जब सांस्कृतिक पत्रिकाओं की मौत हो रही थी, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं के दिन लदने लगे थे, हिंदीभाषी इलाके की बौद्धिक और राजनीतिक धड़कन रह चुकी पत्रिका दिनमान के दम भी उखड़ने लगे थे, उन्हीं दिनों हंस को पुनर्जीवित करने का माद्दा दिखाना ही अपने आप में बड़ी बात थी। लेकिन कथा सम्राट प्रेमचंद का यह बिरवा भले ही पचास के दशक में सूख गया था, उसे फिर से अपनी उम्मीदों के जरिए खाद-पानी देकर ना सिर्फ जिंदा करना, बल्कि उसमें कोंपले निकालना राजेंद्र यादव के जीवट की ही बात थी। 1986 में पुनर्जीवित हुआ हंस अब पच्चीस साल का हो गया है और हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक धड़कनों के प्रतीक के तौर पर राज कर रहा है। जिस समय आप ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब सभागार में हंस के पुनर्जन्म की पच्चीसवीं सालगिरह की तैयारियां अपने चरम पर होंगी। नई कहानी आंदोलन के जरिए हिंदी कहानी के केंद्र में स्थापित हो चुके राजेंद्र यादव को हंस के बाद पैदा हुई साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्कारों वाली पीढ़ियां उनके विमर्शों के लिए कहीं ज्यादा जानेगी, बनिस्बत उनके कथा लेखन के लिए। राजेंद्र यादव भी मानते हैं कि हंस के संपादन के साथ ही उनका कथा लेखन कहीं पीछे छूट गया। लेकिन उन्हें इसका गम इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जो साहित्य की दुनिया में हस्तक्षेप के लिए हंस का जो बिरवा लगाया था, जरूरी विमर्शों के जरिए उसने ना सिर्फ रचनात्मक हस्तक्षेप किया है, बल्कि हिंदी के वैचारिक धरातल को जरूरी आधार भी मुहैया कराया है। हर महीने संपादकीय के तौर पर छपने वाला उनका स्तंभ मेरी-तेरी उसकी बात की हिंदी क्षेत्र में अगर प्रतीक्षा की जाती है तो इसीलिए कि उसमें हर बार कुछ नया, कुछ ज्यादा बौद्धिक उत्तेजक और खास होता है। कथाकार राजेंद्र यादव की कलम के इस नवोन्मेष ने उन्हें साहित्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है। इस एक स्तंभ ने उन्हें बौद्धिक लोकप्रियता तो दिलाई ही, इसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। कई बार उनके विवादित विचारों ने राजनीतिक बवंडर भी खड़ा किया। लेकिन राजेंद्र यादव अपनी बात पर टिके रहे।
राजेंद्र यादव की एक खासियत यह है कि आप उनसे भले ही असहमत हों, लेकिन विमर्श में वे आपके विचारों को भी स्पेस देने का लोकतांत्रिक माद्दा रखते हैं। हंस की सालगिरह पर होने वाले एक कार्यक्रम में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर के संपादक रहे शेषाद्रि चारी को भी बोलने के लिए बुलाया था। हंस की चौबीसवीं साल गिरह के कार्यक्रम में कथाकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय को बुलाया था। तब विभूति नारायण राय हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर विवादित बयान देकर अलोकप्रिय हो चुके थे। हंस के मंच पर इसके लिए उनका जोरदार विरोध हुआ। राजेंद्र यादव ने उस वक्त के छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को भी बुलाया था। तब विमर्श का विषय था – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। तब सलवा जुडूम के समर्थन के लिए विश्व रंजन का विरोध होना तय था। लेकिन विश्वरंजन नहीं आए। अकेले विभूति नारायण राय को ही लानत-मलामत झेलनी पड़ी। लानत-मलामत करने वाले वही लोग थे, जिनके विचारों की झलक राजेंद्र यादव के लेखन में भी दिखती है और जिसके समर्थक राजेंद्र यादव भी हैं। लेकिन इस विरोध प्रदर्शन से राजेंद्र यादव दुखी थे। उन्होंने कहा भी कि लोकतांत्रिक समाज में सक्रिय संवाद की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए, चाहे वह संवाद विरोधी विचार से ही क्यों न हो।
हंस में प्रकाशित कहानियों की चर्चा के बिना ये लेख अधूरा ही रहेगा। हंस ने सृंजय जैसे कथाकार की कहानी कामरेड का कोट छापकर जैसे हिंदी साहित्य में नया भूचाल ही ला दिया था। उदय प्रकाश की कहानी और अंत में प्रार्थना तो जैसे बदलते दौर का दस्तावेज ही है। इस कहानी को भी पाठकों की कचहरी में लाने का श्रेय हंस को ही जाता है। उदय प्रकाश की ही कहानी पीली छतरी वाली लड़कियां और मोहनदास- जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला- भी हंस ने ही प्रकाशित किया। गीतांजलिश्री, लवलीन, महेश कटारे, प्रियंवद, सारा रॉय जैसे ढेरों कहानीकारों की उद्वेलित करती कहानियों से हिंदी पाठकों को परिचित कराने का जरिया हंस ही बना। साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता विरोधी माहौल में हंस ने हिंदी पाठकों को संस्कारित करने और उनकी जरूरतें पूरी करने का भी बड़ा काम किया है। आर्थिक और राजनीतिक झंझावातों को झेलने के बावजूद अगर हंस जिंदा है तो उसके लिए राजेंद्र यादव की जीजिविषा ही बड़ी वजह है।
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शनिवार, 30 जुलाई 2011
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