शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

टेलीविजन पत्रकारिताः संदर्भ एस पी सिंह

जितेन्द्र कुमार


(जितेंद्र कुमार का यह लेख हंस  के मीडिया विशेषांक के लिए लिखा गया था जो जनवरी 2007 में प्रकाशित हुआ, जिसके अतिथि संपादक अजीत अंजुम थे। किसी कारणवश इस लेख को छापने से मना कर दिया गया। इसकी मूल प्रति हंस के दफ्तर में ही कहीं खो गयी थी लेकिन इसकी फोटोकॉपी कुछ ही दिन पहले पुराने कागजात में मिल गई। इसे बाद में अनिल चमड़िया के संपादकत्व में कथादेश  के मीडिया विशेषांक के लिए मांगा गया लेकिन उस समय लेख उपलब्ध नहीं होने के कारण वहां नहीं छप सका। )
अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं। खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- ''देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारी पूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।'' और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
टीवी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: पंद्रह साल में फर्श पर आई विरासत

सोमवार, 23 सितंबर 2013

सार्वजनिक प्रसारक की चुनौती और दायित्व

(दूरदर्शन ने हाल ही में एक पत्रिका दृश्यांतर का प्रकाशन शुरू किया है..उसी के पहले अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है.)
उमेश चतुर्वेदी
देश में जितनी तेजी से टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो का विस्तार हुआ है, उतनी ही तेजी से इन पर प्रसारित हो रहे कंटेंट को लेकर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। बेशक बाजार में चमक-दमक भरी दुनिया वाले निजी चैनलों का दबदबा कायम है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ मिलकर कुल मिलाकर पांच सौ से ज्यादा टेलीविजन चैनलों की भारतीय दुनिया से सकारात्कम कंटेंट की विदाई या तो हो चुकी है या फिर प्रक्रिया में है। हालांकि एक धारा ऐसी भी है जो एक फिल्म की तर्ज पर अंग्रेजी में कंटेंट इज किंग यानी कंटेंट ही असल ताकत है का नारा बुलंद कर रही है। लेकिन जब बेतुके कंटेंट, बेतुकी समाचार कथाएं और बेतुके सोप ऑपेरा की दुनिया से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग का पाला पड़ता है तो एक बार फिर सवाल उठने लगता है कि क्या भारत जैसे बहुवर्णी और संस्कृतिबहुल देश में ऐसे प्रसारक नहीं होने चाहिए, जो देसी संस्कृति का खयाल तो रखे ही, संपूर्ण भारतीयता की अवधारणा के साथ फिक्शन और समाचार दोनों तरह के कंटेंट पेश करें।