रविवार, 19 जून 2011

महानगर में विमोचन

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में किताबें तो पहले ही आती थीं, लेकिन उनका भव्य विमोचन कम ही होता था। तब लेखकों-कवियों और साहित्य रसिकों की आपसी बैठक में ही कई बार नई रचनाओं और नए प्रकाशनों का विमोचन हो जाता था। बीस – पच्चीस साल पहले तक दिल्ली की सरहद इतनी फैली नहीं थी, कास्मोपोलिटन बनने की राह पर जब तक दिल्ली नहीं रही, रचनाधर्मिता के उत्सवों में एक खास तरह का अपनापन होता था। उनमें आज के जमाने की तरह भव्यता कम ही दिखती थी, लेकिन अपनापे भरे माहौल में रचनाधर्मिता की आत्मीय किस्म की चर्चाएं जरूर हो जाती थीं। 2009 में आई मशहूर लेखिका निर्मला जैन की पुस्तक – दिल्ली- शहर दर शहर- में इस आत्मीय साहित्यिक उष्मा को महसूस किया जा सकता है। विमोचन- माफ कीजिएगा, अब पुस्तकों के लोकार्पण खूब होते हैं। फाइव स्टार होटलों से लेकर गांधी शांति प्रतिष्ठान के उमस भरे हाल तक में पुस्तक लोकार्पणों की बाढ़ आ गई है। लेकिन उनमें वह आत्मीयता नजर नहीं आती। लोकार्पण के आयोजन के स्तर से लेखक की निजी हैसियत को नापा और समझा जा सकता है। लेखक कितना मालदार या कितना प्रभावी है, सत्ता के गलियारे में उसकी कैसी हनक है, इसका अंदाजा लोकार्पण समारोह की भव्यता से लगाया जा सकता है। लेखक की हैसियत लोकार्पण समारोह तय करते हैं। रचनाधर्मिता और पाठकीयता के स्तर पर भले ही लेखक की पूछ कम हो, लेकिन सत्ता के गलियारे में उसकी हनक हुई, किसी ऐसे पद पर हुआ कि वह किताब की खरीद में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है तो प्रकाशक महोदय उसके लिए थैली खोलकर किसी फाइव स्टार होटल या थ्री स्टार होटल में लोकार्पण समारोह आयोजित करा देंगे। थोड़ी कम हैसियत हुई तो लोकार्पण समारोह इंडिया इंटरनेशनल सेंटर या फिर उसके नवेले पड़ोसी हैबिटाट सेंटर या फिर फिक्की ऑडिटोरियम के किसी वातानुकूलित हॉल में किताब की चर्चा और लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा सकता है। लेखक की हैसियत थोड़ी और कम हुई तो उसके लोकार्पण के लिए त्रिवेणी सभागार, एलटीजी गैलरी या साहित्य अकादमी का हाल मयस्सर हो जाएगा। लेखक प्रभावी लेकिन फाकामस्त किस्म का हुआ तो बाकी उमस भरे हाल उसकी पुस्तक के लोकार्पण के लिए है हीं। इन दिनों रसूखदार सरकारी अफसरों और उनके घर वाले भी लिखने में महारत हासिल करते जा रहे हैं। उनकी किताबों के विमोचन के लिए उनके राज्यों के दिल्ली स्थित निवास आदि के हॉल ही लोकार्पण के नए केंद्र के तौर पर उभर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि लोकार्पण के लिए दिल्ली में रोज हैसियत के मुताबिक किसी न किसी हॉल की बुकिंग हुई पड़ी रहती है। जिसकी जैसी हैसियत, उस स्तर के हॉल में उसका लोकार्पण। लेखक और प्रकाशक की हैसियत लोकार्पण कर्ता की हैसियत से भी तय होती है। बड़े नेता, मंत्री या अफसर ने लोकार्पण किया तो समझो लेखक और प्रकाशक की पौ बारह।
इन लोकार्पण समारोहों में आना और जुटना आत्मीयता से कहीं ज्यादा रस्मी होता है। लोग आते हैं, कुछ रस्मी संवाद अदायगी होती है और अपनी-अपनी मसरूफियत का हवाला देकर चलते बनते हैं। श्रोताओं और दर्शकों की तरह की रस्म अदायगी मंच पर भी होती है। कुछ रस्मी बयानबाजी होती है, तुम मुझे सुनो और मैं तुझे सुनूं की तर्ज पर यह सुनने और सुनाने, बोलने-बोलवाने का खेल होता है। लेकिन इन सबके बीच किताब और उसके विषय को लेकर गंभीर चर्चाएं कहीं गुम हो जाती हैं। कई बार तो होती ही नहीं। लोकार्पण का असल मकसद है – लोकार्पित होने वाली किताब को लेकर गंभीर चर्चा करना और गंभीर टिप्पणियों के जरिए इस किताब की एक तरह से संजीदा पाठकों के लिए मार्केटिंग करना। लेकिन लोकार्पण का आज जो ढर्रा विकसित हो गया है, उसमें यह संजीदापन ही सिरे से गायब है। हिंदी में यह अध्ययन दिलचस्प रहेगा कि रसूखदार लोकार्पणों के बाद उन किताबों की कितनी बिक्री हुई और उसे पाठकों को कितना प्यार मिला। हां, इन सबके बीच दिल्ली में कुछ संजीदा लोग अब भी हैं, जिनके लिए लोकार्पण अपनी व्यस्तताओं के बीच अपने लोगों से मिलने का मौका मुहैया कराते हैं और वे फिर-फिर इसकी तलाश में लोकार्पण की रस्म अदायगी में आना पसंद करते हैं।