यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हो चुका है।
उमेश चतुर्वेदी
हर बीते हुए लमहे की अपनी कुछ उपलब्धियां होती हैं तो कुछ असफलताएं भी होती हैं। जाहिर है दो हजार आठ ने भी कुछ कामयाबियां हासिल कीं तो कुछ नाकामयाबियों से भी उसे रूबरू होना पड़ा है। बीता हुआ जब इतिहास में तब्दील होता है तो उसकी महत्वपूर्ण कामयाबियां और नाकामियां ही आने वाले वक्त को याद रह पाती हैं। इतिहास में दर्ज होते वक्त हर लमहे की कोशिश होती है कि उसकी कामयाबियों की ही चर्चा हो। भारत में अभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भले ही परिपक्वता की उम्र सीमा में नहीं पहुंच पाया है – लेकिन उसकी भी यही कोशिश रही है कि उसकी कामयाबियां ही इतिहास में दर्ज हों। लेकिन साल के आखिरी महीने के ठीक पहले मुंबई में जो कुछ हुआ और उसे लेकर मीडिया का जो रवैया रहा ...वह कम से कम इतिहास में दर्ज होने की सदइच्छाओँ पर भारी पड़ गया। मुंबई में आतंकी हमले के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ---खासकर खबरिया चैनलों की भूमिका इतनी खराब रही कि ना सिर्फ मीडिया के अंदर – बल्कि समाज के दूसरे तबकों से इसके खिलाफ सवाल जमकर उठे। आतंकवादी हमले के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई की पल-पल की रिपोर्टिंग भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मजबूरी रही हो – लेकिन उसे जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से नहीं निभाया गया। पहले से ही सांप-बिच्छू नचाकर टीआरपी बटोरने के खेल के लिए आलोचना का पात्र रहे मीडिया ने कथित आतंकवादी का फोनो चलाकर जैसे खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।
दो हजार आठ का मीडिया परिदृश्य मुंबई में आतंकी घटनाओं की रिपोर्टिंग के दौरान अपनी गैर जिम्मेदारी के लिए जमकर याद किया जाएगा। मानव का स्वभाव है ...वह बाद की घटनाओं को पहले की घटनाओं की बनिस्बत कहीं ज्यादा गहराई से याद करता है। मुंबई के ताज होटल और ट्राइडेंट में आतंकी हमले के ठीक पहले दिल्ली में 13 सितंबर को सीरियल धमाके हुए थे। उस वक्त मीडिया के एक बड़े तबके ने जिम्मेदार रिपोर्टिंग का परिचय दिया था। हालांकि एक – दो प्रमुख चैनलों के कुछ रिपोर्टरों ने एक लड़के को थैला लेकर भागते देखकर टाइम बम की अफवाह फैलाने में भी देर नहीं लगाई थी। हालांकि अफरातफरी के आलम में ऐसी एक – दो घटनाएं हो जाती हैं। लेकिन उस दिन रिपोर्टरों ने घायलों को अस्पताल पहुंचाने में जितना जिम्मेदराना रूख दिखाया था – उसकी आम लोगों ने तारीफ ही की थी। घायलों को परिजनों को जरूरी सहायता को रिपोर्टरों ने रिपोर्टिंग से ज्यादा तवज्जो देकर अपनी जिम्मेदारी का बखूबी परिचय दिया था। ये टेलीविजन रिपोर्टर ही थे – जिन्होंने नीरो की तरह चैन से बांसुरी बजा रहे शिवराज पाटिल के ड्रेस सेंस पर स्टोरियां की। अखबारी रिपोर्टरों से कहीं ज्यादा टीवी रिपोर्टरों के निशाने पर ही पाटिल के सफेद झक्कास – कलफदार सूट रहे। यही वजह है कि मुंबई धमाकों के बाद शिवराज पाटिल को विदा होना पड़ा।
टीवी की जिम्मेदार रिपोर्टिंग के नाम 13 मई के जयपुर और 26 जुलाई के अहमदाबाद धमाके भी रहे। हालांकि आरडीएक्स और साइकिलों के जरिए धमाके को दिखाने के लिए जिस तरह कुछ खबरिया चैनलों के न्यूज रूम में जिस तरह साइकिलें लाई गईं और उनकी घंटियां बजाईं गईं ...उसे लोगों ने पसंद नहीं किया। लेकिन जयपुर की गंगजमुनी संस्कृति को आगे लाने और एक – दूसरे संप्रदायों के लोगों की ओर से शुरू किए गए राहत उपायों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दमदार खबरें दिखाने में आगे रहे। इसका असर भी दिखा। आतंकवादी अपने नापाक मंसूबों में कामयाब नहीं रहे। बम धमाकों के जरिए आतंकी दरअसल देश के प्रमुख संप्रदायों के बीच दरार कायम करने की कोशिश में रहते हैं ताकि लोग आपस में लड़ें और उनकी कोशिशें कामयाब हों।
मुंबई धमाकों की तरह एक और घटना की रिपोर्टिंग में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दे सका। वह घटना रही 15 मई को नोएडा के एक पॉश इलाके में एक डॉक्टर राजेश तलवार की लड़की आरूषि और उनके नौकर हेमराज की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड को लेकर मीडिया ने बिना जांचे-समझे जमकर रिपोर्टिंग की। कई चैनलों ने आरूषि के घर अपनी रिपोर्टिंग टीम को स्थायी तौर पर तैनात कर दी। नोएडा पुलिस ने बिना जांचे-परखे जैसी सूचनाएं उन्हें मुहैय्या कराई – उन्होंने अपने टीवी पर्दे पर साया करने में देर नहीं लगाई। मासूम आरूषि के नौकर हेमराज से शारीरिक संबंध, राजेश तलवार के उसकी सहयोगी एक और डॉक्टर से संबंध जैसी खबरों को पुलिस ने मीडिया को दी और बिना जांचे-परखे छापने में देर नहीं लगाई।
इसका फायदा भी टीवी चैनलों को मिला। जिन दिनों आरूषि की हत्या हुई – उस समय आईपीएल के मैच चल रहे थे। टैम के मुताबिक आईपीएल के मैचों को महज 7.5 प्वाईंट टीआरपी हासिल हुई तो समाचार चैनलों को 9 प्वाईंट टीआरपी मिली। टैम के मुताबिक इस हत्याकाण्ड के कारण सबसे ज्यादा 2 प्वाईंट की टीआरपी बढ़ोत्तरी हिन्दी चैनलों को मिली। टैम के समानांतर चलने वाली रेटिंग एजेंसी एमैप का भी कहना है कि आईपीएल मैचों के बीच भी आरूषि हत्याकाण्ड के कारण टीवी चैनल टीआरपी लपकने में कामयाब रहे। 23 मई को जिस दिन आरुषि के बार राजेश तलवार को हत्या के अंदेशा में गिरफ्तार किया गया उस दिन मोहाली और हैदराबाद के बीच मैच था। लेकिन इस मैच को टीवी पर जितने दर्शक उससे ज्यादा दर्शकों को आरूषि हत्याकाण्ड की बदौलत अपने साथ जोड़कर रखा। उस दौरान आईपीएल को 0.96 टीआरपी मिली तो पांच प्रमुख हिन्दी अंग्रेजी चैनलों को 1.0 प्वाइंट टीआरपी हासिल हुई।
ये सच है कि टीआरपी के लिए काम करना चैनलों की मजबूरी है। लेकिन मुंबई हमले के बाद जिस तरह मीडिया कटघरे में खड़ा हुआ और मीडिया को अपनी आचार संहिता बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके लिए भी बीते साल को याद किया जाएगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले साल में देसी खबरिया चैनल पिछली गलतियां नहीं दुहराएंगे।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
टी आर पि के लिए और करे भी क्या......
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!
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