बुधवार, 24 दिसंबर 2008

मंदी का बहाना है ....


उमेश चतुर्वेदी
कहते हैं दीपक तले अंधेरा होता है। इस कहावत का सबसे बेहतरीन नमूना इन दिनों मीडिया की अपनी खुद की दुनिया है। पीलीवर्दीधारियों (जेट एयरवेज की एयरहोस्टस की वर्दी) की खबर को मनमोहनी अर्थव्यवस्था के मुंह पर बड़ा तमाचा बताने वाले मीडिया वाला खुद पीली वर्दीधारियों की हालत में पहुंच गया है। शायद ही कोई मीडिया हाउस है – जहां मंदी के नाम पर छंटनी की तलवार नहीं चल रही है। लेकिन मीडिया के अंदरूनी दुनिया की कोई खबर नहीं बन रही है।

कहा जा रहा है कि 1929 की भयानक मंदी के बाद ये अब तक की सबसे बड़ी मंदी है। मंदी के उस दौर में खाने तक के लाले पड़ गए थे। लेकिन अभी तक हालात खास नहीं बदले हैं। हां विलासिता की चीजों के बाजार – मसलन ऑटोमोबाइल और रिटेल सेक्टर में कुछ गिरावट जरूर दिख रही है। लेकिन उपभोक्ता बाजार अभी तक कायम है। इसका ही असर है कि टेलीविजन के पर्दे से विज्ञापन गायब नहीं हुए हैं। कुछ यही हालत अखबारों की भी है। वहां भी विज्ञापनों भरे पृष्ठों में कमी नहीं आई है। ये सच है कि मंदी के चलते अखबारी कागजों की कीमतें जरूर बढ़ी हैं। इसकी कीमत में बीस से चालीस फीसद तक की बढ़त देखी जा रही है। ये सच है कि इन बढ़ी कीमतों का अखबारों की अर्थव्यवस्था पर असर जरूर पड़ा है। लेकिन इतना कि लोगों की रोजी-रोटी पर बन आए...उन लोगों की रोजी-रोटी पर ...जिन्होंने खुद इन अखबारों को सजाने – बचाने में खून-पसीना एक किया है ...तकलीफदेह जरूर है। लेकिन छंटनी का बाजार तेज है।

आइए देखते हैं कि अखबारी दुनिया की इस छंटनी की हकीकत क्या है ? बिजनेस स्टैंडर्ड के गुजराती संस्करण, दैनिक जागरण और टीवी 18 के प्रस्तावित गुजराती बिजनेस अखबार और गुजराती बिजनेस भास्कर को छोड़ दें तो हर अखबार में संपादकीय विभाग से गिने-चुने लोगों की ही छंटनी की गई है या की जा रही है। सबसे ज्यादा इस छंटाई प्रक्रिया के शिकार पेजीनेटर बन रहे हैं या बनाए जा रहे हैं। पेजीनेटर यानी कंप्यूटर पर पेज बनाने वाले लोग। तकनीकी तौर पर ये लोग न्यूजरूम में संपादकीय विभाग के कर्मचारी होते हैं। डेस्क टॉप पब्लिशिंग के दौर की शुरूआत के साथ ही पेजीनेटरों के जिम्मे ही अखबारों के पेज बनाने का जिम्मा रहा है। लेकिन अब मंदी के नाम पर ये जिम्मेदारी उपसंपादकों पर डाली जा रही है। उनसे कहा जा रहा है कि अब वे ही पेज बनाएं। अब तक अपने पेज के लिए सामग्री का चयन की उनकी जिम्मेदारी रही है। उसका शीर्षक लगाना और पेज को सजाना उपसंपादकों का प्राथमिक काम रहा है। लेकिन मंदी ने उन पर अब पेज बनाने का बोझ भी डालना शुरू कर दिया है। एक अखबार में तकरीबन सभी पेजीनेटरों को मंदी के नाम पर हटा दिया गया। इससे संपादकीय विभाग में भी हड़कंप मच गया और अखबार निकालने में मुश्किलें आने लगीं। इसका आभास जब मैनेजमेंट को हुआ तो उसने बाकायदा संपादकीय विभाग की बैठक ली और उन्हें ये भरोसा दिलाया कि उनकी नौकरियां सलामत हैं। लेकिन उनसे ये आग्रह जरूर किया गया कि वे पेज बनाने की जिम्मेदारी भी ले लें।
ये पहला मौका नहीं है – जब आर्थिक बदहाली या मंदी के नाम पर अखबारी संस्थानों में छंटनी की गई है। नब्बे के दशक में मनमोहनी अर्थव्यवस्था की ओर भले ही देश बढ़ रहा था – लेकिन तब मीडिया का वैसा विस्तार नहीं हो रहा था। तकनीक बदल रही थी। डीटीपी का जोर बढ़ रहा था। उस दौर में तकनीक में बदलाव के नाम पर अखबारों की दुनिया से तीन पद धीरे-धीरे खत्म किए गए। तब अखबारों में कंपोजिटर का पद भी होता था। हाथ से लिखने के दौर में कंपोजिटर और टाइपिस्ट की दुनिया हुआ करती थी। उनके बिना अखबारी न्यूज रूम की कल्पना नहीं की जा सकती थी। लेकिन आर्थिक बदहाली के दौर में कंपोजिटर और प्रूफरीडर का पद पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। और ये जिम्मेदारी भी आज की तरह उपसंपादकों पर डाल दी गई। ये सच है कि आज ज्यादातर रिपोर्टर अपनी कॉपी कंप्यूटर पर टाइप करके ही भेजते हैं – लेकिन ये भी सच है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में अब भी हाथ से लिखने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। हाथ से लिखी खबरें-टिप्पणियां और लेख...सबकुछ आता है और इन सबको प्रकाशित करने की जिम्मेदारी निभाने वाले उप संपादकों इन्हें टाइप और कंपोज भी करना पड़ता है। इसके साथ ही उन्हें प्रूफ भी पढ़ना पड़ता है।

मैनेजमेंट की दुनिया में इन दिनों एक शब्द जमकर चल रहा है – मल्टीस्किल्ड। यानी एक शख्स को तमाम तरह के काम आने चाहिए। इटली के मशहूर चित्रकार और कवि लियोनार्दो द विंची के बारे में कहा जाता था कि एक ही बार में वे यदि दाहिने हाथ से चित्र बना रहे होते तो वे दूसरे हाथ से कविता भी उतनी ही प्रौढ़ता और गहराई से लिख लेते थे। आज के उपसंपादकों से विंची जैसा ही बनने की उम्मीद की जा रही है। और इसका बहाना बनी है मंदी ...लेकिन मैनेजमेंट ये भूल जाता है कि विंची या विंची जैसा कोई एक या दो ही शख्स होता है। इसका असर कम से कम आम पाठकों को रोजाना अखबारों के पृष्ठों पर दिखता है। जब प्रूफ की गलतियां किसी अच्छी खबर या अच्छे लेख का मजा किरकिरा कर देती हैं।
सवाल ये है कि ये कब तक जारी रहेगा...क्या इसका कोई अंत है ....पीली वर्दीधारियों की चिंताओं को राष्ट्र की चिंता बनाने वालों की ये जायज परेशानियां किसी की चिंता और परेशानी की सबब बनेगी.. जब तक इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए किसी और की ओर पत्रकार समाज देखता रहेगा ...उप संपादक की पीड़ाएं और बोझ बढ़ता रहेगा। मंदी के बहाने चक्की की चाल तेज होती रहेगी।

6 टिप्‍पणियां:

tungnath dubey ने कहा…

पत्रकारों की समस्या या मुश्किलों को उठाने वाला भी एक मंच होना चाहिए..... नहीं तो मंदी के नाम पर प्रबंधन न जाने कितने पत्रकारों को निगल लेगा........

राजकिशोर ने कहा…

बहुत अच्छी टिप्पणी है। उमेश जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। अपना काम करते जाइएं। हमारी पीरा समर्थन है -- भले ही उसका कुछ खास मूल्य न हो।

बेनामी ने कहा…

wah...kya likhe hain Umesh bhaai...dunia bhar ke shoshan ke khilaaf aawaaz uthaane waale patrakaar khud sabse zyada shoshit hain...unka khud ka sabse zyada shoshan ho raha hai..lekin bolne waalaa...saath dene waalaa koi nahin hai...kya kijiyega...sab vaise hee hain

ARVIND KUMAR SINGH ने कहा…

yah sach hai ki mandi ke naam par media hi nahi bakee jagahon par bahut kuch ho raha hai aur lakho longo par talwar latak rahi hai.par jahan tak media ka sawal hai un kai akhbaron ke liye to koi sankat nahi hai jinka rajasva teji se badh raha hai. yah to sakar ko dekhna chahie ki jo malamal hain,kaise mandi ke naam par talwar chala rahe hain.

ARVIND KUMAR SINGH ने कहा…

umesh bahi,is sawal par kalam chalane ke liye badhai.mandi ke naam par kewal patrkaar hi nahi lakhon logon ki bali un pratishthano me chadh rahi hai jo malamal hain. sarkar aur trade union ke log bhi is par maun sadhe hain,yah aur dukh ki baat hai.

Zindgi Live ने कहा…

aapne jo baat uthaiye hai woh ekdam sahi hai. main yaha himachal k newspapers ka jikr krna chaunga jinka munafa mandi main bhi badta ja rha hai. add main koi kami nhi aayi hai or jo target prabandhan ki trf se diya jat hai usse jyadi hi munafa maliko ko diya ja rha hai. iske bawjood bhi prabandhan ne mandi k naam pr kharcho main katauti krne ka aadesh de diya hai. telephone se lekr petrol etc. ki suvidha bhi samapt kr di hai. har jagh hi aise halat utpan ho gaye hai. mandi k naam pr khub munafa batora ja rha hai.