मंगलवार, 4 अगस्त 2015

ओम थानवी के बहाने जनसत्ता पर कुछ विचार

उमेश चतुर्वेदी
1986-87 की बात है...तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह में अदावत शुरू हो गई थी..उन्हीं दिनों बोफोर्स तोप सौदे को लेकर राजीव सरकार कठघरे में थी...इंडियन एक्सप्रेस अखबार से पहली बार पल्ला उन्हीं दिनों पड़ा..चित्रा सुब्रमण्यम की रिपोर्टें उन दिनों तहलका मचा रखी थीं..उन्हीं दिनों इंडियन एक्सप्रेस के अखबार जनसत्ता से परिचित हुआ..बेहद पतले कागज पर महज आठ पेज का वह अखबार बलिया में अगले दिन मिलता था और कीमत भी दिल्ली में मिलने वाले अखबार की कीमत की तुलना में कुछ महंगी होती थी..बहरहाल उस बासी अखबार को भी पढ़ने की जो लत लग गई...वह दिल्ली आने के बाद बरसों तक बनी रही..बलिया में रहते वक्त ही रविवार को छपने वाले उस अखबार के संपादकीय पृष्ठ किताबें में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संदर्भ में अपना एक लेख छप चुका था..आचार्य द्विवेदी का बलिया..उस लेख के लिए तब एमए में पढ़ने वाले मुझ जैसे छात्र को स्थानीय पत्रकारों और साहित्यकारों की ठीक-ठाक गालियां भी मिली..तब भी संतोष यह था कि गालियों के बावजूद जनसत्ता में तो छपे..इन्हीं दिनों जनसत्ता के बढ़ते प्रसार और उसे पूरा न कर पाने की मजबूरी का ऐलानिया इजहार भी पढ़ा..प्रभाष जोशी का मिल-बांटकर पढ़ने वाली अपील पढ़ी तो इस अखबार को लेकर एक अलग तरह की छवि मन में बनी...
दिल्ली आए तो जनसत्ता का नया ही रूप देखा..भारतीय जनसंचार संस्थान ने छात्रावास नहीं दिया तो पहले पनाह लेनी पड़ी तत्कालीन बाहरी दिल्ली के इलाके रोहिणी और बाद में संस्थान के बगल कटवारिया सराय में..दोनों ही इलाके उन दिनों जाट आबादी बहुल थे..दोनों ही इलाकों का शायद ही कोई घर था, जिनके यहां जनसत्ता नहीं आता था..तब जनसत्ता में यमुना आर और यमुना पार नाम के पेज आते थे..यमुना था या जमना..इस पर थोड़ा भ्रम है...कुमार संजय सिंह(जो अब संजॉय हो गए हैं) ठीक करेंगे...बहरहाल दोनों पेजों की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि दिल्ली की स्थानीय खबरें यहां छपवाने के लिए लोग लालायित रहते...बोफोर्स को लेकर राजीव गांधी की मिट्टी पलीद करने वाले एक्सप्रेस ग्रुप के अखबार जनसत्ता ने कई बार एक्टिविस्ट की भूमिका निभाई...दिल्ली में रेडलाइन बसों का 1993-94 में खासा आतंक था.. उनके खिलाफ सरकारी तंत्र कार्रवाई तक नहीं कर पाता था..जनसत्ता ने रेडलाइन के खिलाफ अभियान छेड़ा..लोगों से सीधी कार्रवाई करने की अपील की..इसका असर हुआ...जनसत्ता के अभियान के सामने रेडलाइन वाले जो तब ज्यादातर मवाली थे, अपनी औकात पर आ गए..क्योंकि जनता ने ठांव फैसला करना शुरू कर दिया..नतीजतन तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना को कार्रवाई करनी पड़ी...मुझे याद है, दिल्ली के पहले वित्त मंत्री जगदीश मुखी के आदेश के बावजूद बिजली विभाग, जिसे तब डेसू कहा जाता था...के अधिकारी सुधरने को तैयार नहीं थे..तब उन्होंने अपने लोगों से खुद कहा था कि जनसत्ता के रिपोर्टर से संपर्क करो..अब सत्येंद्र झा पत्रकारिता में नहीं हैं..लेकिन दो किश्तों में उन्होंने खोजी रिपोर्ट लिखी और डेसू के कई अफसर सस्पेंड हुए...प्रभाष जोशी तब केंद्रीय टेलीफोन सलाहकार समिति के सदस्य थे..तब एमटीएनएल का दिल्ली में फोन पर एकाधिकार होता था..उसके कर्मचारी और अफसर रिश्वतखोरी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे..इलाके के लाइन मैन को पूजा-प्रसाद ना दो तो टेलीफोन खराब होना तय था..प्रभाष जोशी के एक मित्र के साथ ऐसा ही होता था..वे सिफारिश करते तो फोन तो ठीक हो जाता..लेकिन कुछ दिनों बाद फिर जानबूझकर खराब कर दिया जाता। जोशी जी के मित्र को लाइनमैन ने कहा कि देखता हूं कितने दिनों तक आप  सिफारिश करा पाते हो..कहने का मतलब ये कि चढ़ावा तो चढ़ाना ही पड़ेगा..प्रभाष जी भी जान गए कि अब उनका असल हथियार ही काम आएगा..उन्होंने तब के अपने प्रमुख संवाददाता से एक रिपोर्टर की मांग की..सत्येंद्र झा प्रभाष जी के पास भेजे गए..उन्होंने एमटीएनएल पर ऐसी स्टोरी लिखी कि जिसे कहते हैं तहलका मचना..वह मच गया..इसका जिक्र खुद प्रभाष जी ने अपने कागद कारे स्तंभ में किया..
जनसत्ता के इतिहास में ऐसी ढेरों कामयाबियां हैं..प्रभाष जी के गुलदस्ते में आक्रामक रिपोर्टिंग टीम थी तो उनके साथ गांधीवादी, दक्षिणपंथी, वामपंथी सब लोग थे...दिल्ली में 1994-95 में जब पत्रकारिता में काम शुरू किया तो अंग्रेजी पत्रकारों को ही तरजीह मिलते देखता था..अफसर तो हिंदी के अखबारों और पत्रकारों को कुछ समझते ही नहीं थे..हिंदी पत्रकारों से सीधे मुंह बात करना तो केंद्र के अफसरों को शायद रास ही नहीं आता था..ऐसे घोर हिंदी विरोधी माहौल में भी जनसत्ता के रिपोर्टरों की धाक थी..राजनीतिक ब्यूरो के रामबहादुर राय जी, प्रदीप सिंह जी, ओमप्रकाशजी, राजेश जोशी, असरार खान जी, अतुल जैन जी, विवेक सक्सेना जी की धाक अपनी नंगी आंखों से तमाम पार्टियों, पीआईबी और सरकार के अंगों को कवर करते वक्त मैंने खुद देखी है...हवाला की रामबहादुर राय और राजेश जोशी ने ऐसी रिपोर्टिंग की कि तब की राजनीति ही बदल गई..शरद यादव, लालकृष्ण आडवाणी, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, मदनलाल खुराना आदि को इस्तीफे देने पड़े...लाखूभाई पाठक घूसकांड हो या बबलू श्रीवास्तव का जेल से इंटरव्यू, इन खबरों ने तो भारतीय राजनीति को झकझोर दिया था..एक बात और अंग्रेजी अखबारों के दफ्तरों में तब मैंने सिर्फ जनसत्ता की फाइलें ही देखी थीं..साहित्यिक रिपोर्टिंग में रवींद्र त्रिपाठी ने कामयाबी और स्तरीयता के नए प्रतिमान गढ़े..लेकिन बाद के दिनों में जनसत्ता में ऐसा कुछ नहीं बचा..प्रभाष जी के विदा होते और अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल के खत्म होते ही या तो ये रिपोर्टर ही वहां नहीं रहे, या बचे भी तो निस्तेज कर दिए गए..
सवाल यह उठता है कि जनसत्ता की इन कामयाबियों का यहां जिक्र क्यों..इसलिए कि ओम थानवी जी जनसत्ता की 16 साल की संपादकी से रिटायर हो गए हैं और उसे लेकर हिंदी के एक खास वर्ग के बुद्धिजीवियों में शोक की लहर दौड़ पड़ी है...कि अब जनसत्ता सूना हो गया कि अब जनसत्ता बिना मेरी सुबह नहीं पूरी होगी..आदि- आदि .
थानवी जी का जनसत्ता को लेकर एक मात्र योगदान है..उसे उन्होंने साहित्यिक अखबार बना दिया..जिसमें वितंडों को भी खूब जगह मिली...प्रभाष जोशी ने जिस जनसत्ता को हर वर्ग और विचारधारा के गुलदस्तों से सजाकर एक मुकम्मल और ठेठ अखबार बनाने की ना सिर्फ कोशिश की थी, बल्कि उसे प्रतिष्ठित अखबार बनाया था, वह प्रतिष्ठा कहीं पीछे छूट गई..थानवी जी का योगदान इसमें भी है..जिस रिपोर्टिंग के चलते जनसत्ता सत्ता को हिलाता था, वह रिपोर्टिंग गायब ही हो गई...हां एक साहित्यिक अखबार के तौर पर उसकी प्रतिष्ठा बनी और वह भी एक खास वर्ग में..कई बार तो वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र लोकलहर की रिवाइज्ड कॉपी बनता नजर आया..अगर किसी प्रतिष्ठित अखबार की कामयाबी का यह पैमाना है तो निश्चित तौर पर थानवी जी कामयाब रहे...उनकी कामयाबी को सलाम तो किया ही जाना चाहिए..चलते-चलते एक बात और...थानवी जी बहुत अच्छे व्यक्ति हैं..सबने उनका गुणगान किया है..इतने अच्छे कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती संपादक अच्युतानंद मिश्र का आखिरी संपादकीय नहीं प्रकाशित किया था..तब अच्युतानंद जी को गुस्सा आया कि नहीं..तकलीफ हुई या नहीं..यह तो पता नहीं.. क्योंकि इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया..लेकिन तब भानुप्रताप शुक्ल जी जिंदा थे और हिंदी के तमाम प्रमुख अखबारों में नियमित स्तंभ लिखते थे..उन्होंने अपने स्तंभ में वह आखिरी संपादकीय शामिल किया था...जिसे तब करीब 14-15 अखबारों ने प्रकाशित किया था..हां..कुछ पढ़ता-लिखता मैं भी हूं..लेकिन अब मुझे जनसत्ता का उस तरह बेसब्री से इंतजार नहीं रहता..जैसा दस-पंद्रह साल पहले रहता था..मुझे तो वही जनसत्ता पसंद है..जिसकी रिपोर्टिंग सबकी खबर लेती थी और सबको खबर देती थी...