रविवार, 10 जुलाई 2011

साहित्यिक रिपोर्टर की डायरी

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी साहित्य की आम पाठकों के बीच लोकप्रियता और आदर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है। इस लिहाज से यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि साहित्यिक संसार को लेकर हिंदी में वैसा सकारात्मक और आदरसूचक भावबोध नहीं है, जैसा अंग्रेजी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं में दिखता है। इसकी कई वजहें बताई जाती हैं। इसमें एक वजह तो यह भी है कि हिंदी का मीडिया अपनी साहित्यिक संसार की गतिविधियों की गंभीरता पूर्वक ताकझांक नहीं करता और अपने पाठकों को इसके ताईद उतना चौकस नहीं करता, जितना अंग्रेजी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं में दिखता है। एक हद तक ऐसा होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता में साहित्यकारों को लेकर एक खास तरह का आदरबोध तो दिखता ही है। जिसका साहित्यकार काफी फायदा भी उठाते हैं। तो कई बार वे खुद को
पत्रकारिता के विषय से उपर की शख्सियत समझने लगते हैं। हिंदी की पत्रकारिता में राजनीति और पुलिस की जितनी खिंचाई होती है, शायद ही किसी और क्षेत्र की खिंचाई होती है। ब्लैंक चेक पत्रकारिता और गिफ्ट चलन के दौर में एक हद के बाद कारपोरेट जगत की खिंचाई करने और उसकी मीन मेख निकालने से भी हिंदी पत्रकारिता नहीं चूकती। बाबाओं तक को मीडिया नहीं बख्शती। एक दौर में बाबा रामदेव की हैसियत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी मीटर को बढ़ाने में थी। इसलिए हिंदी टेलीविजन का बड़ा से बड़ा खबरिया चैनल भी उनके कदमों में झुका नजर आता था। रामदेव का योग और प्रवचन से अपनी टीआरपी भवबाधा को पार करने की जुगत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जुटा रहता था। लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में पुलिस कार्रवाई के बाद बाबा फरार क्या हुए, उनकी स्तुति गाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी उनके पीछे पिल पड़ा। बाबा के योग-आसन दिखाने और उनके मुखारविंद से निकले शब्दों को सुनाकर अपने को कृतकृत्य समझने वाले मीडिया के लिए बाबा खलनायक हो गए। लेकिन ऐसा हिंदी में शायद ही दिखता है, जब मीडिया ने किसी साहित्यकार की आलोचना की हो। उलटे साहित्यिक-सांस्कृतिक घटनाओं के साथ ही राजनीतिक घटनाओं तक पर साहित्यकारों के विचार जुटाने के लिए मीडिया जुटा रहता है और पूरे सत्कार समेत यह पुण्य काम करता भी है। इसका फायदा साहित्यकार भी उठाते हैं। पहले उनसे इंटरव्यू के लिए वक्त मांगो तो वे ऐसा व्यवहार करते हैं. जैसे वे दुनिया की सबसे ज्यादा मसरूफ शख्सियत हों। हालांकि उनके दिल में यह उम्मीद बनी रहती है कि रिपोर्टर उनका इंटरव्यू करे और उन पर खबर बनाए। लेकिन दिखावा ऐसे करेंगे, मानो इसकी उन्हें कोई जरूरत ही नहीं रही। कई बार तो सवाल भी दाग देंगे कि उनकी कितनी रचनाएं आपने उस रिपोर्टर ने पढ़ी है। राजनीतिकों और पुलिसवालों की ऐसी-तैसी करने वाले हिंदी रिपोर्टर की ट्रेनिंग ऐसी है या फिर चलन का कमाल कहें कि वह इतने सारे झल्ला देने वाले सवालों के बावजूद साहित्यकार महोदय पर झल्लाता नहीं। उलटे ठंडे दिमाग से धैर्य धारण किए हुए उनके विचारों की अगरबत्ती जलने की प्रतीक्षा करता रहता है। फिर अगर इंटरव्यू दे भी दिया तो उनका रिपोर्टर को एक ही फरमान होगा, इंटरव्यू लिखने के बाद छपने से पहले उन्हें दिखाओ। अब उन्हें कौन समझाए कि अखबार के पास इतना वक्त नहीं होता। उन्हें लिखकर दिखाने और जाहिर है कि वे लिखी हुई चीज में कुछ सुधार करेंगे ही तो उसे ठीक करने के बाद रिपोर्टर के पास वक्त कहां बचता है कि वह रिपोर्ट को उस दिन छपने के लिए अपने दफ्तर को दे सके। इन पंक्तियों के लेखक को भी शुरू में सांस्कृतिक हस्तियों से साक्षात्कार लेने का शौक होता था। इस सिलसिले कई नामी-कमनामी लेखकों का साक्षात्कार लेने का मौका मिला। लेकिन राजेंद्र यादव और पूरन चंद्र जोशी के अलावा अधिकांश साहित्यकारों का एक ही आग्रह था कि इंटरव्यू को लिखने के बाद छपने से पहले उन्हें जरूर दिखाएं। एक सज्जन को इंटरव्यू लिखकर दिखाया भी तो उन्होंने अपनी ही कही हुई बात को यह कहते हुए काट दिया कि उन्होंने तो ऐसा कहा नहीं। राजनेता जिस तथ्य को अपने नाम से नहीं देना चाहते, उसे वे तो जाहिर करते वक्त ताकीद कर देते हैं कि यह ऑफ द रिकॉर्ड है। लेकिन साहित्यकार ऐसी सावधानी भी नहीं बरतते। बहरहाल होना तो यह चाहिए कि साहित्य की दुनिया के लोग भी वैसे ही पत्रकारों का मुठभेड़ करें, जैसे जिंदगी के दूसरे अनुशासनों के लोग करते हैं। लोकतांत्रिक समाज में स्वस्थ संवाद ऐसे ही संभव होता है। निश्चित रूप से इससे साहित्य का भी भला होगा। क्योंकि इन संवादों के जरिए आम लोगों को साहित्य और उसकी अद्यतन गतिविधियों की जानकारी मिलती रहेगी और इस बहाने साहित्य में उनकी दिलचस्पी भी बढ़ेगी।