बुधवार, 20 अगस्त 2008

पार्टनर आपकी बीट क्या है !

उमेश चतुर्वेदी
पत्रकार क्या घटनाओं का साक्षी भर है या फिर उसका काम उसे निर्देशित करना भी है। पत्रकारिता जगत में इस सवाल पर बहस तभी से जारी है – जब पत्रकारिता अपने मौजूदा स्वरूप में उभरकर सामने आई है। दुनिया का पहला पत्रकार संजय को माना जाता है – पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया ने इसे बार-बार पढ़ाया – बताया है। इस आधार पर देखें तो पत्रकार की भूमिका साक्ष्य को को ज्यों का त्यों पेश कर देने से ज्यादा की नहीं है। संजय की महाभारत के युद्ध में कोई भूमिका नहीं थी। उन्होंने युद्ध के मैदान में जो घटनाएं घटते हुए देखा- उसे ज्यों का त्यों महाराज धृतराष्ट्र को सुना दिया। पत्रकारिता की दुनिया में एक बड़ा वर्ग ऐसा रहा है – जिसका मानना है कि पत्रकार का काम घटनाओं को पेश करना भर है। पत्रकारिता की अकादमिक दुनिया में खबरों की वस्तुनिष्ठता की जो चर्चा की जाती है, उसका भी मतलब यह भी है। हिंदी में जो पारंपरिक पत्रकार हैं – जिनकी पीढ़ी आज वरिष्ठता की श्रेणी में है – उसका कम से कम यही मानना है। हिंदी के मशहूर संपादक राजेंद्र माथुर मानते थे कि पत्रकार घटनाओं का साक्षीभर होता है – ये जरूरी नहीं कि घटनाएं उसके ही मुताबिक घटें।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि आज जो रिपोर्टिंग हो रही है – पत्रकारिता के इन मानकों पर कितना खरा उतरती है। ये सभी जानते हैं कि अखबारनवीसी और राजनीति का चोली दामन का साथ है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आखिरी सालों की टेलीविजन पत्रकारिता इसका अपवाद हो सकती है। चैनलों का मानना है कि खबर वही है – जिसे वे दिखाते हैं। यानी भूत-प्रेत और चुड़ैलों की कहानी, यू ट्यूब पर पेश किए जाने वाले हैरतनाक वीडियो। लेकिन अखबारों की खबरों का सबसे बड़ा स्रोत आज भी राजनीति की दुनिया ही है। खबरें चाहें देश की राजधानी के स्तर की हो या गांव की पंचायत के स्तर पर – सियासी उठापटक और दांवपेंच, उससे प्रभावित और उसे फायदेमंद लोगों की दुनिया ही खबरों के केंद्र में है। और हो भी क्यों नहीं – अधिकारियों की ट्रांस्फर-पोस्टिंग से लेकर कोटा-राशन और ठेके तक में सियासत का ही दखल है। किसी की हत्या अगर घरेलू कारणों से भी हो गई तो हत्यारे को पकड़वाने से लेकर उसे छुड़ाने तक की खींचतान में सियासत हावी है। ऐसे पत्रकारिता भला सियासी रंगरूटों से लेकर कर्णधारों तक से कैसे दूर रह सकती है।
अगर पत्रकारिता के पारंपरिक विचारकों की मानें तो इस दुनिया में रहने के बावजूद पत्रकारों को चंदन के पेड़ की ही तरह रहना चाहिए। सांपों के लिपटे रहने के बावजूद वह अपनी शीतलता नहीं खोता। लेकिन प्रलोभनों और खींचतान की इस दुनिया में ऐसा रह पाना इतना आसान है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के शुरूआती सालों में ये सवाल देश के पत्रकारिता सबसे प्रमुख पत्रकारिता संस्थान के छात्रों को मथ रहा था। एक कार्यक्रम की कवरेज सीखने के लिए उन्हें भेजा गया। राजधानी दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में आयोजित इस कार्यक्रम में उन्हें महंगे गिफ्ट दिए गए। कार्यक्रम की कवरेज के बाद लौटे छात्रों का सवाल था कि क्या महंगे गिफ्ट उनकी खबर सूंघने की वस्तुनिष्ठता पर सवाल नहीं खड़े करती ! और हर जगह जारी इस गिफ्ट संस्कृति से कैसे निबटा जाय। सवालों की झड़ी को सुलझा पाना आसान नहीं रहा।
कुछ यही हालत सियासत को नजदीक और गहराई से कवर कर रहे पत्रकारों की भी है। उनकी विचारधारा चाहे जो भी हो – लेकिन जिस पार्टी को वे कवर करने लगते हैं – उनसे उनका रागात्मक लगाव बढ़ते जाता है। फिर उन्हें उस पार्टी की कमियां कम ही नजर आती हैं। ये तो भला हो डेस्क पर बैठे लोगों का – जो खबरों को सही तरीके से अखबारी नीति के मुताबिक पेश करने में भी अपने मूल दायित्व की अदायगी करते रहते हैं। इसका हश्र ठीक वैसा ही होता है – जैसा लंबे समय से किसी बीट पर तैनात पुलिस कांस्टेबल की बीट बदल जाती है। तब उसके दिल पर सांप लोटने लगता है। संपादकीय नीति के भी तहत कुछ पत्रकारों की बीट बदल दी जाती है तो उनकी भी हालत कुछ ऐसी ही हो जाती है। दिल्ली में खासतौर पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कवर करने वाले पत्रकारों की बीट ब्यूरो चीफ या राजनीतिक संपादक बदल दे तो उनका दिल का चैन और रात की नींद खो जाती है। वैसे इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेस और बीजेपी बीट कवर करने वाले ऐसे पत्रकारों के पाला पड़ा है – जिन्हें देखकर भ्रम होने लगता है कि वे पत्रकार हैं या फिर उस पार्टी विशेष के कार्यकर्ता। कांग्रेस बीट कवर करने वाले प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है- जो ना सिर्फ नए पत्रकारों- बल्कि अपने ग्रुप से बाहर के पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने देना चाहता। सवाल अगर असहज हो तो फिर यह ग्रुप पार्टी और पार्टी प्रवक्ता को बचाने में पूरी शिद्दत से जुट जाता है। गलती से उसने अपने अखबार और इलाके की जरूरत के मुताबिक कोई सवाल पूछ लिया तो समझो- उसकी शामत आ गई। दिलचस्प बात ये है कि इस ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं। ये पूरा ग्रुप भरसक में कोशिश करता है कि प्रवक्ता से असहज सवाल न पूछे जा सकें और गलती से ऐसा सवाल उछाल भी दिया गया तो प्रेस कांफ्रेंस को हाईजैक करने की कोशिश शुरू हो जाती है। ग्रुप में से कोई उस सवाल पर मुंह बिचकाने लगता है तो कई बार कोई वरिष्ठ सवाल पर ही सवाल उठा देता है - ह्वाट ए हेल क्वेश्चन यार। इसके बावजूद किसी ने सवाल पूछने पर जोर दिया तो हो सकता है इस ग्रुप का कोई पत्रकार सवाल पूछने वाले पत्रकार से मुखातिब ये भी बोलता पाया जाए- अरे चुप भी रहोगे।
1999 के चुनाव में कई बार एक मशहूर दैनिक की ओर से कांग्रेस कवर करते वक्त हुए अनुभव ने इन पंक्तियों के लेखक के पत्रकारिता जीवन की आंखें ही खोल दी। विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल तब कांग्रेस प्रवक्ता का जोरदार तरीके से मोर्चा संभाले हुए थे। उनकी ब्रीफिंग के बाद उस ग्रुप के पत्रकार उनकी डीप ब्रीफिंग में पहुंच जाते थे और लगे हाथों उंगलियों से गिनकर बताने लगते थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है। कई तो उसे दो सौ का आंकड़ा पार करा देते तो कई सवा दो सौ। इस जमात के लोग आज भी कांग्रेस कवर कर रहे हैं। लेकिन कपिल सिब्बल इस जुगलबंदी का मजा तो लेते थे – लेकिन कभी-भी इस पर ध्यान नहीं देते थे। अपने ईमानदार आकलन से वे पूछने लगते कि ये आंकड़ा कहां से आएगा तो उस जमात के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगतीं। 1999 के चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कपिल सिब्बल सही थे और कोटरी में शामिल पत्रकारिता की दुनिया के कर्णधारों का आकलन कितना हवाई था। यहां ये बता देना जरूरी है कि डीप ब्रीफिंग में पार्टियों के प्रवक्ता ऑफ द बीट जानकारियां देते हैं। उन्हें आप रिकॉर्ड पर उनके हवाले से नहीं पेश कर सकते। जब भी हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की चर्चा होती है - अंग्रेजी के पत्रकारों को ज्यादा प्रोफेशनल बताया जाता है। लेकिन इस गिरोहबाजी में अंग्रेजी के कई वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। कई बार असहज सवालों से ऐसे ग्रुप के पत्रकार प्रवक्ताओं और नेताओं को उबारने के लिए सवाल को ही घुमा देते हैं या बीच में ही टपककर दो कोनों से ऐसा सवाल पूछेंगे कि बहस की धारा ही बदल जाएगी। मजे की बात ये है कि अब टीवी के भी कई पत्रकार ऐसे ग्रुपों में शामिल हो गए हैं।
पत्रकारिता का ये कोरस गान क्राइम रिपोर्टिंग में भी बदस्तूर जारी है। वहां पुलिस की दी हुई सूचनाएं मानक के तौर पर पेश की जाती है। फिर अधिकांशत: उसे ज्यों का त्यों पेश कर दिया जाता है। अगर डेस्क चौकस ना हो तो तकरीबन हर क्राइम रिपोर्टर आज पुलिस प्रवक्ता की ही भांति काम कर रहा है। वहां खुद से पुलिस के दिए आंकड़ों को जांचने की कोशिश कम ही की जाती है। वैसे पत्रकारिता में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका काम सिर्फ सियासी दलों की हर भूमिका के पीछे नकारात्मकता की ही खोज करना है। कांग्रेस और बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों की जमात में ऐसे कई लोग शामिल हैं।
अगर राजेंद्र माथुर की ही बातों पर गौर करें तो पत्रकार का काम पानी में पड़े उस कांच की तरह होना चाहिए – जो देखे तो सबकुछ – लेकिन उस पर पानी का कुछ भी असर ना हो। दूसरे शब्दों में कहें तो अर्जुन की तरह उसकी निगाह सिर्फ चिड़िया की आंख यानी खबर पर होनी चाहिए। लेकिन सियासत की खींचतान ने पत्रकारिता को जो सबसे बड़ा उपहार दिया है – वह खींचतान और सियासी दांवपेच ही है।
सियासी सोहबत में पत्रकारिता किस तरह अपनी असल भूमिका को भूल जाती है – इसका बेहतरीन उदाहरण है 2004 का इंडिया शाइनिंग का नारा और उसे लेकर पत्रकारिता का सकारात्मक बोध। तब पूरे देश की पत्रकारिता को भी कुछ वैसा ही पूरा देश चमकता नजर आ रहा था – जैसे तब के शासक गठबंधन एनडीए को। एनडीए के बड़े-बड़े नेताओं की ही तरह मीडिया को भी एनडीए के दोबारा शासन में लौटने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन 13 मई 2004 को खुले पिटारे ने इंडिया शाइनिंग की हकीकत तो बयां की ही – सियासी सोहबत में अपनी असल जिम्मेदारी – समाज को सही तौर पर देखने –समझने के मीडिया के दावे की पोलपट्टी खोलकर रख दी थी।
ऐसा नहीं कि सियासी सोहबत में अपनी बीट कवर करने वाले पत्रकारों को अपनी बीट के लोगों – विषयों और राजनीतिक दलों से इश्क ही हो जाता है और उसकी तरफदारी ही करते नजर आते हैं। कई राजनीतिक पत्रकार ऐसे भी हैं – जो अपनी बीट के राजनीतिक दल के लिए सिर्फ और सिर्फ विपक्षी की भूमिका निभाते हैं। जेम्स आग्सटस हिक्की की तरह अगर ये विरोध लोककल्याण के लिए है तो उसका स्वागत होना चाहिए। यही पत्रकारिता का धर्म भी है। लेकिन सिर्फ आलोचना के लिए ही आलोचना की जाय तो उसे मंजूर करना पत्रकारिता का धर्म कैसे हो सकता है।
ऐसे में सवाल ये है कि क्या पत्रकारिता के लिए ये प्रवृत्ति अच्छी है..क्या इससे पत्रकारिता की पहली शर्त वस्तुनिष्ठता बनी रह सकती है। जवाब निश्चित रूप से ना में है। ऐसे में जरूरत है कि इस कोटरी पत्रकारिता की अनदेखी की जाय। सियासी सोहबत में पत्रकारिता की मूल भावना पर कोई असर ना पड़े। इसके लिए मुकम्मल इंतजाम की जरूरत है। यह कैसे हो – इसे खुद पत्रकारिता को ही तय करना पड़ेगा।