उमेश चतुर्वेदी
ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे शिशु माध्यम और उसके कर्ताधर्ताओं के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। अपनी भड़ास निकालने का अब तक अहम जरिया माने जाते रहे ब्लॉगिंग की दुनिया सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कितना मर्यादित होगी या उस पर बंदिशों का दौर शुरू हो सकता है - सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की ओर से आया है, लिहाजा इस पर सवाल नहीं उठ रहे हैं।
इस लेख का मकसद इस फैसले की मीमांसा करना नहीं है - लेकिन इसके बहाने उठ रहे कुछ सवालों से दो-चार होना जरूर है। इन सवालों से रूबरू होने से पहले हमें आज के दौर के मीडिया की कार्यशैली और उन पर निगाह डाल लेनी चाहिए। उदारीकरण की भले ही हवा निकलती नजर आ रही है – लेकिन ये भी सच है कि आज मीडिया के सभी प्रमुख माध्यम – अखबार, टीवी और रेडियो बाजार की संस्कृति में पूरी तरह ढल चुके हैं। बाजार के दबाव में रणनीति के तहत सिर्फ आर्थिक मुनाफे के लिए पत्रकारिता को आज सुसभ्य और सुसंस्कृत भाषा में कारपोरेटीकरण कहा जा रहा है। यानी कारपोरेट शब्द ने बाजारीकरण के दबावों के बीच किए जा रहे कामों को एक वैधानिक दर्जा दे दिया है। जाहिर है – इस संस्कृति में उतना ही सच, आम लोगों के उतने ही दर्द और परेशानियां सामने आ पाती हैं, जितना बाजार चाहता है। भारत में दो घटनाओं को इससे बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी से लगातार बच्चे गायब होते रहे – लेकिन कारपोरेट मीडिया के लिए ये बड़ी खबर नहीं बने। लेकिन उसी नोएडा के एक पॉश इलाके से नवंबर 2006 में एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी एडॉबी इंडिया के सीईओ नरेश गुप्ता के बच्चे अंकित का अपहरण कर लिया गया तो ये मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर बन गई। इसके ठीक दो साल बाद मुंबई में ताज होटल पर जब आतंकियों ने हमला कर दिया तो उस घटना के साथ भी मीडिया ने कुछ वैसा ही सलूक किया – जैसा अंकित गुप्ता अपहरण के साथ हुआ। जबकि ऐसी आतंकी घटनाएं उत्तर पूर्व और कश्मीर घाटी में रोज घट रही हैं। नक्सलियों के हाथों बीसियों लोग रोजाना मारे जा रहे हैं। लेकिन इन घटनाओं के साथ मीडिया उतना उतावलापन नहीं दिखाता – जितना अंकित अपहरण या ताज हमला जैसी घटनाओं को लेकर दिखाता रहा है।
मीडिया के ऐसे कारपोरेटाइजेशन के दौर में कुछ अरसा पहले ब्लॉगिंग नई हवा के झोंके के साथ आया और वर्चुअल दुनिया में छा गया। ब्लॉगिंग पर दरअसल वह दबाव नहीं रहा – जो कारपोरेट मीडिया पर बना रहता है। इसलिए ब्लॉगरों के लिए सच्चाई को सामने लाना आसान रहा। इसके चलते ब्लॉगिंग कितनी ताकतवर हो सकती है – इसका अंदाजा तकनीक और आधुनिकता की दुनिया के बादशाह अमेरिका में हाल के राष्ट्रपति चुनावों में देखा गया। ये सच है कि अमेरिकी लोगों को बराक हुसैन ओबामा का बदलावभरा नेतृत्व पसंद तो आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हें लेकर लोगों का मानस सुदृढ़ बनाने में ब्लॉगरों की भूमिका बेहद अहम रही। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के बाद एक सर्वे एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन साठ फीसदी अमेरिकी वोटरों को ओबामा के प्रति राय बनाने में ब्लॉगिंग ने अहम भूमिका निभाई। इस सर्वे एजेंसी के मुताबिक वोटरों का कहना था कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों पर उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि उन दिनों ये सारे प्रमुख माध्यम वही बोल रहे थे, जो ह्वाइट हाउस कह रहा था।
ब्लॉगरों की ताकत इराक और अफगानिस्तान में बुश के हमले की हकीकत दुनिया के सामने लाने में दिखी। आप याद कीजिए उस दौर को – तब इंबेडेड पत्रकारिता की बात जोरशोर से उछाली जा रही थी। क्या अमेरिकी – क्या भारतीय – दोनों मीडिया के दिग्गज इसकी वकालत कर रहे थे। जिन भारतीय अखबारों और चैनलों को अमेरिकी सेनाओं के साथ इंबेडेड होने का मौका मिल गया था – वे अपने को धन्य और इस व्यवस्था को बेहतर बताते नहीं थक रहे थे। सारा लब्बोलुआब ये कि इन हमलों को जायज ठहराने के लिए बुश प्रशासन और अमेरिकी सेना जो भी तर्क दे रही थी – दुनियाभर का कारपोरेट मीडिया इसे हाथोंहाथ ले रहा था। लेकिन अमेरिकी ब्लॉगरों ने हकीकत को बयान करके भूचाल ला दिया। ये ब्लॉगरों की ही देन थी कि बुश कटघरे में खड़े नजर आने लगे। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता गया। और हालत ये हो गई कि 2008 आते –आते जार्ज बुश जूनियर अपने प्रत्याशी को जिताने के भी काबिल नहीं रहे।
भारत में ब्लॉगिंग की शुरूआत भले ही बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर ही हुई – लेकिन उतना ही सच ये भी है कि बाद में ये भड़ास निकालने का माध्यम बन गया। पिछले साल यानी 2008 की शुरुआत और 2007 के आखिरी दिनों में तो आपसी गालीगलौज का भी माध्यम बन गया। हिंदी के दो मशहूर ब्लॉगरों के बीच गालीगलौज आज तक लोगों को याद है। दो हजार छह के शुरूआती दिनों में तो दो-तीन ब्लॉग ऐसे थे – जिन पर पत्रकारिता जगत के बेडरूम की घटनाओं और रिश्तों को आंखोंदेखा हाल की तरह बताया जा रहा था। किस पत्रकार का किस महिला रिपोर्टर से संबंध है – ब्लॉगिंग का ये भी विषय था। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो ये ब्लॉग ही खत्म कर दिए गए।
दरअसल कोई भी माध्यम जब शुरू होता है तो इसे लेकर पहले कौतूहल होता है। फिर उसके बेसिर-पैर वाले इस्तेमाल भी शुरू होते हैं। इस बीच गंभीर प्रयास भी जारी रहते हैं। नदी की धार की तरह माध्यम के विकास की धारा भी चलती रहती है और इसी धारा से तिनके वक्त के साथ दूर होते जाते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के साथ भी यही हो रहा है। आज भाषाओं को बचाने, देशज रूपों के बनाए रखने, स्थानीय संस्कृति की धार को बनाए रखने को लेकर ना जाने कितने ब्लॉग काम कर रहे हैं। तमाम ब्लॉग एग्रीगेटरों के मुताबिक हिंदी में ब्लॉगों की संख्या 10 हजार के आंकड़े को पार कर गई है। इनमें ऐसे भी ढेरों ब्लॉग हैं – जो राजनीतिक से लेकर सामाजिक रूढ़ियों पर चुभती हुई टिप्पणियां करते हैं।
जिस ब्लॉग पर टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है – वह केरल के एक साइंस ग्रेजुएट अजीत का ब्लॉग है। उसने अपनी सोशल साइट पर शिवसेना के खिलाफ एक कम्युनिटी शुरू की थी। इसमें कई लोगों की पोस्ट, चर्चाएं और टिप्पणियां शामिल थीं। इसमें शिवसेना को धर्म के आधार पर देश बांटने वाला बताया गया था। जिसकी शिवसेना ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट में शिकायत की थी। जिसके बाद हाईकोर्ट ने अजीत के खिलाफ नोटिस जारी किया था। अजीत ने सुप्रीम कोर्ट से शिकायत की कि ब्लॉग और सोशल साइट पर की गई टिप्पणी के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता। लेकिन चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी सतशिवम की पीठ ने कहा कि ब्लाग पर कमेंट भेजने वाला जिम्मेदार है,यह कहकर ब्लागर बच नहीं सकता है। यानी किसी मुद्दे पर ब्लाग शुरू करके दूसरों को उस पर मनचाहे और अनाप-शनाप कमेंट पोस्ट करने के लिए बुलाना अब खतरनाक है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनापशनाप लेखन पर रोक तो लगेगी। लेकिन असल सवाल दूसरा है। राजनीति विज्ञान और कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए गए हैं। पहला – संसद या विधानमंडल, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीसरा परंपरा। ये सच है कि जिस तरह ब्लॉगिंग की दुनिया में सरकारी और सियासी उलटबांसियों के परखच्चे उड़ाए जा रहे हैं। उससे सरकार खुश नहीं है। वह ब्लॉगिंग को मर्यादित करने के नाम पर इस पर रोक लगाने का मन काफी पहले से बना चुकी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गलियारों से रह-रहकर छन-छन कर आ रही जानकारियों से साफ है कि सरकार की मंशा क्या है। कहना ना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार को अपनी मुखालफत कर रही वर्चुअल दुनिया की इन आवाजों को बंद करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा। जिसका इस्तेमाल वह देर-सवेर करेगी ही।
मुंबई हमले के दौरान टेलीविजन पर आतंकवादी के फोनो ने पहले से खार खाए बैठी सरकार को अच्छा मौका दे दिया। टेलीविजन चैनलों पर लगाम लगाने के लिए उसने केबल और टेलीविजन नेटवर्क कानून 1995 में नौ संशोधन करने का मन बना चुकी थी। लेकिन टेलीविजन की दुनिया इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई तो सरकार को बदलना पड़ा। लेकिन हैरत ये है कि ब्लॉगरों के लिए अभी तक कोई ऐसा प्रयास होता नहीं दिख रहा।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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8 टिप्पणियां:
बिल्कुल नहीं बैठेगी
सदा खड़ी रहेगी।
जानकारीपूर्ण लेख। शायद समय आ गया है कि ब्लागरों को भी एकजुट होकर अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखने का प्रयास प्रारम्भ कर देना चाहिए।
पवन जगावत आग को दीपही देत बुझाये ...
सिलवट बैठेगी
और क्या
पर याद आता है
पहले भी एक करवट
टिप्पणी बैठाई थी
क्या वो लेट ही गई।
अच्छा विश्लेषण करते हुए लिखा गया है यह लेख ... जानकारी देने का आभार।
बहुत जल्द भारत में भी ब्लॉग, सड़े और बिके हुए उस मीडिया को नंगा करेगा… जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा-संघ और हिन्दू विरोध करना आता है…
aapne uchit likha hai.. aaj blogging aam aadmi ki aawaj hai aur ise swatantra rakha jana chahiye.. jaise matdaan ka adhikar ek maulik adhikar hai waise hi blogging bhi maulik adhikar hona chahiye.. aaj media puri tareeke se bika hua hai aur nitantar bik raha hai... aur hum aam logon ke paas use kareedne ki shakti aur madhyam nahi hai... so hamen blogging ka adhikar bina rok tok milna chahiye...
Mohan Joshi(MoJo)
http://mojowrites.wordpress.com
हम सब आपके साथ हैं(हम एक हैं)
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