ये कविता हमें प्रियदर्शन ने भेजी है। अंशुल शुक्ला की संग्रहीत या रचित इस कविता में उपसंपादक की पीड़ा का जिक्र है। यही वजह है कि मीडिया मीमांसा पर इस कविता को डाला जा रहा है।
ये मीटिंग ये स्टोरी ये फीचर की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन, क्वार्क की दुनिया
ये डेडलाइन के भूखे, एडिटर की दुनिया
ये पेज अगर बन भी जाए तो क्या है?
यहां एक खिलौना है सब एडिटर की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा रिपोर्टर की बस्ती
यहां पर तो रेजेज से इंन्फ्लेशन ही सस्ती
ये अप्रेजल अगर हो भी जाए तो क्या है ?
हर एक कंप्यूटर घायल, हर एक न्यूज ही बासी
डिजाइनर में उलझन, फोटोग्राफर्स में उदासी
ये ऑफिस है या आलमी मैनेजमेंट की
सर्कुलेशन अगर बढ़ भी जाए तो क्या है ?
जला दो, जला दो इसे, फूंक डालो मॉनीटर
मेरे नाम का हटा दो ये यूजर
तुम्हारा है, तुम्हीं संभालो ये कंप्यूटर
ये पेपर अगर चल भी जाए तो क्या है ?
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
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2 टिप्पणियां:
bahut khub
apan ko itni pasand ayye ki office ke notice board per laga di hai
बहुत अच्छा लिखा है । मजा आ गया !
घुघूती बासूती
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