मंगलवार, 5 नवंबर 2013

अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं कस्बे के टाकीज



(यह निबंध वरिष्ठ पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में प्रकाशित हो रही महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है. )
उमेश चतुर्वेदी
1982 की बात है....उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मेरे ननिहाल के नजदीकी कस्बे बैरिया में एक सिनेमा हॉल खुला। उसके मैनेजर बनाए गए थे हमारे रिश्ते के एक चाचा। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में सिनेमा देखने को चरित्र से जोड़कर देखा जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो सिनेमा देखता है और खासकर अगर वह छात्र हुआ तो समझो उसकी पढ़ाई-लिखाई गई तेल लेने...शायद शिक्षा से सिनेमा के बने इसी आंखमिचौली वाले रिश्ते की वजह से उन दिनों गांवों में सिनेमा देखने को चरित्रहीनता की तरह देखा जाता था.। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि ऐसी सोच के बावजूद चरित्रहीनता के इस दलदल में डूबने की इच्छा ज्यादातर दिलों की होती थी। अगर दिल नौजवान हुआ तो पूछना ही क्या...उन दिनों किशोरवास्था से गुजर रहा अपना मन भी चरित्रहीन बनने की दबी-छुपी चाहत रखे हुए था। तब तक जिला मुख्यालय तक का दर्शन महज साल में एक बार तब ही हो पाता था, जब ददरी मेला लगता था।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

पहले प्यार की तरह याद रही राजेंद्र यादव से पहली मुलाकात

हंस संपादक से अपना पहला परिचय सारिका में प्रकाशित उनकी कहानी जहरबाद से हुआ था..शायद 1990 या 1991 की सारिका में छपा था..इसके पहले साहित्य के विद्यार्थी के नाते पिछली सदी के साठ के दशक में कहानी को नया मुहावरा देकर नए सिरे से प्रतिष्ठित करने वाले नई कहानी आंदोलन के बारे में पढ़ तो चुका था..लेकिन उलटबांसी देखिए कि पाठ्यक्रम में नई कहानी आंदोलन के तीनों कथाकारों मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर की एक भी कहानी नहीं थी..अलबत्ता इतिहास में उनका जिक्र जरूर था..यह बात और है कि एमए की पढ़ाई के दौरान पत्रिकाओं से नाता गहराता गया और तीनों की ही कई रचनाएं पढ़ने को मिलीं..बहरहाल जब मैंने पहली बार सारा आकाश पढ़ा तो राजेंद्र यादव से मिलने की उत्कंठा बढ़ गई..बाद में हंस का तो पारायण ही करने लगा.इन्हीं दिनों साहित्यिक हस्तियों से इंटरव्यू का चस्का लगा..दिल्ली 1993 में आया तो बिना वक्त लिए राजेंद्र यादव से मिलने जा पहुंचा हंस के दफ्तर..राजेंद्र जी की जिंदादिली देखिए कि उन्होंने बिना पूछे-जांचे इंटरव्यू भी दे दिया..उसी दौरान रामशरण जोशी जी आए..तब वे नई दुनिया के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख थे..यादव जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और पूछा कि इस नाम को जानते हो..मैंने कहा नई दुनिया ..तब यादव जी का जवाब था..वो तो कब की पुरानी हो गई..इसी दौरान प्रेमपाल शर्मा सपत्नीक वहां पधारे..उनसे भी वहीं परिचय हुआ..यह पहली मुलाकात और उस दौरान हुई बातचीत तब के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई..जिसे किताबघर से प्रकाशित राजेंद्र यादव के मेरे साक्षात्कार में भी शामिल किया गया है..इसका शीर्षक है- मैं साहित्य की लड़ाई को हवाई हमला मानता हूं..बाद के दौर में कितने लोगों से इंटरव्यू किए..किसी ने नखरे दिखाए तो किसी ने बार-बार बुलाकर नहीं दिया..लेकिन राजेंद्र जी की यह अदा आजतक याद है..बाद में उनसे बीसियों मुलाकातें हुईं..ढेरों इंटरव्यू किए..लेकिन पहली याद पहले प्यार की तरह चस्पा रही..आखिरी बार 26 अक्टूबर 2013 को दूरदर्शन के मुख्यालय में मुलाकात हुई..वे दृश्यांतर पत्रिका का लोकार्पण करने आए थे..

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

टेलीविजन पत्रकारिताः संदर्भ एस पी सिंह

जितेन्द्र कुमार


(जितेंद्र कुमार का यह लेख हंस  के मीडिया विशेषांक के लिए लिखा गया था जो जनवरी 2007 में प्रकाशित हुआ, जिसके अतिथि संपादक अजीत अंजुम थे। किसी कारणवश इस लेख को छापने से मना कर दिया गया। इसकी मूल प्रति हंस के दफ्तर में ही कहीं खो गयी थी लेकिन इसकी फोटोकॉपी कुछ ही दिन पहले पुराने कागजात में मिल गई। इसे बाद में अनिल चमड़िया के संपादकत्व में कथादेश  के मीडिया विशेषांक के लिए मांगा गया लेकिन उस समय लेख उपलब्ध नहीं होने के कारण वहां नहीं छप सका। )
अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं। खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- ''देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारी पूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।'' और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
टीवी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: पंद्रह साल में फर्श पर आई विरासत

सोमवार, 23 सितंबर 2013

सार्वजनिक प्रसारक की चुनौती और दायित्व

(दूरदर्शन ने हाल ही में एक पत्रिका दृश्यांतर का प्रकाशन शुरू किया है..उसी के पहले अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है.)
उमेश चतुर्वेदी
देश में जितनी तेजी से टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो का विस्तार हुआ है, उतनी ही तेजी से इन पर प्रसारित हो रहे कंटेंट को लेकर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। बेशक बाजार में चमक-दमक भरी दुनिया वाले निजी चैनलों का दबदबा कायम है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ मिलकर कुल मिलाकर पांच सौ से ज्यादा टेलीविजन चैनलों की भारतीय दुनिया से सकारात्कम कंटेंट की विदाई या तो हो चुकी है या फिर प्रक्रिया में है। हालांकि एक धारा ऐसी भी है जो एक फिल्म की तर्ज पर अंग्रेजी में कंटेंट इज किंग यानी कंटेंट ही असल ताकत है का नारा बुलंद कर रही है। लेकिन जब बेतुके कंटेंट, बेतुकी समाचार कथाएं और बेतुके सोप ऑपेरा की दुनिया से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग का पाला पड़ता है तो एक बार फिर सवाल उठने लगता है कि क्या भारत जैसे बहुवर्णी और संस्कृतिबहुल देश में ऐसे प्रसारक नहीं होने चाहिए, जो देसी संस्कृति का खयाल तो रखे ही, संपूर्ण भारतीयता की अवधारणा के साथ फिक्शन और समाचार दोनों तरह के कंटेंट पेश करें।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

अपने समाज में झांके अमेरिका


उमेश चतुर्वेदी
दुनिया में जब भी कहीं अराजकता या आम जनता पर कथित हमला होता है, अमेरिका खुद-ब-खुद लोकतंत्र और मानवता का हिमायती बन कर वहां हस्तक्षेप करने के लिए उतावला हो जाता है। दुनिया में आज लोकतंत्र की जो अवधारणा तकरीबन मान्य हो चुकी है, वह लोकतांत्रिक व्यवस्था अमेरिका और ब्रिटेन की प्रचलित व्यवस्था ही है। इतना ही नहीं, जब कहीं मानवाधिकार पर सवाल उठते हैं या मानव अधिकारों पर स्थानीय सरकारें हमला करती हैं, अमेरिका अपने आप दुनिया का दरोगा बनकर वहां हस्तक्षेप करने को उतावला हो जाता है। लेकिन क्या अमेरिकी समाज सचमुच इतना लोकतांत्रिक और मानवतावादी हो चुका है, जहां उसके ही बनाए लोकतांत्रिक मॉडल खरे उतरते हों। भारतीय मूल की नीना दावुलूरी के 15 सितंबर को मिस अमेरिका चुने जाने के बाद से अमेरिकी समाज में जो कुछ होता दिख रहा है, उससे अमेरिकी समाज के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारवादी होने की हकीकत सामने आ जाती है।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

विरोधी विचारधारा का वैचारिक बहिष्कार

उमेश चतुर्वेदी
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के हंस का 28  साल पहले नई कहानी आंदोलन की त्रयी के अहम रचनाकार राजेंद्र यादव ने जब दोबारा प्रकाशन शुरू किया था, तब एक ही उम्मीद थी कि हंस साहित्य का नीर-क्षीर विवेकी तो होगा ही, हिंदी साहित्य के रचनात्मक पटल पर अपनी अमिट छाप भी छोड़ेगा। हंस ने हिंदी की साहित्यिक रचनाधर्मिता में आलोड़न पैदा भी किया। हंस में छपी चर्चित कहानियों की सूची काफी लंबी है..उदय प्रकाश का तिरिछ  और और अंत में प्रार्थना, शिवमूर्ति का तिरिया चरितर, सृंजय का कामरेड का कोट जैसी कहानियां हंस में प्रकाशित होने के बाद महीनों तक चर्चा में रहीं..हिंदी साहित्य में हंस की उपस्थिति और उसकी हनक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसमें प्रकाशित होने के लिए रचनाकार लालायित रहते हैं...राजेंद्र यादव का संपादकीय मेरी-तेरी उसकी बात पर भी हिंदी का बौद्धिक जगत निगाहें लगाए रखता है.

सोमवार, 9 सितंबर 2013

जीवन-परिवेश से जुड़ी कहानियां

जिनकी मुट्ठियों में सुराख था
लेखिका: नीलाक्षी सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
नई दिल्ली-110003
मूल्य: 170 रु.                           
                                                     (कादंबिनी में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
नब्बे के दशक में हिंदी पत्रकारिता में स्वीकार्य सहज शब्दों और भाषा की मान्यता ने सिर्फ पत्रकारिता को ही सपाट नहीं बनाया, बल्कि एक हद तक साहित्य को भी इसी परिपाटी ने बांध लिया। जिसका असर भाषायी बुनावट को लेकर प्रयोगधर्मिता में आई कमी के तौर पर नजर आया। लेकिन इसी दौर में रची-बढ़ी युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह की कहानियां भाषायी बुनावट की इस मान्यता को ना सिर्फ अस्वीकार करती हैं, बल्कि अपने विषय और कथ्य के जरिए संवेदनाओं के नए वितान का दर्शन कराती हैं। नीलाक्षी की कहानियों की खास बात यह है कि वहां कथ्य जहां गंभीरता और संजीदगी के साथ हृदय प्रदेश को गहरे तक मथता जाता है तो दूसरी तरफ भाषायी बुनावट अनुभव के नए क्षितिज का चमत्कारिक ढंग से दर्शन कराती हैं। उनके ताजा संग्रह जिनकी मुट्ठियों में सुराख थामें सिर्फ छह ही कहानियां हैं। लेकिन अपने रचाव में वे औपन्यासिक विस्तार का दर्शन कराती हैं।

रविवार, 25 अगस्त 2013

शुरूआती संघर्ष के दिनों की यादें- 2..

मीडिया की एक बड़ी समस्या यह हो गई है कि यहां एक पारदर्शी भर्ती नीति नहीं है..नए लोगों से मिलने में सीनियरों को तकलीफ होती है..हालांकि उनकी भी सीमाएं हैं..जॉब की तलाश करते कई कई नए पत्रकारों की तकलीफ यही है कि अगर पहचान नहीं हुई तो आपकी सीवी कूड़े के ढेर में फेंक दी जाती है..हमने जब पत्रकारिता शुरू की, उन्हीं दिनों पारदर्शी भर्ती प्रक्रिया को किनारे लगाया जाने लगा था...लेकिन ऐसा नहीं है कि उस दौर में भी लोग नए लोगों के लिए दरवाजे खोलकर रखा करते थे...अपना भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा है....1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान से निकलते वक्त मैंने संस्थान के ही एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम किया था..कीटनाशक बनाम पर्यावरण के इस प्रोजेक्ट के लिए मुझे ठीकठाक 25 मीडिया शख्सीयतों से मिलकर उनका इंटरव्यू करने की जिम्मेदारी दी गई। तब मैं दिल्ली में मीडिया के तब के गढ़ आईएनएस बिल्डिंग पहुंचा। उन दिनों इतने मीडिया वालों को जानता भी नहीं था। लिहाजा भारतीय जनसंचार संस्थान के रिसर्च विभाग ने बाकायदा एक सूची भी दी। आईएनएस पहुंचा और जिस कमरे में जाता और वहां के संबंधित व्यक्ति से मिलकर अपना परिचय देता..एक ही जवाब मिलता..नहीं मैं कैसे जवाब दे सकता हूं या हाउ कैन आई एंटरटेन यू...लेकिन मेरा सौभाग्य...आईएनएस बिल्डिंग में तीन लोगों ने ना मुझे पहली ही मुलाकात में इंटरव्यू दिया..बल्कि उस दौर के फटेहाल मुझ जैसे शावक पत्रकार को नाश्ता-चाय भी कराया। ये शख्यिसतें थीं उस दौर के अमर उजाला के ब्यूरो प्रमुख प्रवाल मैत्र, जन्मभूमि समूह के ब्यूरो प्रमुख कुंदनलाल व्यास और मराठी के सकाल की विशेष संवाददाता सुरेखा टकसाल। प्रवाल जी और सुरेखा जी अपने-अपने पदों से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं, जबकि कुंदनजी अब मुंबई में जन्मभूमि के प्रमुख संपादक हैं। बाद में तो प्रवाल जी ने मुझसे अमर उजाला में बीसियों रिपोर्टें लिखवाईं। सुरेखा जी के साथ 2008-09 में साथ काम करने का मौका भी मिला। तब मैं सकाल के टीवी डिविजन के दिल्ली दफ्तर में ठीकठाक पद पर काम कर रहा था। वैसे तो संघर्ष अब भी जारी है। लेकिन शुरुआती संघर्ष के दिन जब भी याद आते हैं..ये तीनों ही हस्तियां याद आती हैं..उनका प्यार और नए लोगों की मदद करने का जज्बा भुलाना मुश्किल है... काश कि ऐसे ही तमाम वरिष्ठ होते..तब पत्रकारिता की दशा ही कुछ और होती...

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

अखबारी दिनों की कुछ यादें...

हिंदी के इन दिनों खूब छपने वाले एक स्तंभकार और एक बड़ी जगह कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार को पिछली सदी के आखिरी सालों में शिद्दत से नौकरी की तलाश थी...तब दैनिक भास्कर में कमलेश्वर जी प्रधान संपादक की हैसियत से कार्यरत थे। यह बात और है कि दफ्तर कम ही आते थे। बहरहाल दोनों सज्जनों को कमलेश्वर जी भास्कर में लाना चाहते थे। भास्कर के प्रबंध संचालक सुधीर अग्रवाल से मुलाकात भी करवाई। यह बात और है कि उन्हें नौकरी नहीं मिली। लेकिन कमलेश्वर जी उन लोगों की मदद करना चाहते थे। उन्होंने तब फीचर सेक्शन में काम करने वाले मुझ समेत सभी पांचों लोगों को बुलाया और कहा कि अमुक-अमुक को ज्यादा से ज्यादा छापो...ये लोग बेरोजगार हैं और उनका भी घर चलना चाहिए। संपादक के निर्देशानुसार हम लोग उन जैसे कई लोगों से साग्रह लिखवाते थे। इसी तरह दैनिक हिंदुस्तान में एक कृष्णकिशोर पांडेय जी होते थे। संपादकीय पृष्ठ के प्रभारी थे। वे भी बेरोजगार फ्रीलांसरों पर ज्यादा ध्यान देते थे। इसका यह भी मतलब नहीं कि सारे फ्रीलांसर खराब लिखते थे, उनकी पढ़ाई-लिखाई कमजोर थी और नजरिया खराब था। लेकिन आज देखिए. ठेठ खालिस हिंदी के लेखन पर अखबारों का भरोसा कम हुआ है। अंग्रेजी के तुक्कामार लेखक और टीवी के उलथा लिखने वाले चेहरों पर हिंदी अखबारों का भरोसा बढ़ गया है। ऐसे में कमलेश्वर और कृष्ण किशोर पांडेय ज्यादा याद आते हैं। कमलेश्वर जी नहीं रहे..पांडे जी दिल्ली में ही रहते हैं..

मीडिया चौपाल - 2013

जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए संचार



14-15, सितम्बर, 2013
संचार क्रांति के इस वर्तमान समय में सूचनाओं की विविधता और बाहुल्यता है. जनसंचार माध्यमों (मीडिया) का क्षेत्र निरंतर परिवर्तित हो रहा है. सूचना और माध्यम, एक तरफ व्यक्ति को क्षमतावान और सशक्त बना रहे हैं, समाधान दे रहे हैं, वहीं अनेक चुनौतियां और समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं. इंटरनेट आधारित संचार के तरीकों ने लगभग एक नए समाज का निर्माण किया है जिसे आजकल "नेटीजन" कहा जा रहा है. लेकिन मीडिया के इस नए रूप के लिए उपयोग किये जाने वाली पदावली - नया मीडिया, सोशल मीडिया आदि को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. लेकिन एक बात पर अधिकाँश लोग सहमत हैं कि "मीडिया का यह नया रूप लोकतांत्रिक है. यह लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा दे रहा है. मीडिया पर से कुछेक लोगों या घरानों का एकाधिकार टूट रहा है.  
आपको स्मरण होगा कि पिछले वर्ष 12 अगस्त, 2012 को "विकास की बात विज्ञान के साथ- नए मीडिया की भूमिका" विषय को आधार बनाकर एक दिवसीय "मीडिया चौपाल-2012" का आयोजन किया गया था. इस वर्ष भी यह आयोजन किया जा रहा है. कोशिश है कि "मीडिया चौपाल" को सालाना आयोजन का रूप दिया जाए. गत आयोजन की निरंतरता में इस वर्ष भी यह आयोजन 14-15 सितम्बर, 2013  (शनिवार-रविवार) को किया जा रहा है. यह आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा स्पंदन (शोध, जागरूकता और कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान) द्वारा संयुक्त रूप से हो रहा है. इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य विकास में मीडिया की सकारात्मक भूमिका को बढ़ावा देना है. इस वर्ष का थीम होगा- "जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए मीडिया". इसी सन्दर्भ में विभिन्न चर्चा-सत्रों के लिए विषयों का निर्धारण इस प्रकार किया गया है- 1. मानव सभ्यता का भारतीय और यूरोपीय परिपेक्ष्य और मीडिया तकनीक, 2. नया मीडिया, नई चुनौतियां (तथ्य, कथ्य और भाषा के विशेष सन्दर्भ में)  3. जन-माध्यमों का अंतर्संबंध और नया मीडिया, 4. ग्रामीण भारत का सूचना सशक्तिकरण और नया मीडिया,  5. नये (सोशल) मीडिया पर  सरकारी नियमन की कोशिशें : कितना जरूरी, कितना जायज. 
कृपया विशेष वक्तव्य और प्रस्तुति देने के इच्छुक प्रतिभागी इस सम्बन्ध में एक सप्ताह पूर्व
(5 सितम्बर,2013 तक) सूचित करेंगे तो सत्रों की विस्तृत रूपरेखा तैयार करने में सुविधा होगी. इस सम्बन्ध में अन्य जानकारी के लिए संपर्क कर सकते हैं- अनिल सौमित्र - 09425008648, 0755-2765472. mediachaupal2013@gmail.com, anilsaumitra0@gmail.com
"मीडिया चौपाल-2013" में सहभागिता हेतु अभी तक 1. श्री आर. एल. फ्रांसिस (नई दिल्ली) 2. श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी (नई दिल्ली), 3. श्री अनिल पाण्डेय ( न संडे इंडियन, नई दिल्ली), 4. श्री यशवंत सिंह (भड़ास डाटकॉम, नई दिल्ली), 5. श्री संजीव सिन्हा (प्रवक्ता डाटकॉम, नई दिल्ली), 6. श्री रविशंकर (नई दिल्ली), 7. श्री संजय तिवारी (विस्फोट डाटकॉम, नई दिल्ली), 8. श्री आशीष कुमार अंशू, 9. श्री आवेश तिवारी, 10. श्री अनुराग अन्वेषी 11.श्री सिद्धार्थ झा, 12. श्री भावेश झा, 13. श्री दिब्यान्शु कुमार (दैनिक भास्कर, रांची), 14. श्री पंकज साव (रांची), 15. श्री उमाशंकर मिश्र (अमर उजाला, नई दिल्ली), 16. श्री उमेश चतुर्वेदी (नई दिल्ली), 17. श्री भुवन भास्कर (सहारा टीवी, नई दिल्ली), 18. श्री प्रभाष झा (नवभारत टाईम्स डाटकॉम, नई दिल्ली), 19. श्री स्वदेश सिंह (नई दिल्ली),  20. श्री पंकज झा (दीपकमल,रायपुर), 21. श्री निमिष कुमार (मुम्बई), 22. श्री चंद्रकांत जोशी (हिन्दी इन डाटकॉम, मुम्बई), 23. श्री प्रदीप गुप्ता (मुम्बई), 24. श्री संजय बेंगानी (अहमदाबाद), 25. श्री स्वतंत्र मिश्र (शुक्रवार साप्ताहिक, नई दिल्ली) 26. श्री ललित शर्मा (बिलासपुर), 27. श्री बी एस पाबला (रायपुर), 28. श्री लोकेन्द्र सिंह (ग्वालियर), 29. श्री सुरेश चिपलूनकर (उज्जैन), 30. श्री अरुण सिंह (लखनऊ), 31. सुश्री संध्या शर्मा (नागपुर), 32. श्री जीतेन्द्र दवे (मुम्बई), 33. श्री विकास दावे ( कार्यकारी संपादक, देवपुत्र, इंदौर), 34. श्री राजीव गुप्ता  35. सुश्री वर्तिका तोमर, 36. ठाकुर गौतम कात्यायन पटना, 37. अभिषेक रंजन 38. श्री केशव कुमार 39. श्री अंकुर विजयवर्गीय (नई दिल्ली) 40. जयराम विप्लव (जनोक्ति.कॉम, नई दिल्ली), 41. श्री कुंदन झा (नई दिल्ली) ने अपनी सभागिता की सूचना दी है.
भोपाल से 1. श्री रमेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार), 2. श्री गिरीश उपाध्याय (वरिष्ठ पत्रकार), 3. श्री दीपक तिवारी (ब्यूरो चीफ, न वीक), 4. सुश्री मुक्ता पाठक (साधना न्यूज), 5. श्री रवि रतलामी (वरिष्ठ ब्लॉगर), 6. श्रीमती जया केतकी (स्वतंत्र लेखिका), 7. श्रीमती स्वाति तिवारी (साहित्यकार), 8. श्री महेश परिमल (स्वतंत्र लेखक), 9. श्री अमरजीत कुमार (स्टेट न्यूज चैनल), 10. श्री रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति (पीपुल्स समाचार), 11. श्री राजूकुमार (ब्यूरो चीफ, न संडे इंडियन), 12. श्री शिरीष खरे (ब्यूरोचीफ, तहलका), 13. श्री पंकज चतुर्वेदी (स्तंभ लेखक), 14. श्री संजय द्विवेदी (संचार विशेषज्ञ), 15. श्रीमती शशि तिवारी (सूचना मंत्र डाटकॉम), 16. श्री शशिधर कपूर (संचारक), 17. श्री हरिहर शर्मा, 18. श्री गोपाल कृष्ण छिबबर, 19. श्री विनोद उपाध्याय, 20. श्री विकास बोंदिया, 21. श्री रामभुवन सिंह कुशवाह, 22. श्री हर्ष सुहालका, 23. सुश्री सरिता अरगरे (वरिष्ठ ब्लॉगर), 24. श्री राकेश दूबे (एक्टिविस्ट), आदि रहेंगे ही.
इस चौपाल में प्रो. प्रमोद के. वर्मा (महानिदेशक, म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद), श्री मनोज श्रीवास्तव (प्रमुख सचिव, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन), प्रो. बृज किशोर कुठियाला (कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल), श्री राममाधव जी (अखिल भारतीय सह-संपर्क प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), 2. श्रीमती स्मृति ईरानी (वरिष्ठ भाजपा नेत्री) के उपस्थित रहने की भी संभावना है.
कुछ और भी नाम हैं जिन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर सहभागिता के लिए प्रयास करने का आश्वासन दिया है- श्री चंडीदत्त शुक्ल (मुम्बई), श्री प्रेम शुक्ल (सामना, मुम्बई), श्री सुशांत झा(नई दिल्ली), श्री लालबहादुर ओझा (नई दिल्ली), प्रो. शंकर शरण (स्तंभकार, नई दिल्ली) श्री नलिन चौहान (नई दिल्ली), श्री शिराज केसर, सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा (इंडिया वाटर पोर्टल, नई दिल्ली), श्री हितेश शंकर (संपादक, पांचजन्य, नई दिल्ली).
अब न्यौता भेजने का समय खत्म हो चुका है. इस पत्र के बाद अब आगे की सूचनाएं भेजी जायेंगी. कोशिश हो कि आप सभी की भागीदारी से मीडिया के बारे में एक सार्थक चिंतन व विमर्श हो सके. इसमें आपका सहयोग अपेक्षित है.
सादर,
(अनिल सौमित्र)
संयोजक
स्पंदन (शोध, जागरूकता एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान)


रविवार, 18 अगस्त 2013

पहले बड़ी रकम का पारिश्रमिक तय करो....

हाल के दिनों में एक नवेले हिंदी पत्रकार ने कुछ अखबारों के संपादकीय और ऑप एड पेज प्रभारियों को कुछ स्तंभ लेखकों के एक ही लेख के कई जगह प्रकाशित होने की जानकारी दी है...इससे कुछ लेखकों के कुछ संपादकों ने लेख छापने भी कम कर दिए हैं...इस बारे में मुझे याद आता है अपना एक संस्मरण..दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में मैं 1998 में काम कर रहा था...तब दैनिक भास्कर के प्रधान संपादक कमलेश्वर थे। उस समय भास्कर सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही प्रकाशित होता था। उन दिनों मृणाल पांडे एनडीटीवी छोड़ चुकी थीं। तब रविवारीय भास्कर की कुछ कवर स्टोरियां अच्युतानंद मिश्र और मृणाल पांडे जी से लिखवाई गईं। संयोग से भास्कर में प्रकाशित मृणाल जी की एक स्टोरी किसी दूसरे अखबार में भी प्रकाशित हुई। रविवारीय में कार्यरत हमारे एक साथी ने कमलेश्वर जी से इसकी शिकायत की। कमलेश्वर जी ने शिकायत सुनी...फिर साथी से सवाल पूछा- आप एक लेख का मृणाल जी जैसे लेखक को कितना पारिश्रमिक देते हैं...उन दिनों मिलने वाली रकम कुछ सौ रूपए होती थी..मित्र ने वही जवाब दिया...कमलेश्वर जी का जवाब था--पहले एक लेख का पारिश्रमिक पांच हजार देने का इंतजाम करो..तब सोचना कि मृणाल जी या दूसरे लेखक एक ही लेख दूसरी जगह छपने को ना दें...फिर उन्होंने उसे समझाया कि अगर एक ही लेख दो अलग-अलग इलाकों के दो या चार अखबारों में छपें तो हर्ज क्या है..आखिर पाठक भी तो अलग-अलग इलाकों के हैं..

सोमवार, 12 अगस्त 2013

दिल्ली के मशहूर जीबी रोड की याद

उमेश चतुर्वेदी


1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग के काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके  लाएं। मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

खाली सिनेमा हॉल के बीच उदासी


(संपादित अंश नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है।)
उमेश चतुर्वेदी
शरद पूर्णिमा की रात दिल्ली में ठंड ने हौले से दस्तक दे दी है...लेकिन दूर पहाड़ों की रानी शिमला में ठंड अपने शवाब पर है...हिमाचल में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं..लेकिन माहौल में कोई चुनावी गर्मी नजर नहीं आ रही है...अगर गर्मी है भी तो अखबारी पन्नों पर...अखबारी हरफों में जुबानी जंग की गरमी की तासीर थोड़ी ही देर तक रह पाती है...फिर शिमला की ठंडी वादियों में बिला जा रही है...दिल्ली में शाम होते ही अलग तरह की रौनक बढ़ जाती है...शुक्रवार और शनिवार की शाम हो तो चहल-पहल का पूछना ही क्या...लेकिन शिमला रोजाना शाम के सात-साढ़े सात बजते ही उंघने लगता है..इस उंघने के बीच चुनावी शोर सुनने आए हमारे कान जिंदगी की एकरसता तोड़ने को उतावले हो उठते हैं...पता चलता है माल रोड के शाही सिनेमा हॉल में चक्रव्यूह लगी है...मैदानी शहरों में शाम छह का शो जाड़े के दिनों में बेहतर माना जाता है...अपना मैदानी मन भी पहुंच जाता है शाम का शो देखने...लेकिन यह क्या..नक्सलवाद के चक्रव्यूह की गरम तासीर को महसूसने पहुंचते हैं सिर्फ चार लोग...एक खुद इन पंक्तियों

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

कहां है हमारा भाषाई स्वाभिमान

उमेश चतुर्वेदी
मौजूदा हालात में जिस तेजी से भारतीय जिंदगी के तमाम क्षणों में उदारीकरण और उसके जरिए आई नई सोच ने अपनी पैठ बनाई है...उसमें भाषाई स्वाभिमान की चर्चा करना ही बेमानी है। चूंकि भारतीयता की मौजूदा अवधारणा के बीज आजादी के आंदोलन की कोख में पड़े थे, लिहाजा मध्य वय की ओर बढ़ रही पीढ़ी को भाषाई अस्मिता के सवाल नई पीढी़ की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावित और विचलित करते रहे हैं। विचलन की इस स्थिति का विस्तार इन दिनों जारी एक भाषाई आंदोलन और उसके प्रति भारतीय भाषाओं के समाज के उदासीनता बोध के चलते कहीं ज्यादा हो रहा है।
 हिंदी में पहली बार 1985 में आईआईटी दिल्ली में बीटेक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिख चुके श्यामरूद्र पाठक और उनके दो साथी गीता मिश्र और विनोद कुमार पांडेय 4 दिसंबर 2012 से ही एक महत्वपूर्ण सवाल को लेकर दस जनपथ के सामने धरने पर बैठे हैं। रोजाना उनका धरना सुबह नौ बजे शुरू होता है और शाम को पांच बजे निषेधाज्ञा शुरू होने के बाद पुलिस द्वारा खत्म करा दिया जाता है। सबसे अहम बात यह है कि इस धरने का मकसद इस देश की करीब 97 फीसदी आबादी का वह सवाल है, जिसका सामना पैंसठ साल से इंसाफ की दहलीज पर करती रही है। इन आंदोलनकारियों की मांग इंसाफ के दरवाजे पर जूझते लोगों को उनकी अपनी जुबान में इंसाफ मुहैया कराना है। 

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

सांस्कृतिक लालित्य से भरपूर रचनाएं

उमेश चतुर्वेदी
पुस्तक- मन का तुलसी चौरा
लेखक  तरूण विजय
प्रकाशक  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 

कभी हिंदी पाठकीयता की श्रीवृद्धि में अहम स्थान रखने वाली ललित निबंध विधा अब भूले-भटके वाली विधा हो गई है। कारपोरेट दबाव में अब सीधी सपाट बयानबाजी पत्रकारिता का अहम स्थान बना चुकी है। इस बीच भी अगर कोई पत्रकार अपने लेखन में लालित्य को बचाए रख सका है तो निश्चित तौर पर उसे दाद देनी ही पड़ेगी। तरूण विजय अब महज पत्रकार ही नहीं रहे, बल्कि सांसद हो गए हैं। लेकिन उनके लेखन का लालित्य अब भी बरकरार है और हिंदी के चुनिंदा अखबारों में सामयिक विषयों पर भी उऩका भावोत्मक लेखन जारी है। मन तुलसी का चौरा उनके ऐसे ही अखबारी लेखों का संग्रह है। जिसे पढ़ते हुए आपको एक बार भी नहीं लगेगा कि आप अखबारी लेखों से गुजर रहे हैं। सामयिकता का दबाव अखबारी लेखन पर इस कदर हावी रहता है कि वहां प्रकाशन के कुछ ही घंटों बाद उस लेखन में बासीपन आ जाता है। लेकिन इस संग्रह में शायद ही कोई रचना हो, जिसमें यह बासीपन आ पाया होगा।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

मीडिया मीमांसा/ MEDIAMIMANSA: मदद के इच्छुक संपर्क करें

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संभावनाशील कविताएं


कविता संग्रह – मैं सड़क हूं
कवि – अर्पण कुमार
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य – 75 रूपए

उमेश चतुर्वेदी
कविताओं में चित्रों का संसार कोई नई बात नहीं है। लेकिन कविताओं को पढ़ते वक्त कूची के कमाल का आभास बहुत कम कविताओं के साथ ही हो पाता है। लेकिन अर्पण कुमार के ताजा संग्रह मैं सड़क हूं की कविताओं को पढ़ते हुए यह अनुभव बार-बार होता है। उनकी कविताओं में सड़क है, नदी है, स्त्री है, धूप है, कुआं है, चाकू है, खूंटी है..आम जिंदगी में रोजाना तकरीबन सबका इनसे राफ्ता पड़ता है..लेकिन इन चीजों से भी संवेदना इतनी गहरे तक जुड़ी हो सकती है...इसे एक संजीदा कवि ही देख सकता है...अर्पण इन्हें देखने और उनके जरिए दर्द और उदासी भरी संवेदनाओं को उकेरने में कामयाब हुए हैं। मैं सड़क हूं संग्रह में कुल तैंतीस कविताएं हैं। लेकिन उनमें बुढ़ापे में अकेली होती मां भी है, उनका अपना पटना शहर भी है..जिसे पीछे छोड़ आए हैं...जिनके साथ उनकी सुंदर और संजीदा स्मृतियां जुड़ी हैं..लेकिन अब लौटते वक्त उन्हें वह पुरानी उष्मा नहीं मिलती। शायद इसी के बाद उनकी कविता फूट पड़ती है आजकल मैं पटना जंक्शन पर नहीं उतर रहा हूं। अर्पण के इस संग्रह में पिता की कवि छवियां हैं। पेंशनयाफ्ता की जिंदगी जीते पिता हैं, आश्वस्त पिता हैं...असमय बूढ़े हो रहे पिता हैं...लेकिन सबसे मार्मिक कविता है साठवें बसंत में कालकवलित हो चुके पिता..यह कविता जिंदगी के एक अंतहीन गह्वर में छोड़ जाती है। अर्पण के इस संग्रह में एक कविता है मजिस्टर राम का शरणार्थी यह लंबी कविता आजादी के पैंसठ साल बाद भी गांवों की बदहाली और वहां पिछड़े रह गए कमजोर लोगों की शहरों में शरणार्थी की तरह जिंदगी गुजारने की मजबूरी को मार्मिक तरीके से उठाती है। इस कविता को पढ़ने के बाद जिंदगी और विकास के दावे तार-तार होते जाते हैं...इस संग्रह की एक कविता इन दिनों मौजूं बन पड़ी है...महानगर में एक कस्बाई लड़की। इस कविता की कुछ पंक्तियां बेहद संभावनाशील हैं-लक्ष्मण रेखा के पार /निकल पड़ी है वह/ अपने बड़े से जूड़े को कस/असीमित आकाश को/ अपने आंचल में समेटने..इस संग्रह की शीर्षक कविता है मैं सड़क हूंयह कविता नए बिंब खड़ी करती है और बिंबों के जरिए संभावना के नए वितान भी तैयार करती है-तुम मुझे बनाते हो/ और फिर रौंदते हो/ अपने पैरों के जूतों/ अपनी गाड़ियों के पहियों/ और अपनी तेज अंतहीन रफ्तार से..इन कविताओं को पढ़ने बाद लगता है कि अर्पण में काफी संभावनाएं हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह बेहद पठनीय बन पड़ा है। 

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

इंदिरा दांगी के कथा संग्रह मेरी एक सौ पचास प्रेमिकाएं का विमोचन



जानी-मानी कथाकार इंदिरा दांगी के कथा संग्रह एक सौ पचास प्रेमिकाएं का लोकार्पण दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में नामचीन समीक्षक नामवर सिंह ने किया। पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह सहित साहित्य जगत की कई हस्तियां उपस्थित थीं। प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन से आए इस कथा संग्रह में विभिन्न मूड की इंदिरा की १३ कहानियां शामिल हैं। बकौल चित्रा मुद्गल इंदिरा की कहानियां परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व की कहानियां हैं। प्रतिष्ठित साहित्यकार ज्ञानरंजन का भी कथन है कि बुंदेलखंड से बाजार पटल पर आई एक नई लिखावट जिसने कम उम्र और कम समय में अपनी जगह बना ली है। (प्रेस विज्ञप्ति)

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

संघ की कवरेज....


आखिरी किश्त ...
दैनिक भास्कर ने 14 नवंबर को सुदर्शन प्रकरण में तीन खबरें प्रकाशित की है। एक ही शीर्षक सुदर्शन पर मानहानि के मुकदमे की सलाह से प्रकाशित पहली खबर नई दिल्ली से लिखी गई है। पहली खबर में संघ ने सोनिया गांधी को सुदर्शन पर मुकदमा चलाने का सुझाव दिया है। जयपुर से लिखी दूसरी खबर का उपशीर्षक है सुदर्शन हो सकते हैं गिरफ्तार। तीसरी खबर भोपाल से है मैदान में उतर सकता है संघ। यह खबर अंदर के पेज तक फैलाई गई है। दैनिक भास्कर ने 16 नवंबर को दो कॉलम की खबर प्रकाशित की। राजनाथ सिंह के हवाले से लिखी गई खबर का शीर्षक है कांग्रेस भ्रष्टाचार से ध्यान बंटाने को सुदर्शन को दे रही तूल : राजनाथ। भास्कर ने 16 को ही तीन कॉलम की एक खबर भी प्रकाशित की है सुदर्शन व राहुल-दिग्विजय के खिलाफ परिवाद पेश। इंदौर से लिखी इस खबर के साथ तीनों नेताओं के छोटे-छोटे फोटो भी प्रकाशित किया है।

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

आरएसएस की कवरेज....



गतांक 10 से आगे...
राष्ट्रीय सहारा ने 14 नवंबर को फिर लिखा सुदर्शन पर कानूनी शिकंजा कसा। दो कॉलम की इस खबर को अगले पृष्ठ तक फैलाया गया है। राष्ट्रीय सहारा ने 15 नवंबर को तीन कॉलम की खबर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के हवाले से लिखा- संघ के बचाव में उतरे राजनाथ।
पंजाब केसरी ने सुदर्शन प्रकरण को लेकर 14 नवंबर को चार खबरें प्रकाशित कीं। भाषा के हवाले से अखबार ने दो कॉलम की खबर लिखा संघ के पूर्व प्रवक्ता ने सुदर्शन के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का सुझाव दिया।

रविवार, 13 जनवरी 2013

अवनीश सिंह चौहान को सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार

07 जनवरी को जयपुर के भट्टारकजी की नसियां स्थित इन्द्रलोक सभागार में पं. झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान समारोह का भव्य आयोजन किया गया। आयोजन का शुभारम्भ माँ सरस्वती के समक्ष जनरल वी.के. सिंह जी और गुलाब कोठारी जी द्वारा दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता एवं विशिष्ट अतिथि पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह रहे जबकि पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। 
 
तत्पश्चात जनरल वी के सिंह जी और गुलाब कोठारी जी के कर-कमलों से अवनीश सिंह चौहान को सम्मानित किया गया। पत्रिका का वार्षिक 'सृजनात्मक साहित्य सम्मान-2013 के अंतर्गत श्री चौहान को 11000 रू. नकद, सम्मान पत्र और श्रीफल प्रदान किया गया। राजस्थान पत्रिका की ओर से हर साल दिए जाने वाले सृजनात्मक साहित्य पुरस्कारों की घोषणा पहले ही कर दी गई थी। कविता में पहला पुरस्कार युवा कवि अवनीश सिंह चौहान के गीतों को दिया गया। इटावा में जन्मे अवनीश सिंह चौहान युवा कवियों में अपना अहम स्थान रखते हैं। हमलोग परिशिष्ट में प्रकाशित उनके तीन गीत- 'किसको कौन उबारे', 'क्या कहे सुलेखा' तथा 'चिंताओं का बोझ- ज़िन्दगी' आम आदमी के संघर्ष और रोजी-रोटी के लिए उसके प्रयासों को रेखांकित करते हैं और भी कई अनकही पीड़ाओं को बयां करते हैं उनके गीत। अब अवनीश के ये गीत उनके सधः प्रकाशित संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का' में संकलित हैं। 

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

आरएसएस के प्रदर्शन की कवरेज....



गतांक से आगे 9...
नवभारत टाइम्स ने 13 नवंबर को एक ही खबर प्रकाशित की। दिल्ली में संघ मुख्यालय के बाहर कांग्रेसियों के प्रदर्शन की तीन कॉलम की तस्वीरों के साथ प्रकाशित यह खबर भी तीन कॉलम की है और इसका शीर्षक है संघ के खिलाफ हजारों कांग्रेसी सड़कों पर।
लेकिन उसके प्रतिद्वंद्वी अखबार दैनिक हिंदुस्तान ने 13 नवंबर को पांच खबरें प्रकाशित की हैं। पहली खबर आरएसएस कार्यालय पर कांग्रेस का प्रदर्शन महज दो कॉलम की है , लेकिन उसके साथ झंडेवालान पर कांग्रेसियों के प्रदर्शन की पांच कॉलम की तस्वीर प्रकाशित की गई है। दूसरी खबर को हिंदुस्तान टीम ने लिखा है। तीन कॉलम में प्रकाशित इस खबर को सुदर्शन की तस्वीर और ग्राफिक से सजा कर छापा गया है।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

मदद के इच्छुक संपर्क करें

मीडिया मीमांसा ब्लॉग को वेबसाइट में तब्दील करने में बहुत सारे लोगों ने इच्छा जताई है...लेकिन आर्थिक वजहों से फिलहाल ऐसा कर पाना संभव नहीं है...जो लोग मदद कर सकते हैं...वे कृपया संपर्क करें
uchaturvedi@gmail.com

आरएसएस के प्रदर्शन की कवरेज....

गतांक से आगे 8....


सुदर्शन प्रकरण को लेकर द इंडियन एक्सप्रेस की खबर यात्रा बाद में भी जारी रही। अखबार ने 14 नवंबर को प्रकाशित तीन कॉलम की खबर मे सुदर्शन जी का एक कॉलम का फोटो भी लगाया है। इस खबर का शीर्षक है स्यू सुदर्शन : आरएसएस लीडर टू सोनिया। 15 नवंबर को अखबार ने पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के हवाले से लिखा- मूव कोर्ट, स्टॉप स्ट्रीट प्रोटेस्ट्स, सेज राजनाथ टू कांग। दो कॉलम की इस खबर के साथ जाहिर है राजनाथ सिंह का छोटा सा फोटो भी है। इसी दिन यानी 15 नवंबर को अखबार ने प्रकाशित किया है सुदर्शन्स कमेंट सोनिया रिमार्क्स हैव लोवर्ड हिज स्टेटस। एक कॉलम की पीटीआई की यह खबर इंदौर दौरे पर आए पूर्व भाजपा नेता गोविंदाचार्य के हवाले से लिखी गई है।