गुरुवार, 21 जुलाई 2011

प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का पहला बलिया फिल्म फेस्टिवल

2006 से जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का उन्नीसवां और बलिया का पहला प्रतिरोध का सिनेमा फिल्म फेस्टिवल आगामी 10 और 11 सितम्बर को बलिया के बापू भवन टाउन हॉल में सुबह 10 बजे से होने जा रहा है। टाउन हॉल बलिया बलिया रेलवे स्टेशन के बहुत नजदीक है। जल्द ही हम अपने ब्लॉग www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.comपर कार्यक्रम का विस्तृत ब्यौरा देंगे।
इस फेस्टिवल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के वृत्त चित्र, लघु फिल्म और फीचर फिल्मों के अलावा संकल्प, बलिया द्वारा भिखारी ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक बिदेशिया का मंचन भी किया जाएगा। इसके साथ ही गोरख पाण्डेय की कविता पोस्टरों और जन चेतना के चितेरे के नाम से प्रगतिशील चित्रकार चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के प्रतिनिधि चित्रों की प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है। फिल्म फेस्टिवल में प्रमुख भारतीय फिल्मकारों के शामिल होने की भी संभावना है।
प्रतिरोध के सिनेमा अभियान के दूसरे फिल्म फेस्टिवलों की तरह यह फेस्टिवल भी बिना किसी सरकारी, गैर सरकारी और एन जी ओ की स्पांसरशिप के आयोजित किया जा रहा है। प्रतिरोध की संस्कृति के इच्छुक ईमानदार सामन्य जन ही इसके स्पांसर हैं। इसलिए आपसे अनुरोध है कि इस आयोजन में हर तरह से शामिल होकर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को सफल और मजबूत बनाएँ। इस पूरे आयोजन में प्रवेश नि:शुल्क है और किसी भी प्रकार के औपचारिक निमंत्रण की जरुरत नही है। इस बारे में और जानकारी संकल्प ,जन संस्कृति मंच, बलिया के सचिव आशीष त्रिवेदी से उनके फोन नंबर 09918377816 या ashistrivedi1@gmail.com से हासिल की जा सकती है। (प्रेस विज्ञप्ति)

सोमवार, 18 जुलाई 2011

रचनाधर्मिता की नई जमीन

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी की युवा रचनाधर्मिता इन दिनों कुछ ज्यादा ही उत्साही हो गई है। युवा उत्साह कई बार नई राह खोजने को प्रेरित करता है और इस दौरान खतरे से खेलने की प्रेरणा भी लेता है। उसे कामयाबी और नाकामयाबी की चिंता कम ही परेशान करती है। राजधानी दिल्ली के साहित्यिक गलियारों में इन दिनों हिंदी के कुछ युवा साहित्यप्रेमियों के इस उत्साह को खासतौर पर रेखांकित किया जा सकता है। ये युवा नई तरह से साहित्य का आलोचन कर रहे हैं और उसका नये-नए पाठों की खोज भी कर रहे हैं। इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिल रही है, इसका मूल्यांकन करना फिलहाल मुश्किल है, लेकिन यह सच है कि उन्होंने साहित्य की रपटीली राह की कंकड़ भरी जमीन को तोड़ कर उसे नई सज्जा देने की कोशिश जरूर की है। वाणी प्रकाशन के पुनर्पाठ कार्यक्रम को साहित्यिक की रपटीली-पथरीली जमीन को तोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। पिछले दिनों वाणी ने मशहूर कथाकार यशपाल की रचना दिव्या के पुनर्पाठ का आयोजन किया तो उसकी कामयाबी को लेकर चिंताएं भी जताई गईं। क्योंकि इस एक रचना का पाठ दो पीढ़ियों के जरिए होना था। एक ही रचना को लेकर दो पीढ़ियां किस तरह सोचती हैं और एक ही रचना को वे कैसे लेती हैं, इस पुनर्पाठ में आना ही था। और हुआ भी वैसा ही। दिव्या को जिस तरह पुरानी पीढ़ी के श्रीभगवान सिंह और उनसे युवतर कवियत्री अनामिका ने जैसे लिया है, इन दोनों से युवतर पीढ़ी के दो आलोचकों वैभव सिंह और सत्यानंद निरूपम के पाठ अलग ही थे। और यह होना ही था। प्लेटो साहित्य का जब विवेचन करते हैं तो वे त्रिधाअपेत का सिद्धांत देते हैं। उनके मुताबिक एक विचार रचनाकार के मन में जन्म लेता है और उसे वह मूर्त जब बनाता है तो दरअसल वह अपने विचार की कॉपी करने की कोशिश करता है, लेकिन हूबहू ऐसा नहीं होता। और एक बार जब रचना बन जाती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है और जरूरी नहीं है कि उसका पाठ करने वाला भी हूबहू रचनाकार के मूल वैचारिक आधार को ग्रहण कर सके। यानी एक रचना का तीन बार विचलन होता है और प्लेटो इसे ही त्रिधाअपेत कहते हैं। त्रिधा अपेत की यह धारणा साहित्य शास्त्र की किताबों में सैद्धांतिक तौर पर तो है। लेकिन हर रचना के लिए यह नियम लागू होता है। जरूरी नहीं कि मैं किसी रचना का पाठ जिस तरीके से करूं और उसके बिम्बों को ग्रहण करूं, उसके संदेश को पकड़ूं, कोई दूसरा शख्स भी ठीक वैसे ही पकड़े। क्योंकि किसी भी रचना की ग्रहणशीलता में ग्रहण करने वाले की पृष्ठभूमि और उसके जरिए विकसित ज्ञान का भी महत्वपूर्ण हाथ होता है। जाहिर है कि सबका ज्ञान भी एक जैसा नहीं होता और सबकी पृष्ठभूमि और किसी ज्ञान को समझने की परिस्थियां भी एक नहीं होतीं। ऐसे में संभव है कि एक ही रचना का हर दूसरा शख्स अपने ढंग से पाठ करे। वैसे यह बेहद गूढ़ और वैचारिकता वाला विषय है। लेकिन कहने का मतलब यह है कि हिंदी में अब ऐसी जमीनें तोड़ने की कोशिशें हो रही हैं। निश्चित तौर पर प्रकाशक भी इस दिशा में आगे आ रहे हैं। लेकिन नई रचनाधर्मिता के बिना इस यज्ञ को पूरा माना भी नहीं जा सकता।
हिंदी की साहित्यिक गोष्ठियों में लोग अगर उंघते और उबासियां लेते हुए देखे जाते हैं तो इसकी खास वजह तुम मुझे मीर कहो- मैं तुझे गालिब कहूं की परिपाटी है। शायद ही कभी हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार गोष्ठियों में नई बात कह कर ऊर्जा का संचार करने की कोशिश करते हों। जहां ऐसा माहौल रहा है, वहां नई रचनाधर्मिता की यह कोशिश निश्चित रूप पर सराही जानी चाहिए। वैसे भी पुनर्पाठ जैसे आयोजनों में नए पाठकों और छात्र-छात्राओं की उपस्थिति ज्यादा ही दिख रही है। किसी रचना के तमाम पाठों से उनका साबका पड़ रहा है और इसे वे अपनी रचनात्मक जिंदगी की उपलब्धि के तौर पर देख रहे हैं। निश्चित तौर पर ऐसे आयोजन साहित्य से ना सिर्फ नई पीढ़ी को जोड़ने का सबब बनेंगे, बल्कि साहित्यिक कद्रदानों को बढ़ावा देने में भी मददगार होंगे। जिसका फायदा अंतत: साहित्य को ही होना है।