गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

सांप्रदायिकता का चश्मा और गीता प्रेस का योगदान

उमेश चतुर्वेदी
(यथावत पत्रिका के अक्टूबर प्रथम 2015 अंक में प्रकाशित)
पूजास्थल पवित्रता और श्रद्धा के केंद्र होते हैं.. देवताओं की मूर्तियां, उनके चित्र और धार्मिक ग्रंथदुनिया के हर मतावलंबी के पूजा और आस्था के केंद्र मानव की आध्यात्मिक यात्रा का जरिया होते हैं। लेकिन हिंदू परिवारों के पूजा स्थलों में अगर इष्ट देवताओं की मूर्तियों या चित्रों के अलावा किसी ग्रंथ ने सबसे ज्यादा सम्मान हासिल किया है, जिसे देवताओं के समतुल्य दर्जा दिया गया है, वह ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस है। अपनी रचना के काल से ही रामचरित मानस भारतीय जनमानस की आस्था का केंद्र रहा है..लेकिन इस ग्रंथ को हर घर के पूजा स्थल तक पहुंचाने में 1923 में स्थापित गीता प्रेस का महत्वपूर्ण योगदान है। जिस गीता प्रेस को जयदयाल गोयंदका ने हनुमान प्रसाद पोद्दार के सहयोग से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 92 साल पहले स्थापित किया, उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व की प्राचीन और अजस्रधारा के सांस्कृतिक ग्रंथों को उनकी सहज-सरल टीकाओं के साथ घर-घर तक पहुंचाना था। अपनी उम्र की शतकीय यात्रा की तरफ बढ़ रहे इस सांस्कृतिक संस्थान की चर्चा इन दिनों खास है। खास इसलिए कि यहां के कर्मचारियों ने हड़ताल कर रखी है और इस वजह से यहां कामकाज ठप है। भारतीयता की सांस्कृतिक परंपरा की जब भी चर्चा होती है, हिंदुत्व का ही चेहरा हमारे सामने आता है। लेकिन यह हिंदुत्व इन दिनों सांप्रदायिकता का प्रतीक बन गया है या बौद्धिकता की कथित आधुनिक परंपरा की चाशनी ने उसे संकुचित स्तर पर स्थापित कर दिया है।
इस संकोचन का ही असर है कि गीता प्रेस की बंदी की आशंका को संकट के नजरिए से नहीं देखा जा रहा है। उसकी मीमांसा और पड़ताल के पीछे एक महान संस्था के अधरबीच खत्म हो जाने के सांस्कृतिक संकट के तौर पर भी नहीं देखा जा रहा है। जबकि देश की करीब 79.8 फीसद हिंदू जनसंख्या का ज्यादातर हिस्सा इस खबर से आहत और परेशान महसूस कर रहा है। दुनिया के तीसरे बड़ा धर्म माना जा रहा हिंदू धर्म की सांस्कृतिक और आस्थावान रचनाधर्मिता का गीता प्रेस केंद्र रहा है। अव्वल तो गीता प्रेस की बंदी को रोकने की दिशा में चिंतन और प्रयास होना चाहिए था। चिंतन और प्रयास हो भी रहा है। लेकिन कथित मुख्यधारा का संवाद इसकी बजाय गीता प्रेस को हिंदू सांप्रदायिकता के उत्प्रेरक के रूप में स्थापित करने की कोशिश में जुटा हुआ है।
अंग्रेजी के पत्रकार अक्षय मुकुल की हाल ही में एक किताब आई है- गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया आई है। इस किताब के हवाले से इन दिनों गीता प्रेस को हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाले कारक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। कुछ अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों की रिपोर्टें भी इसी के केंद्र में हैं। लेकिन हाल के दिनों में गीता प्रेस के संपादक और व्यवस्थापक रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार के पत्र-व्यवहार का एक संग्रह आया है। पत्रों में समय-संस्कृति नाम से इस पुस्तक को वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने संपादित किया है। इस संग्रह से गीता प्रेस की आजादी के आंदोलन में राष्ट्रीय भूमिका तो सामने आती ही है, उसके जरिए पता चलता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार को खुद तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने खुद गोरखपुर जाकर भारत रत्न देने वाले प्रस्ताव का पत्र दिया था। लेकिन हनुमान प्रसाद पोद्दार ने पूरी विनम्रता से इनकार कर दिया था। इस इनकार के बाद गोविंद बल्लभ पंत ने दिल्ली लौटकर एक और पत्र हनुमान प्रसाद पोद्दार को भेजा था। उस पत्र में पंत ने लिखा था- आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष को क्या, सारी मानवी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझकर ही आपको भारत रत्न की उपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया। आप इस उपाधि से बहुत-बहुत ऊंचे स्तर पर हैं। मैं तो आपको हृदय से नमस्कार करता हूं।आज के दौर में जब क्रिकेट की दुनिया में कुछ शतक लगा देने वाली शख्सियत को भारत रत्न दिया जाता है और उसके बाद भी वह सामान बेचने का काम नहीं छोड़ पाता, इस संदर्भ में हनुमान प्रसाद पोद्दार की शख्सियत को समझना आखिर क्यों कठिन हो रहा है। तो क्या यह मान लिया जाय कि भारत में धर्म निरपेक्षता के अलंबरदार रहे पंडित जवाहर लाल नेहरू भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले थे..क्योंकि उनकी ही सरकार का गृहमंत्री भारत रत्न का प्रस्ताव लेकर हनुमान प्रसाद पोद्दार के पास गया था। धर्मनिरेपक्षता की खुद झंडाबरदार बनी मौजूदा बौद्धिकता का बहुसंख्य यही मानता है कि नेहरू आस्तिक नहीं थे। इसीलिए वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित समाज की नींव आजाद भारत में रख सके। लेकिन पोद्दार को लिखे पंत के इसी पत्र में इस अवधारणा का भी खंडन हो जाता है। पंत ने पोद्दार को लिखा है –“ जवाहरला भी, ऊपर से कुछ भी कहें, आस्तिक हैं। तो क्या यह मान लिया जाय कि गोविंद बल्लभ पंत हिंदू सांप्रदायिकता की धारणा से ओतप्रोत थे और इसीलिए उन्होंने अपने स्वप्न और आदर्श पुरूष नेहरू के बारे में पोद्दार को ऐसा लिखा।
हिंदी में प्रगतिशीलता की जिस परंपरा का मुख्यधारा का बौद्धिक विमर्श स्वीकार करता है और उसके सहारे कथित धर्मनिरपेक्ष विरोधी ताकतों पर हमले करता है, हिंदी साहित्य में उसकी परंपरा प्रगतिशील लेखक संघ के गठन से होती है और 1936 में हुए उसके पहले सम्मेलन के अध्यक्ष उपन्यास सम्राट प्रेमचंद थे। प्रेमचंद ने भी गीता प्रेस से प्रकाशित हो रही पत्रिका कल्याण के लिए लेख लिखा था। 16 फरवरी 1931 को पोद्दार को लिखे पत्र में उन्होंने श्रीकृष्ण और भावी जगत शीर्षक से लेख लिखने की स्वीकृति दी थी और बाद में वह श्रीकृष्ण पर केंद्रित अंक में छपा भी। हिंदी की छायावादी कविता के शीर्ष हस्ताक्षर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला रहे हैं। राम की शक्ति पूजा को छोड़ दें तो धार्मिक विषय या हस्ती पर केंद्रित उनकी दूसरी रचना नहीं मिलती। राम की शक्तिपूजा भी हिंदी साहित्य की अनमोल निधि है। उन्होंने भी कल्याण और गीता प्रेस के लिए लिखा। स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी पत्रकार बनारसी दास चतुर्वेदी अपने राष्ट्रीय विचारों के जाने जाते हैं। प्रवासी जैसे पत्र का स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने संपादन किया। बनारसी दास चतुर्वेदी ने हनुमान प्रसाद पोद्दार को 12 मार्च 1932 को जो पत्र लिखा है, उसकी शब्दावली बेहद खरी है। उसमें उन्होंने पोद्दार को कल्याण के अंक निकालने के लिए खरे-खरे सूत्र दिए हैं। कल्याण के अंकों में विषयों की पुनरूक्ति से बचने और लेखकों को उपकृत करने से बचने का कठोर शब्दों में सुझाव दिया है। पहले तो उन्होंने कठोर शब्दों में कल्याण के लिए लेख लिखने से मना कर दिया। लेकिन प्रवासी और मॉडर्न रिव्यू जैसे पत्र के संपादक और अपने बॉस रामानंद चटर्जी से सुझाव पर एक लेख लिख भेजा था- मैं आस्तिक क्यों हूं। यह लेख कल्याण के ईश्वरांक में छपा। कल्याण अपनी शुरूआत से ही हर साल बालक अंक प्रकाशित करता रहा है। बनारसीदास चतुर्वेदी ने कल्याण के 27 वें वर्ष के बालक अंक में भारतीय बाल साहित्य नाम से भी लेख लिखा।

भारतीय समाज में जैसे-जैसे हिंदुत्ववादी सोच और दर्शन को सांप्रदायिकता की परिधि में बांधा जाने लगा, वैसे-वैसे कल्याण के अंकों में मुख्यधारा की रचनाधर्मिता की कमी होती जाती है। लेकिन कल्याण के अंकों को पलटिए तो पता चलेगा कि कैसी-कैसी हस्तियों ने उसके लिए लिखा। हिंदी पत्रकारिता को ऊंचाई देने वाले लक्ष्मीनारायण गर्दे जी ने आधुनिक अनीश्वरवाद शीर्षक लेख कल्याण के सातवें वर्ष के विशेषांक ईश्वर अंक में लिखा था। हिंदू सांप्रदायिकता बढ़ाने में गीता प्रेस की भूमिका को लेकर भले ही हो-हल्ला मचाया जा रहा हो। लेकिन 1932 के कल्याण के ईश्वर अंक में महात्मा गांधी तक ने लिखा था। उन्होंने उसके लिए पोद्दार से सवाल मांगे थे। पोद्दार ने जिन पांच सवालों को गांधी जी के पास भेजा था, उनका जवाब गांधी जी ने 8 अप्रैल 1932 को लिख भेजा था। जो उसी साल प्रकाशित हुआ। तो क्या यह मान लिया जाय कि गांधी जी भी सांप्रदायिक थे। गांधी के उस सुझाव के बिना कल्याण के प्रकाशन और उसके लिए अपनाए गए सैद्धांतिक आधार की कहानी पूरी नहीं हो सकती। जिसके तहत आज भी कल्याण के लिए विज्ञापन नहीं लिया जाता, समीक्षार्थ किताबें नहीं मंगाई जाती। क्योंकि गांधी जी ने ही सुझाव दिया था कि विज्ञापन लेने पर कल्याण में विज्ञापनदाताओं की मर्जी से भी सामग्री देनी पड़ेगी। किताबें मंगाई जाएंगी तो उनकी समीक्षा सिर्फ सकारात्मक अंदाज में भी छापनी पड़ेगी, क्योंकि उलटी समीक्षा छपी तो लेखक नाराज होगा। गांधी का यह सुझाव ही था कि उसे अब इससे कल्याण की सामग्री की स्तरीयता पर असर पड़ेगा। हकीकत तो यह है कि गीता प्रेस और उसके प्रकाशनों के साथ ही उसकी पत्रिका ने स्तरीयता के साथ ही जो मूल्य गढ़े-स्थापित किए, उनके मूल में ऐसी न जाने कितनी हस्तियों के विचार, विरोधी विचारधाराओं के सुझाव भी थे। काश, सांप्रदायिकता के नजरिए से गीता प्रेस की पड़ताल करते वक्त इन तथ्यों की तरफ भी ध्यान दिया जाता। 

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