बुधवार, 8 अगस्त 2012


(यह लेख बहुवचन में प्रकाशित हुआ है)
नई आर्थिकी, कारपोरेट कल्चर और मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
दुनिया जैसी भी है, बनी रहेगी और चलती रहेगी ।
वाल्टर लिपमैन, अमेरिकी पत्रकार
भारतीय दर्शन में भी जीवन और दुनिया को लेकर कुछ वैसी ही धारणा रही है। जैसा वाल्टर लिपमैन ने कहा था। इस कथन में नियति को स्वीकार करने का भी एक बोध छुपा हुआ है।  दुनिया और अपने आसपास के माहौल में मौजूद तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बावजूद यह नियतिवादी दर्शन ही उसके प्रति विरोध और विद्रोह की संभावनाओं को खारिज करता रहता है। कहना न होगा कि इसी नियतिवाद का शिकार इन दिनों भारतीय मीडिया और उसमें सक्रिय लोग भी हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपनी नियति से विद्रोह करना नहीं चाहते। लेकिन नई आर्थिकी ने जिस तरह खासतौर पर महानगरीय जिंदगी को आर्थिक घेरे में ले लिया है, वहां विरोध और विद्रोह की गुंजाइश लगातार कम होती गई है। कर्ज के किश्तों पर टिका जिंदगी की जरूरतें और आडंबर ने मीडिया में काम कर रहे लोगों को भी इतना घेर लिया है कि तमाम तरह की विद्रूपताओं के बावजूद इसे झेलने के लिए मजबूर हैं।
हालांकि कभी-कभार कोई विरोध के स्वर दिखते भी हैं तो वह किसी भड़ासी या मोहल्लावादी संजाल पर साया होकर तिरोहित हो जाते हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया को लेकर उठ रहे वे सारे सवाल सिर्फ बाहरी लोगों के लिए चर्चा के सवाल बनकर रह गए हैं, जिन पर कायदे से मीडिया के अंदरूनी हलकों में भी विचार होना चाहिए था और उसके लिए नई राह निकालनी चाहिए थी।
मीडिया के अब तक तीन दायित्व गिनाए जाते रहे हैं-  सूचना देना,शिक्षा देना और मनोरंजन करना। मीडिया के जरिए दी जाने वाली शिक्षा का असर कितना व्यापक होता रहा है, इसे समझने के लिए लोकमान्य तिलक का वह बयान याद कर लेना चाहिए, जो उन्होंने केसरी निकालने के बाद दिया था। केसरी निकालने से पहले वे अध्यापक थे। केसरी निकालने के बाद उन्होंने कहा था कि वे अब जगद्गुरू बन गए हैं। मीडिया के विस्तारित असर को इस एक बयान से समझा जा सकता है। लेकिन तब मीडिया के इस व्यापक असर का उपयोग मानवता और सरोकारों के लिए किया जाता था। लेकिन कारपोरेट दौर के मीडिया के लिए सरोकार और मानवता दूसरी प्राथमिकता है। अगर मानवता के सवाल को लेकर सत्ता या कारपोरेट के हित नहीं टकराते तो उसके लिए वह खबर अनदेखी ही रह जाती है। 2007 में नोएडा के एक पॉश इलाके से एडोबी के सीईओ के बेटे का अपहरण हो गया। चूंकि मसला यह कारपोरेट से जुड़ा था, लिहाजा यह देश की सबसे बड़ी खबर बन गई। तब तक नोएडा के ही निठारी के 36 बच्चे लापता हो चुके थे। लेकिन उनकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था। लेकिन जैसे ही निठारी को लेकर उत्तर प्रदेश की सत्ता तंत्र पर सवाल उठने लगे, वह खबर भी कारपोरेट कल्चर के मीडिया की सुर्खियां बन गईं। यह सिर्फ इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि तब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले थे और इस चुनाव में केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस से लेकर सत्ता पर निगाह गड़ाए बैठी बीएसपी तक का राजनीतिक स्वार्थ छुपा हुआ था। एक दौर ऐसा भी आया कि वोटों के चलते उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आने लगा। चूंकि राजनीति से कारपोरेट का सीधा रिश्ता अब अनबूझा नहीं रह गया है, लिहाजा कारपोरेट मीडिया के लिए निठारी की खबर भी अप मार्केट खबर बन गई। अगर किसी को शक हो कि मीडिया ने सरोकार और मानवता के नाम पर सवाल उठाए तो वह भ्रम में है। यह बात और है कि जब ऐसी खबरों को बेचने की बारी आती है तो कारपोरेट मीडिया भी खुद को सरोकारी बताने से पीछे नहीं हटता।
सवाल यह है कि आखिर सरोकार क्यों आगे आता है। इसको समझने के लिए हमें कम से कम भारतीय पत्रकारिता के विकास के ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। भारत में पत्रकारिता की शुरूआत जिस जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने की थी, उनका सीधा मकसद था ईस्ट इंडिया कंपनी के भ्रष्टाचार को उजागर करना। इसके लिए उन्होंने कीमत चुकाई। यानी भारतीय पत्रकारिता की नींव ही विरोध और सरोकार के दर्शन पर टिकी है। बाद में भाषाई पत्रकारिता ने विरोध के इसी दर्शन के जरिए राष्ट्रीय सवालों को उठाया। भारतीय पत्रकारिता में मूल्यों और सरोकारों को समाहित करने का दौर स्वतंत्रता आंदोलन में शुरू होता है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय पत्रकारिता का विकास चूंकि स्वतंत्रता आंदोलन की कोख से हुआ है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद यही वजह है कि कम से कम भारतीय प्रिंट माध्यमों में सरोकार और मूल्यों का असर आज भी है। दो सौ साल के इतिहास और दौर से हासिल मूल्य आसानी से तिरोहित नहीं हो सकते। लेकिन दुर्भाग्यवश आज का कारपोरेट मीडिया इसे लगातार नकार रहा है। उसके लिए मीडिया भी कम खर्च में ज्यादा मुनाफा कमाने का जरिया बन गया है। लिहाजा उसे भी मीडिया के इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं है। विदेशी विद्वान हेबरमास ने जिस सार्वजनिक क्षेत्र यानी लोकवृत्त की अवधारणा दी थी, अगर भारतीय पत्रकारिता में वह दिखता या विकसित होता नजर आ रहा है तो वह स्वतंत्रता आंदोलन में ही नजर आता है। इसी दौर में संस्थानों का विकास होता है, सार्वजनिक विचारों का विकास होता है और देश-समाज को लेकर प्रगतिशील अवधारणाएं विकसित होती हैं। आजादी के बाद के कुछ दशकों तक यह अवधारणा मीडिया को नैतिक रूप से नियंत्रित करती रही। लेकिन जैसे ही आपातकाल लगा तो इस अवधारणा ने एक धार को हासिल कर लिया। तब चूंकि लोकतंत्र और आमलोगों के सवाल केंद्र में थे, लिहाजा मीडिया ने उन सवालों को हाथोंहाथ लेने में गुरेज नहीं किया। लेकिन आज सवाल पर सवाल उठते रह जाते हैं, जनता के बीच आंदोलन होते रह जाते हैं, लेकिन कारपोरेट कल्चर में रचे-पगे नए मीडिया का ध्यान इन खबरों पर तभी जाता है, जब उसके पीछे कोई राजनीति या कोई कारपोरेट स्वार्थ होता है। इन अर्थों में मीडिया की स्वतंत्रता की वह अवधारणा ही सवालों पर उठ खड़ी होती है, जिसे जॉन मिल्टन ने सत्रहवीं सदी में दी थी। कमोबेश उसी अवधारणा पर आधारित आजादी के ही सहारे लोकतांत्रिक समाजों में मीडिया काम करता रहा है। जिसमें कालांत्र में नैतिक धाराएं शामिल होती गईं। यह माना जाने लगा कि बिना आजाद मीडिया के लोकतंत्र का न तो अस्तित्व हो सकता है और न ही विकास। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी ने भी मीडिया की आजादी की अवधारणा पर विचार किया। उनका मानना था कि विज्ञापन के सहारे चलने वाला मीडिया आजाद नहीं हो सकता। दक्षिण अफ्रीका के अपने फीनिक्स आश्रम में उन्होंने बरसों तक घाटा सहकर भी इंडियन ओपीनियन प्रकाशित किया। देश में हरिजन और यंग इंडिया के प्रकाशन का आधार भी ग्राहकों से मिलने वाला चंदा या कीमत ही रहा, विज्ञापन नहीं रहा। गांधी कितने सही थे, उनकी सोच कितनी दूरंदेशी थी, वह आज के दौर में साफ नजर आ रही है। अगर किसी आंदोलन से विज्ञापनदाता या ऐसे रसूखदार को नुकसान हो सकता है, जो मौजूदा कारपोरेट मीडिया को फायदा पहुंचाता रहता है तो उस आंदोलन की खबर आती ही नहीं। अगर खबर आती भी है तो तब, जब जनता के बीच से प्रकाशन या प्रसारण की साख पर संकट और सवाल उठ खड़े होते हैं। जॉन मिल्टन की अवधारणा के चलते कारपोरेट दौर में भी मीडिया की साख की पूंजी सिर्फ और सिर्फ पाठक या दर्शक ही हैं। लिहाजा मीडिया को एक बार फिर दर्शक या पाठक के दरबार में आना पड़ता है और असहज लगने वाली खबरें दिखानी- छापनी पड़ती हैं। लेकिन यह भी सिर्फ रस्मी ही होता है।
यह सच है कि हिंदी मीडिया ने मौजूदा दौर में संपादकों की साख को खत्म कर दिया है। संपादक सिर्फ इसलिए रखे जाते हैं, क्योंकि प्रेस एंड बुक रजिस्ट्रेशन यानी पीआरबी एक्ट के मुताबिक संपादक की तैनाती की कानूनी बाध्यता है। लेकिन ऐसे लोग संपादक रखे जाते हैं, जो कारपोरेट कल्चर में सिर्फ हां में हां मिलाएं और खबरों के गोरखधंधें में शामिल रहें। इसके लिए इन दिनों संपादकों को भरपूर मुआवजे का इंतजाम भी है। बाहर से देखने वाले संपादक संस्था के इस क्षरण को लेकर सिर्फ पत्रकारीय जमात को ही दोषी ठहराते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अब कारपोरेट ही नहीं चाहता कि रीढ़ वाले लोग संपादक बनें। क्योंकि अगर वे बनें तो उन्हें जॉन मिल्टन की अवधारणा और गांधी के विचार याद आने लगेंगे। मौजूदा कारपोरेट कल्चर में इन विचारों के जरिए पैसे तो कमाए नहीं जा सकते। लिहाजा ऐसे लोगों का नाम चर्चा में आया नहीं कि उन्हें किनारे लगाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं। यही वजह है कि छद्म बौद्धिक आवरण वाली शख्सीयतें ही इन दिनों संपादकीय प्रमुख की भूमिकाएं हासिल कर रही हैं। यह गिरावट नई आर्थिकी से जुड़े टेलीविजन चैनलों में ज्यादा दिखती है। सबसे दिलचस्प यह है कि यह सब सिर्फ और सिर्फ प्रोफेशनलिज्म के नाम पर होता है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है न कि खोटे सिक्कों की अधिकता बाजार से असल सिक्कों को गायब कर देती है। पत्रकारिता में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है। इसका एक असर मीडिया संस्थानों में प्रतिभाओं को कुंठाओं के बीच आगे बढ़ते देखा जा सकता है। एक दौर में हनक और खुद के चुनाव के दम पर आने वाली प्रतिभाएं अब पत्रकारिता की ओर कम रूख कर रही हैं। अगर कोई प्रतिभा आ भी गई तो वह प्रसिद्ध मराठी पत्रकार डी आर मनकेकर की किताब नो माई सन नेवर को ही याद करते हुए भावी प्रतिभाओं को पत्रकारिता में आने से अवरोधित और हताश करता रहता है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि असल पत्रकारिता नहीं हो रही है। आज ज्यादातर असल पत्रकारिता वे लोग कर रहे हैं, जो सीधे तौर पर मीडिया में नहीं हैं और उनकी जीविका मीडिया पर आधारित नहीं है। ऐसे में एक सवाल बड़ी शिद्दत से उठ रहा है कि मिल्टन की अवधारणा के मुताबिक मीडिया की जो स्वतंत्रता है, जिसे भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 19 ए में दिया है, वह किसके लिए है- पत्रकारों के लिए, मीडिया हाउस चलाने वाले कारपोरेट के लिए या फिर कारपोरेट के लिए। लेकिन सबसे हैरत की बात यह है कि इस बुनियादी सवाल को लेकर सार्वजनिक चिंता भी नहीं है। इस चिंता और इस पर आधारित विमर्श को राजनीति आगे बढ़ा सकती है। लेकिन मौजूदा राजनीति में भी सहिष्णुता का वह स्तर नहीं रहा, जो कम से कम दो दशक पहले तक था। लिहाजा कारपोरेट के खेल की तरफ से वह आंख मूंदे बैठी है। उसका एक ही बहाना होता है कि मीडिया की आजादी में खलल डालने का उसका कोई इरादा नहीं है। मीडिया की आजादी में खलन न डालने के इस राजनीतिक बहाने के पीछे कतिपय पत्रकारीय संगठन भी हैं। दिलचस्प यह है कि जिन संगठनों की तरफ से यह विरोध हो रहा है, उनके ज्यादातर कर्ताधर्ता कारपोरेट-राजनीति के खेल में लाभकारी हिस्सेदार हैं।
बहरहाल इन सारी कवायद का असर लोकतंत्र के विकास पर पड़ रहा है। क्योंकि आज का मीडिया लोकतांत्रिक धाराओं की बहुलता का वाहक नहीं रहा है। दूरदराज की आवाजें और दर्द मीडिया की जरूरत तब तक नहीं बनते, जब तक कारपोरेट और राजनीति का कोई फायदा नहीं छुपा हो। मौजूदा मीडिया के ज्यादातर हिस्से को दबी-कुचली आवाजों और अनैतिक कृत्यों से असर नहीं पड़ता। बड़े भ्रष्टाचारियों पर हाथ डालने में उसे हिचक होती है, लेकिन पुलिस का सिपाही और ट्रेन के टीटी के लिए वह रोजाना स्टिंग कर सकता है। मौजूदा सामाजिक ढांचे में मीडिया इतना ताकतवर है कि उसके लिए छोटे अधिकारी और सिपाही जैसी शख्सीयतें कोई मायने नहीं रखतीं। लेकिन राजनीति या कारपोरेट जगत की बड़ी हस्तियों के भ्रष्टाचार की खबरें दिखाने –छापने का सवाल आते ही उसे अपनी हैसियत का अहसास होने लगता है। इसका ही असर है कि पिछले दो दशक में गरीब की उस अनुपात में हालत नहीं सुधरी, जिस अनुपात में करोड़पतियों की हालत सुधरी है। पैसे वाले और मालदार हुए हैं। अब उन्हें अपने धन के अश्लील प्रदर्शन से परहेज भी नहीं रहा। दिलचस्प यह है कि मीडिया इसे वैसे ही पेश करता है, जैसे मध्यकाल तक रजवाड़ों की उपलब्धियों का भाट गुणगान करते थे। लोकतांत्रिक समाज में इसे अब चलन भी मान लिया गया है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या मीडिया ऐसे ही चलता रहेगा। क्या मीडिया की स्वतंत्रता का कारपोरेट या उसे चलाने वाला कारोबारी समूह तय करेगा या फिर पत्रकारों की स्वतंत्रता असल में दी जाएगी। ब्रिटिश और अमेरिकी समाजों में मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब एक हद तक पत्रकारों की स्वतंत्रता ही है। वहां कारपोरेट से ज्यादा संपादक नाम की संस्था तय करती है कि क्या दिखाना या क्या छापना है। हालांकि ऐसा नहीं कि उनके यहां राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होते। बुश सरकार ने खाड़ी युद्ध के दौरान इराक से सही खबरें दिखाने वाले सीएनएन के संवाददाता को नौकरी से निकालने के लिए मजबूर कर दिया था। इराक में जैविक हथियारों की गलत जानकारी के आधार पर ब्रिटेन को खाड़ी युद्ध में झोंकने वाले ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के झूठ की परतें जब खुलीं तो ब्रिटिश सरकार की नाराजगी बढ़ गई। इस खबर को दिखाने वाले बीबीसी के पत्रकारों और महानिदेशक तक को इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन ऐसी घटनाएं वहां के समाज में इक्का-दुक्का होती है, जबकि हमारे यहां ऐसा चलन बन गया है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या मीडिया ऐसे ही चलता रहेगा, समाज का जिम्मेदार तबका इसी धारा को स्वीकार करता रहेगा या फिर मीडिया को नैतिकता की पटरी पर लाने की कोशिश की जाएगी। इस पर विचार होने लगा है। मीडिया प्रोफेशनल का एक वर्ग की मांग है कि मीडिया की मौजूदा स्थिति पर विचार करने के लिए मीडिया कमीशन का गठन होना चाहिए। कुलदीप नैय्यर, रामशरण जोशी,  रामबहादुर राय जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने इसके लिए अभियान छेड़ रखा है। देश में पहला मीडिया कमीशन, जिसे प्रेस कमीशन कहा गया था, पचास के दशक में बना था। तब से लेकर अब तक मीडिया के स्वरूप और संस्कृति में आमूल-चूल बदलाव आ चुका ह। मीडिया की जरूरतें और समाज की सोच में भी बदलाव आ चुका है। मौजूदा समाज में मीडिया को किस तरह आगे बढ़ना चाहिए और उसकी धारा क्या होनी चाहिए, वक्त आ गया है कि उस पर विचार किया जाय। हालांकि कारपोरेट हाउस और कारपोरेट मीडिया इस मांग को उपेक्षित करने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगाए हुए है। लेकिन देर-सवेर यह मांग जोर पकड़ेगी। क्योंकि लोकतांत्रिक समाज देर तक चुप बैठ नहीं सकता। अतीत में उसने साबित किया है कि मूल्यों के सवाल जब भी उठे हैं, उनके लिए समाज का लोकवृत्त उठ खड़ा हुआ है। तब तक हमें इंतजार तो करना ही होगा।
लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार हैं।
उमेश चतुर्वेदी
द्वारा जयप्रकाश, दूसरा तल
एफ-23 ए, निकट शिवमंदिर
कटवारिया सराय, नई दिल्ली - 110016

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