सोमवार, 16 जनवरी 2012




बदलाव का कारगर हथियार बना सोशल मीडिया
उमेश चतुर्वेदी
सोशल नेटवर्किंग साइटों पर  नकेल कसने की तैयारी में जुटी सरकार शायद इसमें कामयाब हो भी जाय। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार इस पर नकेल क्यों कसना चाहती है। दरअसल अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को जितनी तेजी से सोशल नेटवर्किंग साइटों ने वर्चुअल स्पेस में बढ़ावा दिया और फिर इसका असर जमीनी स्तर पर भी पड़ा। जिसके चलते पहले अप्रैल 2011 में सरकार को परेशान होना पड़ा। इसके बाद अगस्त 2011 में तो हद ही हो गई, जब अन्ना हजारे के लिए दिल्ली की सड़कों पर लाखों लोग उतर आए। सही मायने में देखें तो सोशल मीडिया यानी फेसबुक और ट्विटर ने देश में बदलाव की बड़ी भूमिका तैयार करने में मदद ही दी है। भारत में आज अगर भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बना है तो उसमें मुख्य धारा की मीडिया की बजाय सोशल मीडिया का ज्यादा योगदान है। सोशल मीडिया पर बलिया जिले के सुदूरवर्ती गांव बघांव से लेकर कोयंबटूर तक से प्रतिक्रियाएं और सहयोग सामने आ रहा है। इसका असर ही है कि लोगों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होने में देर नहीं लगी और अन्ना का आंदोलन देखते-देखते जनआंदोलन बन गया।
सोशल नेटवर्किंग साइटें सकारात्मक बदलाव की दुनिया में कैसी भूमिका निभा रही हैं, इस पर कायदे से अभी तक अपने देश में शायद ही रिसर्च हुआ हो। लेकिन ब्रिटेन में सोशल साइटों के जरिए आ रहे सकारात्मक बदलाव को लेकर एक अध्ययन कराया गया है। जिसकी रिपोर्ट हाल ही में आई है। यह अध्ययन किसी छोटे-मोटे संस्थान ने नहीं कराया है, बल्कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने कराया है। इस अध्ययन के मुताबिक सोशल मीडिया ने बीते साल बदलाव की बड़ी भूमिका निभाई है। इस अध्ययन के मुताबिक ब्रिटेन में आम चुनाव के दौरान प्रचार अभियान और राजनीतिक रिपोर्टिंग में सकारात्मक बदलाव लाने में सोशल मीडिया का अहम योगदान रहा। इस अध्ययन रिपोर्ट पर भारत में भी गौर फरमाया जाना चाहिए। वैसे यह यहां के लिए भी काफी मायने रखता है, क्योंकि दिग्गविजय सिंह और शशि थरूर ही नहीं, अब सुषमा स्वराज जैसे राजनेता भी अपनी बात रखने के लिए बड़ी तेजी से टि्वटर का इस्तेमाल कर रहे हैं और और राजनीतिक रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों के लिए खबरों के एक बड़े स्रोत के तौर पर ट्विटर भी उभर कर सामने आया है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की इस रिपोर्ट के नतीजे सकारात्मक बदलाव की ओर संकेत कर कर रहे हैं। इस अध्ययन के मुताबिक राजनेताओं और पत्रकारों ने यह सीख लिया है कि सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट का इस्तेमाल कैसे किया जाए। इन वेबसाइटों की वजह से पिछली छह मई को ब्रिटेन में हुए आम चुनावों के दौरान 18 से 24 साल की नौजवानों ने मतदान में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। जबकि ब्रिटेन के युवाओं में मतदान को लेकर हाल के दिनों में भारी गिरावट देखने को मिल रही थी। बहरहाल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने यह सर्वे तीन से आठ मई के बीच कराया था। जिसका मकसद चुनावी रुझानों की जानकारी हासिल करना था। हालांकि राष्ट्रव्यापी अध्ययन के मुताबिक 18 से 24 साल के युवाओं ने माना कि उन्होंने आम चुनाव पर टिप्पणी के लिये सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल किया। उनमें से 81 प्रतिशत ने चुनाव अभियान में अपनी दिलचस्पी दिखाई। इस सर्वे के मुताबिक इस आयु वर्ग के युवा मतदाताओं ने राजनीतिक गतिविधियों से जुड़ी ज्यादातर  सूचनाएं ऑनलाइन मीडिया के जरिये हासिल की। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म की ओर से प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक फेसबुक जैसे सोशल मीडिया से जुड़ने और टीवी एवं रेडियो पर विज्ञापनों से प्रभावित होकर करीब पांच लाख लोगों ने चुनाव आयोग की वेबसाइट पर मौजूद रजिस्ट्रेशन फॉर्म का इस्तेमाल किया। इनमें से आधे से अधिक 18 से 24 साल के युवक थे। वैसे अपने देश में भी राजनीतिक और चर्चित हस्तियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के माध्यम के तौर पर ट्विटर तेजी से उभरा है। ट्विटर को लेकर भी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने शोध किया है। इसी शोध के मुताबिक टि्वटर ने राजनीति और मीडिया जगत में संचार के एक बेहद अहम औजार के रूप में अपनी पहचान बनाई है। यह पत्रकारों और राजनेताओं के लिए रियल टाइम इन्फॉर्मेशन का जरूरी स्रोत बन गया है। इस शोध के मुताबिक ब्रिटेन में आम चुनाव अभियान के दौरान 600 राजनीतिक उम्मीदवार टि्वटर से जुड़े थे। इनके अलावा सैकड़ों पत्रकार और पार्टी कार्यकर्ता भी सोशल मीडिया से जुड़े थे। ब्रिटेन की नई संसद के करीब 200 सदस्य टि्वटर पर सक्रिय हैं। इनमें से पांच कैबिनेट मंत्री भी हैं।

वैसे 2011 के शुरूआती दिनों में भी सोशल मीडिया की ताकत दुनिया ने देख ली। जब मिस्र के बरसों से जमे शासक हुस्नी मुबारक के खिलाफ लोगों का हुजूम काहिरा के तहरीर चौक पर जमा हो गया। सोशल नेटवर्किंग साइटों ने इसे आगे बढ़ाने में बेहतर भूमिका निभाई। देखते ही देखते यह दुनिया का सबसे बड़े आंदोलन और प्रदर्शन के तौर पर स्थापित हो गया। सोशल मीडिया के जरिए बढ़े इस आंदोलन का नतीजा ही रहा कि हुस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल होना पड़ा और अब वहां संसदीय चुनाव हो रहे हैं। इतना ही नहीं सीरिया के मौजूदा शासक  बशर अल-असद, यमन के राष्ट्रपति सालेह और लीबिया में कर्नल गद्दाफी के शासन के खिलाफ जन विद्रोह में सोशल साइट्स की महत्वपूर्ण भूमिका जबर्दस्त रही। शायद यही वजह है कि चीन में सोशल साइटों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। चीन को डर है कि सोशल साइटों के जरिए नौजवान एक बार फिर इकट्ठे हो सकते हैं और थ्येन ऑन मन चौक की घटना एक बार फिर दोहराई जा सकती है।
अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान बराक ओबामा की जीत में सोशल मीडिया ने भी अहम भूमिका निभाई थी। ओबामा के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जार्ज बुश की इराक और अफगान नीतियों के खिलाफ जनता में भारी असंतोष था। करीब अमेरिका की मुख्यधारा की मीडिया की इसमें खास भूमिका नहीं रही। उस समय अमेरिकी मीडिया भी भारतीय मीडिया की तरह असल तसवीर पेश नहीं कर रहा था। लेकिन करीब तीन लाख ब्लॉगर सोशल मीडिया और ब्लॉग के जरिए बुश की नीतियों की कलई खोल रहे थे। नतीजा सामने रहा। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार जॉन मैकेनन, बराक ओबामा की तुलना में बेहतर उम्मीदवार होने के बावजूद चुनावी मैदान में खेत रहे।
सोशल नेटवर्किंग साइटों ने निजी जिंदगी में भी बदलाव की भूमिका निभाने में बड़ी भूमिका निभाई है या निभा रही है। अभी हाल के दिनों में कुछ पत्रकारों को गंभीर बीमारी का सामना करना पड़ा। उनके पास पैसे नहीं थे। सोशल नेटवर्किंग साइटों पर इसके लिए अपील की गई और देखते ही देखते जाने-अनजाने हर तरफ से सहायता आने लगी। सिर्फ पत्रकारों की ही क्यों, समाज के किसी भी वर्ग की सहायता करने में ये साइटें बेहतर भूमिका निभा रही हैं। लोगों को सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भरोसा इतना बढ़ गया है कि वे अपनी कंप्यूटर की गड़बड़ियों से लेकर जरूरी सूचनाओं के लिए सोशल साइटों का सहारा लेते हैं और उनकी समस्या के समाधान के लिए कोई न कोई मिल ही जाता है। बिछड़ों को मिलाने में पहले संयोग की सहायता करते थे, लेकिन अब इन सोशल नेटवर्किंग साइटों का विज्ञान इन संयोगों को दरकिनार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

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