उमेश चतुर्वेदी
हिंदी का विकास किसने किया है, इसे लेकर विवाद रहा है। विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ा रहे विद्वानों को इस बात का गुमान है कि आज जो हिंदी गढ़ी और बनाई जा रही है, उसके पीछे उनका ही योगदान है। पढ़ाने के अलावा राजनीति की दुनिया में रमते रहे अधिसंख्य हिंदी अध्यापकों का यह गुमान अध्यापक रहे नामवर सिंह ने ही तो़ड़ दिया है। दिलचस्प बात यह है कि नामवर सिंह अपने समूचे सक्रिय और कार्यशील जीवन में प्रमुखत: अध्यापक ही रहे हैं। भोपाल के पत्रकार अजित वरनेकर की किताब ‘शब्दों का सफर’ के लोकार्पण और उस पर हिंदी के महत्वपूर्ण प्रकाशक राजकमल प्रकाशन की ओर से एक लाख का पुरस्कार अजित को देते वक्त नामवर सिंह ने जो कहा, उसे अध्यापकों को नोट कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिंदी को अध्यापकों ने नहीं, पत्रकारों ने गढ़ा है। इसके लिए हिंदी के सबसे पहले प्रतापी संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू बालमुकुंद गुप्त के बीच अनस्थिर शब्द को लेकर मचे बवाल का उल्लेख करते हुए नामवर सिंह ने जब यह स्थापना रखी तो उस समारोह में हिंदी पढ़ाने वाले ढेर सारे अध्यापक मौजूद थे। लेकिन उनके चेहरे पर स्यापा छा गया। अगर यह कथन नामवर सिंह की जगह किसी पत्रकार की जुबान से निकला होता तो विश्वविद्यालय के धुरंधर लोग उस पत्रकार का मजाक ही उड़ाते, चाहे वह पत्रकार कितना ही मूर्धन्य क्यों न रहा हो। लेकिन उनका दुर्भाग्य यह कि उनका पाला किसी पत्रकार से नहीं, हिंदी के ठेठ अध्यापक से पड़ा था। नामवर सिंह कितने सही है, इसका अंदाज इन पंक्तियों के लेखक को गाहे-बगाहे होता रहा है। हाल ही में दिल्ली के एक महाविद्यालय में न्यू मीडिया को लेकर एक गोष्ठी हुई। उदारीकरण के दौर में स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम शुरू करने की इजाजत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को दे रखी है। इसका फायदा उठाते हुए तमाम कॉलेजों ने अपने यहां पत्रकारिता का पाठ्यक्रम शुरू कर रखा है। हिंदी या अंग्रेजी विभागों के अधीन यह कोर्स चल रहा है। ये अध्यापक अब अपने को पत्रकारिता का अध्येता भी समझ बैठे हैं। उन्हें लगता है कि बाल मुकुंद गुप्त से लेकर अज्ञेय तक ही हिंदी में पत्रकारिता हुई है। प्रभाष जोशी तक तो उन्हें पता है। लेकिन उसके बाद राहुल देव, प्रणय राय, अच्युतानंद मिश्र. जैसे नाम तो इन विभाग प्रमुखों तक को पता नहीं है। हिंदी में सक्रिय नव पत्रकारों की बात तो इनके लिए बेमानी है। उनके लिए भाषा अब भी महादेवी वर्मा और अज्ञेय तक ही लटकी हुई है। उसके आगे भी हिंदी ने कुछ विकास किया है, उन्हें इसे जानने की जरूरत ही नहीं है। हिंदी की समकालीन पत्रकारिता की बात कौन कहे, समकालीन लेखन तक की तमीज नहीं है। ऐसे में उनसे भाषा के विकास की उम्मीद करना ही बेमानी है। न्यू मीडिया की गोष्ठी में भी अध्यापक गणों की चर्चा में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाल मुकुंद गुप्त या अध्यापक पूर्ण सिंह ही मौजूद थे। न्यू मीडिया यानी इंटरनेट क्या है , उसकी दुनिया कैसे बदल रही है, तकनीक भाषा के साथ कैसा खिलवाड़ कर रही है और उसके दबाव में भाषा कैसे बदल रही है, इसकी जानकारी शायद ही किसी अध्यापक को थी। जाहिर है कि वे अध्यापक सिर्फ जुगाली कर रहे थे और अपने परिचितों को बुलाकर इस जुगाली का आर्थिक और कथित ज्ञानाश्रयी फायदा उठा-लुटा रहे थे। ऐसे में पाठकगण अंदाज लगा सकते हैं कि विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ा रहे अध्यापक गण हिंदी का कितना विकास कर रहे हैं।
अब आते हैं नामवर सिंह की बात पर...हिंदी गद्य को गद्यपर्व निश्चित तौर पर महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे धुरंधर पत्रकारों ने ही बनाया। लेकिन हम मुंशी सदासुख लाल और लल्लू लाल जैसे अध्यापकों को कैसे भूल सकते हैं। अंग्रेज अधिकारियों को भारतीय भाषाओं की ट्रेनिंग देने के लिए स्थापित कोलकाता के फोर्ट बिलियम कॉलेज में हिंदी पढ़ाने वाले इन अध्यापकों ने हिंदी के विकास के लिए ही सुख सागर और प्रेम सागर जैसे ग्रंथ लिखे। जिनका प्रचार इतना हुआ कि उन्हें घर-घर में धार्मिक ग्रंथों की तरह रखा जाने लगा। यानी जरूरत पड़ी तो अध्यापकों ने भी हिंदी के विकास यज्ञ में हिस्सा बंटाया है। यह बात और है कि आज के ज्यादातर हिंदी अध्यापकों को सिर्फ विश्वविद्यालयी राजनीति से मतलब है। हिंदी पढ़ाने की बजाय उन्हें उसकी जुगाली ही पसंद है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि आज के हिंदी पत्रकार सिर्फ हिंदी को गढ़ ही रहे हैं। हिंदी के साथ जितना अनाचार नव हिंदी पत्रकार कर रहे हैं, वह भी क्षमा के काबिल नहीं है।
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4 टिप्पणियां:
आपने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है.. ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है."वे जो सर कहाते है/धड़ भर है/उनके शोध छात्राओ से पूछ देखो".. तो जो धड़ भर है उनसे आप कितनी और कैसी आशा रखेंगे..लेकिन ठहरिये.. यह दौर ऐसा ही है,जिसमे जो जिसकी जिम्मेदारी उठाने वाला है, वही उसे तबाह कर रहा है.. आप पत्रकारिता को ही ले.. नीरा राडिया के टेपो के बाद क्या आप बड़े नामो को पत्रकार ही मानेंगे, दलाल नहीं.. तो यह स्खलन चारो ओर हुवा है..
आपने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है.. ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है."वे जो सर कहाते है/धड़ भर है/उनके शोध छात्राओ से पूछ देखो".. तो जो धड़ भर है उनसे आप कितनी और कैसी आशा रखेंगे..लेकिन ठहरिये.. यह दौर ऐसा ही है,जिसमे जो जिसकी जिम्मेदारी उठाने वाला है, वही उसे तबाह कर रहा है.. आप पत्रकारिता को ही ले.. नीरा राडिया के टेपो के बाद क्या आप बड़े नामो को पत्रकार ही मानेंगे, दलाल नहीं.. तो यह स्खलन चारो ओर हुवा है..
jo log hindi ki kamai khate hai wahi hindi ka sammaan nahi karte to kisi aur se kya umeed ki ja sakti hai.
hindi ki kamai khane waale hi agar hindi ke baare me nahi sochte to kisi aur se kya umeed ki ja sakti hai?
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