बुधवार, 8 जून 2011

मीडिया या बाजार

यह लेख एक अनाम व्यक्ति ने भेजा है। लेखक लगता है कि मीडिया में ही हैं।

ग्लोबल इंडिया में सब कुछ बाजार तय करता है और कर रहा है। बात किसी उत्पाद को बेचने की हो या फिर अपने तय क्षेत्रों में आगे बढ़ने की, मार्केटिंग जरूरी है। यानी फंडा साफ है। अगर करियर में कामयाबी, सफलता की बुलंदियों को हासिल करना है तो खुद को पहले एक प्रोडक्ट मानना होगा, उसे चमकाना होगा। वैसे, जरूरी ये भी नहीं है कि चमक लाई ही जाए क्योंकि चाटुकारिता के सामने काबिलियत कहीं नहीं ठहरती। इसलिए जिसने ये हुनर सीख लिया, उसे कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है। खबरों के बाजार में उसे मोटी कीमत मिलनी लगभग तय है। मीडिया का काम है सच सामने लाने, बिना लाग लपेट हकीकत बयां करना। मगर, समाज को रौशन करने का जज्बा दिखाने वाले मीडिया के भीतर कितना अंधेरा है, क्या इसे देखने की कभी कोशिश होती है। कम वेतन, न्यूनतम सहूलियतों के साथ सैकड़ों-हजारों नौजवान मीडिया की मंडी में जुझारू बैल की तरह जोते जा रहे हैं। फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसकी महीने की तनख्वाह पक्की ही है। कहने का मतलब ये कि मंदी के छंटने के बावजूद मीडिया में कृत्रिम मंदी बनी हुई है। लिहाजा नौकरी बची रहे इसके लिए बॉस की गाली भी लोरी समझना मजबूरी बन चुकी है। हां, ये अलग बात है कि कुछ लोग ये कथित लोरी सुनने को न राजी हैं और मजबूर। ये भी नहीं है कि भीड़ में शामिल इन लोगों का कोई गॉड फादर या गॉड मदर है। बल्कि इन्हें हौसला और उम्मीद देने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग हैं। पारिवारिक परिवेश इनकी मजबूती का एक बड़ा कारण है, जिसके बल बूते ये डटे हुए हैं बिना डरे और बिना हारे। सिफारिश किस पेशे में नहीं चलती। लेकिन जो हाल मीडिया घरानों का है, वो भी किसी से छिपा नहीं है। इन दिनों एक और अजीबो गरीब ट्रेंड चल पड़ा है खेमों का। कौन किस खेमे से आता है, किसका खेमा कब किस पर भारी पड़ जाए किसी को नहीं मालूम। पल भर में मीडिया संस्थान में रक्तविहिन सत्ता परिवर्तन हो जाता है। विकेट गिरने लगते हैं। मगर, इस बदलाव से क्या संस्थान को, पत्रकारिकता को कोई फायदा होता है। ये जानने या समझने की शायद ही कोई कोशिश होती है। ये खेल उन संस्थानों में ज्यादा खेला जा रहा है, जिनका न पत्रकारिता से कोई लेना देना है और न ही मीडिया के सामाजिक-आर्थिक दायित्वों से। इन कथित टीवी चैनलों में बेरोजगार होने का खौफ इतना ज्यादा है कि इंसानियत भी शर्मसार हो जाए। कह सकते हैं कि यहां भविष्य संवरता नहीं बल्कि लोग डिप्रेशन, गुस्से, कटुता के दलदल में फंस कर रह जाते हैं। शीर्ष चैनलों में हालत थोड़ी ठीक कही जा सकती है। लेकिन यहां भी खेल कम नहीं होता। एक बड़े चैनल में दाखिला पाने के लिए जितनी बड़ी पैरवी होगी, आपका काम उतनी ही आसानी से होगा। परीक्षा या इंटरव्यू तो महज ढोंग है। नौकरी चुटकियों में आपके पास होगी। एक और बड़े चैनल का ये हाल है कि प्रोग्राम बनाने वाले को प्रश्न तैयार करने के लिए चैनल के बाहर के लोगों से मदद लेनी पड़ती है। यानी सवाल और रिसर्च बाहर वाले करते हैं, जबकि श्रेय प्रोग्राम के प्रोड्यूसर को मिलता है या फिर चैनल को। कहने का आशय ये कि बड़े मीडिया घरानों में इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वहां का मानव संसाधन उत्कृष्ट ही होगा। फिर भी आपकी सीवी में किसी बड़े मीडिया हाउस का टैग होगा, तो समझिए बल्ले-बल्ले। जबकि सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि छोटे संस्थानों में भी मेरिट बसता है। काबिल लोग होते हैं। दिक्कत सिर्फ ये कि उन्हें जो मौका मिलना चाहिए नहीं मिलता। वे चाहे तो वहीं सड़ते,घुटते रहते हैं या फिर अपना पेशा ही बदल देते हैं। आखिर कब बदलेगी मीडिया की ये सूरत। कब समझेंगे लोग कि पत्रकारिता कारोबार नहीं और न पत्रकार नेता। इसलिए कृपा कर कारोबार का काम व्यापारियों को संभालने दें और राजनीति नेताओं को ही करने दें। नौजवानों का भविष्य न बिगाड़ें।

सोमवार, 6 जून 2011

क्यों नहीं चमक सकता हिंदी किताबों का बाजार

उमेश चतुर्वेदी
विलायत में भले ही अंग्रेजी किताबों का बाजार दो से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा हो, लेकिन उदारीकरण के दौर के भारत में यह विकास दर 15 से 20 प्रतिशत सालाना है। एक अंग्रेजी अखबार का दावा है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का व्यापार करीब आठ हजार करोड़ का हो गया है। यानी उदार भारत के लोगों की उदारता विलायती भाषा की तरफ तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक दुनिया में इतना बड़ा बाजार होगा तो खबर भी होगी ही। यही वजह है कि अब अंग्रेजी प्रकाशनों की दुनिया में लोगों की नौकरियां बदलने या फिर नई जिम्मेदारी संभालने की खबरें मुख्यधारा की पत्रकारिता की बड़ी खबरें बन रही हैं। अगर डेविड दाविदार जाने-माने प्रकाशक रूपा द्वारा स्थापित एलेफ नामक प्रकाशन संस्थान के प्रमुख बनते हैं और उसकी खबर अंग्रेजी के जाने-माने अखबारों की सुर्खियां बनती है तो इसी से पता लगाया जा सकता है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का कितना बड़ा बाजार खड़ा हो गया है। अभी तक अंग्रेजी लेखन की ही धूम की चर्चा होती थी। अमिताभ घोष, अरूंधती रॉय, विक्रम सेठ, झुंपा लाहिरी, शिव खेड़ा जैसे लेखकों के बहाने अंग्रेजी लेखन की धूम की ही चर्चा रहती थी। लेकिन अब अंग्रेजी के बढ़ते बाजार के चलते अंग्रेजी प्रकाशनों के प्रमुखों के नौकरियां बदलने और मोटे प्रस्तावों को खबर बनाया जाने लगा है। हाल ही में हार्पर कॉलिन्स के प्रबंध संपादक और राइट्स एडिटर सुगत मुखर्जी ने पिकाडोर के प्रकाशक और संपादक का दायित्व संभाला है। पिकाडोर की योजना अगले साल तक 30 शीर्षकों को प्रकाशित करना है। कुछ इसी तरह पिकाडोर की मार्केटिंग और संपादकीय प्रमुख रहीं श्रुति देव ने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक एजेंसी ऐटकिन एलेक्जेंडर एसोसिएट्स के दिल्ली दफ्तर का कामकाज संभाल लिया है। इसी तरह अंग्रेजी की दुनिया का जाने-माने प्रकाशन संस्थान रैंडम हाउस के बारे में कहा जा रहा है कि वह भारत में अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है। इसी तरह चिकी सरकार पेंगुइन के प्रमुख संपादक का दायित्व संभालने जा रहे हैं। इसके पहले यह दायित्व रवि सिंह के पास था, ऐसा माना जा रहा है कि रवि सिंह रूपा की नई सहयोगी कंपनी एलेफ को ज्वाइन कर सकते हैं। अंग्रेजी प्रकाशन की दुनिया में इतनी तेजी इसलिए देखी जा रही है, क्योंकि माना जा रहा है कि भारतीय लेखकों की तरफ दुनिया देख रही है। लेकिन ये भारतीय लेखक असल में अंग्रेजी के ही लेखक हैं। देसी भाषाओं के लेखकों की तरफ दुनिया का ध्यान खास नहीं है। अपने बेहतर या टुटपूंजिए संपर्कों के जरिए भारतीय भाषाओं के एक-आध लेखकों ने अंग्रेजी या पश्चिम के बाजार में दखल देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन उनकी पहचान चींटीप्रयास से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों का विशाल इलाका होने के बावजूद उनकी पूछ और परख या बाजार में उनकी वैसी धमक क्यों नहीं बन पा रही है। कारपोरेटीकरण का हिंदी का बुद्धिजीवी समाज सहज विरोधी रहा है। उसे पारंपरिकता की दुनिया ही पसंद आती है। यात्रा बुक जैसे एक-दो प्रयासों को छोड़ दें तो हिंदी प्रकाशन में कारपोरेट संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है। यहां अब भी लेखक की वही हैसियत है, जो श्राद्ध के वक्त दान पाने वाले ब्राह्मण की होती है। श्राद्ध पक्ष के ब्राह्मण को दान देकर जैसे दानदाता एक तरह के एहसान करने के बोध से भर जाता है, हिंदी प्रकाशन की दुनिया का अपने लेखक के प्रति भी कुछ वैसा ही हाल है। उसे लगता है कि उसने किताब छापकर लेखक पर एहसान ही किया है। हिंदी का प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर लेखक की कृति को प्रकाशित करने से कहीं ज्यादा ध्यान किताब बिकवाने या सरकारी खरीद कराने में लेखक की हैसियत पर होता है। यानी हिंदी प्रकाशन का बाजार सिर्फ और सिर्फ सरकारी या अकादमिक खरीद पर ही टिका है। पाठक से सीधे संवाद से हिंदी प्रकाशन जगत हिचकता है। ऐसे में हिंदी प्रकाशकों और उनके यहां काम करने वाले लोगों की हैसियत वैसी नहीं बन पाती, जो रैंडम, पिकाडोर या पेंगुइन के साथ ही डेविड देविदार या सुगत मुखर्जी की है। चूंकि हैसियत नहीं है, इसलिए मीडिया भी उस पर ध्यान नहीं देता और मीडिया ध्यान नहीं देता तो पाठकों तक सूचना नहीं पहुंचती और जब सूचना पहुंचेगी ही नहीं तो पाठकीयता का निर्माण कैसे होगा। सवाल तो कठिन है, इस पर विचार तो हिंदी वालों को ही करना होगा।