सोमवार, 9 मई 2011

हिंदी ब्लॉगिंग की चुनौतियां

उमेश चतुर्वेदी
वेब पर लॉगिंग यानी ब्लॉगिंग को लेकर 2010 में हिंदी में मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। एक तरफ जहां नए ब्लॉगरों ने हिंदी की दुनिया में दस्तक दी तो दूसरी तरफ पुराने लोगों की सक्रियता कम हुई। यहां गौर तलब यह है कि नए ब्लॉगरों में वे लोग शामिल हैं, जो अभी हाल के ही दिनों में इंटरनेट की साक्षरता हासिल किए हैं। एक अंदाज के मुताबिक इन दिनों हिंदी में बमुश्किल तीन हजार ब्लॉगर ही सक्रिय हैं। जबकि हिंदी ब्लॉगों की संख्या एक अनुमान के मुताबिक बारह हजार के आंकड़े को पार कर चुकी है। ऐसे में उम्मीद तो की जानी चाहिए थी कि इंटरनेटी साक्षरता की बढ़ती दर के साथ हिंदी में ब्लॉगिंग की दुनिया का विस्तार भी होगा। लेकिन 2010 की गतिविधियों से यह उम्मीद परवान चढ़ती नजर नहीं आई। यह हालत तब है, जब देश में इंटरनेट के उपभोक्ता आठ करोड़ की संख्या को पार कर चुके हैं। एक अमरीकी संस्था 'बोस्टन कंस्लटिंग ग्रुप' की पिछले साल आई रिपोर्ट 'इंटरनेट्स न्यू बिलियन' के मुताबिक भारत में इन दिनों 8.1 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं। इनमें मोबाइल फोन धारकों की संख्या शामिल नहीं है। ट्राई की रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2010 तक देश में मोबाइल फोन धारकों की संख्या बढ़कर 77 करोड़ हो गई है। इनमें कितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसका सही-सही आंक़ड़ा मौजूद नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि इनमें से करीब आधे उपभोक्ता अपने मोबाइल फोन पर ही इंटरनेट का इस्तेमाल तो कर ही रहे हैं। बहरहाल बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट पर ही ध्यान दें तो देश और हिंदी में ब्लॉगिंग की संभावना ज्यादा है। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या बढ़कर 23.7 करोड़ हो जाएगी। इस रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा भारतीय इंटरनेट उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे तक इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा0 है। जिसके बढ़ने की संभावना बढ़ती जा रही है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2015 तक ही भारत का आम उपभोक्ता रोजाना आधे घंटे की बजाय 42 मिनट इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगेगा। तकनीक की दुनिया में क्रांति प्रतीक्षित है। तीसरी पीढ़ी के संचार माध्यमों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। ऐसे में तो ब्लॉगिंग की दुनिया बढ़नी चाहिए थी। ऐसे में ब्लॉगरों की सक्रियता कम होने का सवाल भी नहीं उठना चाहिए था। लेकिन ऐसा हो रहा है। भारतीय समाज- खासकर नौजवान पीढ़ी के लिए अमेरिकी तौर-तरीकों को अपनाना आसान रहा है। 2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक चुनौतियों की असल तसवीर न तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पेश कर रहा था, नही प्रिंट मीडिया। ऐसे माहौल में हकीकत से दुनिया को रूबरू कराने की जिम्मेदारी ब्लॉगरों ने संभाली। जिसका असर यह हुआ कि बराक हुसैन ओबामा से बेहतर उम्मीदवार होने के बावजूद जॉन मैकेनन चुनाव हार गए। क्योंकि उनके पूर्ववर्ती रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की नीतियों की कलई ब्लॉगरों ने खोद कर रख दी थी। होना तो यह चाहिए था कि भारत में अमेरिका की तरह ब्लॉगर भी मैदान में उतरते ...लेकिन गिने-चुने प्रयासों के अलावा ऐसा कुछ खास नजर नहीं आया।
सच तो यह है कि जिन आर्थिक नीतियों के चलते भारत में तकनीकी क्रांति हुई, तकनीक के स्तर पर उसने ब्लॉगिंग के लिए तकनीकी मंच मुहैया कराकर जितनी सहायता की है, उतनी ही दुश्मन भी बन गई है। आर्थिक नीतियों के चलते भारत में निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी दुश्वार हुई है। निम्न मध्यवर्ग एक दिन की भी बेगारी बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन हिंदी की ब्लॉगिंग की दुनिया में एक भी रूपए की कमाई होती नहीं दिख रही है। हिंदी ब्लॉगर को अपनी कमाई से ही अपना यह शौक पूरा करना पड़ रहा है। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट मुफ्त नहीं है, कंप्यूटर या लैपटॉप मुफ्त में नहीं मिल रहे हैं। लेकिन ब्लॉगरों को मुफ्त में ब्लॉगिंग की दुनिया में सक्रिय रहना पड़ रहा है। सच तो यह है कि अब तक भारतीय भाषाओं में ब्लॉगिंग के जरिए कमाई के लिए कोई आर्थिक मॉडल नहीं बन पाया है। ले-देकर विज्ञापन के लिए गूगल एडसेंस का सहारा है। लेकिन उसके नियम कानून हिंदी ब्लॉगर विरोधी हैं। जिनकी वजह से गूगल की जेब तो भर रही है। लेकिन ब्लॉगर बेचारा ठन-ठन गोपाल बनकर घूम रहा है। अपने यहां कहावत कही जाती रही है कि भूखे भजन न होंहिं गोपाला। तो कब तक भूखे भजन होगा।
ब्लॉगिंग दरअसल वैयक्तिकता का विस्तार होता है। लेकिन इस विस्तार पर भी सांस्थानिकता की नजर टिक गई है। इसकी भी वजह है। दरअसल ब्लॉगरों की दुनिया की साफगोई ने उनके लिए पाठक वर्ग भी तैयार किया है। लेकिन इन पाठकों पर संस्थानिक मीडिया की भी नजर लगी हुई है। यही वजह है कि अपनी वेबसाइटों पर उन्होंने अपने यहां ब्लॉगरों के लिए एक कोना स्थापित कर दिया है। इस कोने पर ब्लॉगर आकर अपना खून-पसीना बहा रहे हैं। उन्हें पढ़ने पाठक भी आ रहे हैं। लेकिन इसका फायदा संस्थानिक पत्रकारिता को हो रहा है। संस्थानिक मीडिया के ब्लॉग कोनों में कुछ ऐसा ही लिखा मिलता है, जैसा सरकारी पत्रिकाओं में लिखा रहता है – पत्रिका में व्यक्त विचार लेखकों के अपने हैं, उनसे सहमत होना अमुक पत्रिका के संपादक के लिए जरूरी नहीं है। यानी पाठकों का फायदा तो संस्थानिक मीडिया उठा रहा है, लेकिन ब्लॉगर को कुछ हासिल नहीं हो रहा, सिवा चंद टिप्पणियों में प्रोत्साहन के। यानी हिंदी में ब्लॉगिंग की वैयक्तिक धारा पर संस्थानिकता का दावा बढ़ता जा रहा है। ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें वैयक्तिक विचारों को स्पेस मिलता है। लेकिन संस्थानिकता की खोल देर-सवेर ब्लॉगिंग की इस खासियत को ही खा जाएगी। जिसका संकट मौजूदा हिंदी ब्लॉगिंग के सामने सबसे ज्यादा दिख रहा है।
हिंदी में 2008 में जब ब्लॉगिंग तेज हुई तो आपस में सिर फुटौव्वल तक की हालत आई। मोहल्ला और भड़ास के बीच गालियों का आदान-प्रदान हुआ। इस तरह हिंदी में ब्लॉगिंग तार्किकता और संयम की गलियों से बाहर निकल कर मुक्त छंद की तरह बहने लगी। लेकिन एक दौर ऐसा आया कि यह मुक्त छंद पारंपरिक मीडिया को भारी लगने लगा और ब्लॉगरों पर हमला बढ़ गया। निश्चित तौर पर इसमें ब्लॉगरों का एक वर्ग भी जिम्मेदार था। जिसके लिए अपनी भड़ास निकालना ब्लॉगिंग की मुख्यधारा बन गया। खासकर मीडिया में सक्रिय लोगों ने अपनी कुंठाएं और भड़ास निकालने शुरू किए। बेहद अश्लील ढंग से लिखे गए इन ब्लॉगों ने हिंदी ब्लॉगिंग को काफी नुकसान पहुंचाया। मुक्त छंद का यह भी मतलब नहीं कि किसी को गाली दी जाय या किसी को सीधे जिम्मेदार ठहराया जाय।
दूसरी चीज यह है कि हिंदी में ज्यादातर ब्लॉगर अपनी वैचारिक भूख और कसक को अभिव्यक्त करने आए तो हैं, लेकिन ज्यादातर का भाषाई संस्कार बेहद कमजोर है। इसने ब्लॉगिंग के स्वाद को बेहद कड़वा बनाया है। ब्लॉगर यह क्यों भूल जाते हैं कि सिर्फ तथ्यों का खुलासा ही ब्लॉगिंग की सफलता के लिए जरूरी नहीं है। बल्कि भाषाई चमत्कार भी उतना ही आवश्यक है। भाषाई चमत्कार भी कई बार रचनाधर्मिता को पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं। कभी-कभी किसी पोस्ट को ज्यादा पाठकीयता हासिल हो पाती है तो इसकी एक बड़ी वजह यह है कि भाषाई कौशल के जरिए विगत में छूट गए दर्द को याद करना रही है। यहां हमें ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी ब्लॉगरों का एक बड़ा पाठक वर्ग अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया या ऐसी ही जगहों पर खाई-अघाई जिंदगी जी रहे हैं। लेकिन उनके अंदर एक कसक बाकी है, वे अपनी माटी और विगत में छूट गए दर्दों को सहलाते हुए जीना चाहते हैं। मजे की बात यह है कि आज के हिंदी ब्लॉगर के सामने इन पाठकों की भूख को भी तृप्त करने की चुनौती भी है। ऐसा नहीं कि इन चुनौतियों की जानकारी आज के ब्लॉगर को नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इनका सामना करने के लिए ब्लॉगर समुदाय में कोई तैयारी नहीं दिख रही।