सोमवार, 18 अप्रैल 2011

कैसे बढ़े पाठकीयता का कारवां

उमेश चतुर्वेदी
पिछले दिनों लोहिया रचनावली का लोकार्पण था। समाजवादी लेखक मस्तराम कपूर के संपादन में उनकी रचनावली के अंग्रेजी अनुवाद के इस लोकार्पण समारोह में मौजूदा दौर के समाजवादी धारा के तमाम बड़े नेता मौजूद थे। जैसी कि रवायत है, नेताओं ने रचनावली के तमाम खंडों का लोकार्पण किया और फिर जिसके खाते में जो किताब आई, उसे लेकर बैठ गए। चूंकि इसके बाद एक परिचर्चा थी, लिहाजा सभी नेता उस परिचर्चा में जुट गए। इस बीच उनका ध्यान उनके हिस्से में आई रचनावली के खंड पर ही था। उन्हें लग रहा था कि जिसके हिस्से जो किताब आई, अब उन पर उनका ही हक है। यह बात मंच संचालन कर रहे धुर समाजवादी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आनंद कुमार भांप गए। उन्होंने परिचर्चा के बीच में ही मंच पर मौजूद उन बड़े समाजवादी नेताओं ने रचनावली के हिंदी और अंग्रेजी के खंड को खरीदने की अपील कर डाली। उन्होंने विनम्रता पूर्वक साफ कर दिया कि लोकार्पण के दौरान जिसके हिस्से में जो किताब आई है, उस पर उनका हक नहीं है, बल्कि उसे भी नेताजी को खरीदना ही पड़ेगा। मंच पर मौजूद नेताओं में से ज्यादातर ने फाकामस्ती से अपनी जिंदगी की शुरूआत की। लेकिन आज ऑफ द रिकॉर्ड उनके भी पास सैकड़ों करोड़ की संपत्ति बताई जाती है। चूंकि लोहिया रचनावली का सवाल था और वे नेता ठहरे लोहिया भक्त, फिर सरेआम मंच से उनसे किताब खरीदने की मांग की जा रही थी। ऐसे में उनके सामने जेब ढीली करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
कहने का मतलब यह कि हिंदी में मालदार लोग भी पढ़ने के लिए खर्च करने से बचते हैं। हालांकि नौजवान पीढ़ी में इन दिनों बदलाव नजर आ रहा है। वह पढ़ने के लिए किताबें खरीदने से नहीं हिचकती। उसे नई-नई किताबों में दिलचस्पी तो है। लोहिया रचनावली के प्रकाशक अनामिका प्रकाशन ने कार्यक्रम स्थल के बाहर समाजवादी साहित्य का एक छोटा सा स्टाल लगा रखा था। वहां से किताबों की खरीद भी हुई और ज्यादातर खरीददार नौजवान ही थे। कुछ ऐसा ही नजारा तीस जनवरी को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में भी नजर आया। हर साल तीस जनवरी को गांधी शांति प्रतिष्ठान गांधी जी के शहीद दिवस के मौके पर गांधी स्मृति व्याख्यान का आयोजन करता है। इस मौके पर सैकड़ों लोग जुटते हैं। इस मौके का फायदा उठाने के लिए सर्व सेवा संघ प्रकाशन के एक वितरक ने अपनी और नवजीवन प्रकाशन से प्रकाशित गांधी और गांधीवादी साहित्य का स्टाल गांधी शांति प्रतिष्ठान में लगा रखा था। इस स्टाल की हालत यह थी कि देखते ही देखते गांधी जी की आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग के हिंदी और अंग्रेजी संस्करण की सारी प्रतियां बिक गईं। रूस के महान अराजकतावादी नेता प्रिंस उर्फ पीटर क्रोपाटकिन की किताब नवयुवकों से दो बातें, गांधी जी के हिंद स्वराज का हिंदी और अंग्रेजी संस्करण, रोम्या रोलां द्वारा लिखी गांधी जी की जीवनी हाथोंहाथ बिक गई। हैरत की बात यह थी कि इन किताबों के सबसे ज्यादा खरीददार नई पीढी़ के ही लोग थे। इससे एक बात तो तय है कि हिंदी किताबों की पाठकीयता को लेकर नाउम्मीद होने की कोई वजह नहीं है।
वैसे दुनिया में सबसे ज्यादा लोग अपने नेताओं और हीरो से प्रभावित होते हैं। समाजवादी धारा के नेताओं के बारे में माना जाता रहा है कि वे पढ़ते-लिखते रहे हैं। लेकिन आज की समाजवादी पीढ़ी का पढ़ाई-लिखाई से साथ छूट गया है। वाम धारा के नेताओं के बारे में भी माना जाता रहा है कि वे पढ़ते-लिखते हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की धारा से आए भाजपा नेताओं को लेकर भी कुछ ऐसी ही छवि रही है। लेकिन आज की राजनीतिक पीढ़ी के साथ वह बात नहीं रही। फिल्मी दुनिया में तो वैसे ही माना जाता है कि वहां बौद्धिकता की गुंजाइश कम ही रहती है। हालांकि वहां भी अनुराग कश्यप, जावेद अख्तर, गुलजार, बासु भट्टाचार्य, अमोल पालेकर, विशाल भारद्वाज, महेश भट्ट, अनुपम खेर, राज बब्बर जैसे पढ़ने-लिखने वाले लोग तो हैं। लेकिन वे नौजवानों को कोर्स के इतर कुछ पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर पाते। अगर इसके बावजूद भी नई पीढ़ी पढ़ने की ओर अग्रसर हो रही है तो निश्चित तौर पर स्कूलों का योगदान है। क्योंकि तमाम बाधाओं के बावजूद अच्छे कहे जाने वाले स्कूलों के अध्यापक बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित तो कर ही रहे हैं। हालांकि सारे स्कूलों के पास प्रेरक वातावरण नहीं है। ऐसे में अगर पढाई का संस्कार बढ़ाना है तो आनंद कुमार जैसा साहसी और मुंहफट होना पड़ेगा और अच्छे स्कूलों जैसा प्रेरक भी...तभी हिंदी पाठकीयता का कारवां तेजी से बढ़ पाएगा।