गुरुवार, 14 जून 2012



हिंदी प्रदेश में हिंदी का हाल
उमेश चतुर्वेदी

(यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हो चुका है।)
पिछली सदी के नब्बे के दशक में नई आर्थिकी की आगोश में देश जाने की तैयारी कर रहा था, तब कई सवाल उठे थे। इनमें निश्चित तौर पर आर्थिक मसलों से जुड़े सवाल ज्यादा थे। लेकिन लगे हाथों संस्कृति और भारतीय भाषाओं की भावी हालत को लेकर खासी चिंताएं जाहिर की गई थीं। इन चिंताओं का केंद्रीय बिंदु यह आशंका ही थी कि बाजार आधारित नई आर्थिकी ना सिर्फ संस्कृति के क्षेत्र में ही नकारात्मक दखल देगी, बल्कि देसी भाषाओं पर भी असर डालेगी। नई आर्थिकी के पैरोकारों ने इन चिंताओं को निर्मूल करार देने में देर नहीं लगाई। उनके तर्कों का आधार बनी बाजार की भाषा के तौर पर चिन्हित होती हिंदी और उसका बाजार आधारित विस्तार। लेकिन हिंदी भाषी राज्यों के हृदय प्रदेश उत्तर प्रदेश के दसवीं के नतीजों ने उस खतरे  को पहली बार सतह पर ला खड़ा किया है, जिसकी आशंका नब्बे के दशक मे भाषाशास्त्री उठा रहे थे।