गुरुवार, 16 जुलाई 2015

आह आकाशवाणी, वाह आकाशवाणी...

उमेश चतुर्वेदी
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी

बुधवार, 15 जुलाई 2015

एस एन झा या भवेश नंदन झा के गजबे दुनिया

आर्द्रा मूवीज प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दूरदर्शन बिहार के लिए देश-विदेश में रह रहे दर्शकों को ध्यान में रखते हुए एक धारावाहिक का निर्माण किया गया है, जिसका नाम है अमूल “एस.एन.झा के गजबे दुनिया”. मैथिली भाषा में प्रसारित होने वाले इस हास्य धारावहिक का प्रसारण 16 जुलाई से होने जा रहा है. इसे हर बृहस्पतिवार को शाम 6:00 बजे से प्रसारित किया जाएगा. इसके प्रस्तुतकर्ता हैं अमूल. “एस. एन. झा के गजबे दुनिया” एक महत्वाकांक्षी पत्रकार एस.एन.झा (सूर्य नारायण झा) के पत्रकारिता जीवन और आम जनता की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने जैसे मुद्दे को लेकर बनाया गया है. अपने शुरूआती दिनों में पत्रकारिता करने वाले निर्माता-निर्देशक भवेश नन्दन यकीन के साथ कहते हैं कि ये धारावाहिक सभी वर्गों को पसंद आएगा.
भवेश नन्दन का धारावाहिक के विषय वस्तु के बारे में कहना है, “एक पत्रकार के लिए जहाँ बड़े-बड़े राजनेता, हस्ती एवं उद्योगपतियों के साथ उठना-बैठना सामान्य बात है, वहीं दूसरी और वह छोटी-छोटी घरेलू समस्याओं से परेशान भी रहता है. पत्रकार एस. एन. झा (सूर्यनारायण झा) की पत्नी (चन्द्रकला झा) पत्रकारिता को आम पेशा की तरह रोजी-रोटी का एक साधन मात्र मानती है. वहीं पत्रकार एस. एन. झा  इसे पेशा न मानकर इसे कर्तव्य मानते हैं. वह भले ही आम लोगों की समस्या को उजागर करने के लिए दिन रात की कड़ी मेहनत करते है, परन्तु अपनें घर की समस्याओं को नज़रअंदाज कर साप्ताहिक छुट्टी वाले दिन घर में आराम फरमाना चाहते हैं. किन्तु हर सप्ताह एक नये कड़ी में आगाज होता है एक समस्या का, जिसको सुलझाने में श्रीमान की छुट्टी खराब हो जाती है, इसको सुलझाने में सरल हास्य उत्पन्न होता है..यही इस सीरियल का मुख्य आधार है”
“ये धारावाहिक एक पत्रकार की कहानी है और हम सभी कहीं ना कहीं इस कहानी से अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे. जिंदगी की भाग-दौड़ में अगर हास्य व्यंग्य का समावेश ना रहे तो किसी भी सामान्य आदमी के लिए दैनिक कार्य करना मुस्किल हो जाता है, धारावाहिक एक आम इंसान के दैनिक जीवन में हास्य व्यंग्य के महत्ता को परिभाषित करता है.”
दर्शकों को भरपूर मनोरंजन देने के लिए इस धारावहिक की विशेषता है कि किसी ख़ास समस्या को केंद्र में रखकर संभवतः निदान भी उसी कड़ी में कर दिया जाता है, जिससे दर्शकों को अगली कड़ी में रखे जाने वाला एक नई समस्या को देखने के लिए बेसब्री से इंतज़ार होगा.धारावाहिक के निर्माता और निर्देशक हैं भवेश नन्दन झा, भवेश नन्दन नंदन झा इससे पहले कई एड फिल्म, डॉक्युमेंट्री फिल्म तथा लघु फिल्म का निर्देशन कर चुके हैं.  इस धारावाहिक में मुख्य भूमिका है अनिल मिश्र व रोशनी झा की.  इस धारावाहिक की स्क्रिप्ट लिखा है विकास झा ने..जबकि सिनेमेटोग्राफी खालिद अब्बास के जिम्मे है..सम्पादन एल. के. शशि कर रहे हैं. इसके सहायक निर्देशक हैं अमिताभ भूषण, ओमप्रकाश गुंजन, अविनाश प्रभाकर व अपर्णा झा, कार्यकारी निर्माता हैं प्रशांत कुमार व मुकेश चन्दन.

रविवार, 12 जुलाई 2015

बनावटीपन से ताजिंदगी दूर रहे यादवराव देशमुख


उमेश चतुर्वेदी
पांचजन्य के संपादक रहे, सहजता की अनन्य मूर्ति, खालिस सहज इन्सान और अपने चहेतों के बीच काकू के तौर पर मशहूर यादवराव देशमुख चार जून को वहां के लिए कूच कर गए, जहां से कोई लौटकर नहीं आता...दीनदयाल शोध संस्थान के प्रमुख रहे 87 साल के यादव राव देशमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे कार्यकर्ता थे, जिन्हें अहंकार छू तक नहीं गया था...जिस वक्त उन्होंने महाप्रयाण किया, उस वक्त अशोक महान की बेटी संघमित्रा द्वारा बनवाए गए सांची के स्तूप की यात्रा पर था..लिहाजा बाबा की आखिरी यात्रा का मौन और मार्मिक गवाह नहीं बन पाया..लेकिन विदिशा से दिल्ली लौटने के क्रम में जैसे ही यह खबर मिली..स्मृतियों के हिंडोले में बाबा से जुड़ी कई सारी यादें एक-एक कर आने लगीं..उनके सुपुत्र भारतीय जनसंचार संस्थान की वीथियों में अपने सहपाठी रहे हैं..इसीलिए बाबा से परिचय भी हुआ और यादवराव देशमुख हमारे लिए भी बाबा यानी पिता ही हो गए..यशवंत की मां भी हमें बेटा ही मानती रहीं..कभी नाम नहीं लिया..बहरहाल यादों के हिंडोले से छनकर आयी एक याद साझा कर रहा हूं..जो खालिस पत्रकारीय अनुभव से परिपूर्ण है..