शनिवार, 5 मार्च 2011

हिंदी की कौन कर रहा जुगाली

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी का विकास किसने किया है, इसे लेकर विवाद रहा है। विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ा रहे विद्वानों को इस बात का गुमान है कि आज जो हिंदी गढ़ी और बनाई जा रही है, उसके पीछे उनका ही योगदान है। पढ़ाने के अलावा राजनीति की दुनिया में रमते रहे अधिसंख्य हिंदी अध्यापकों का यह गुमान अध्यापक रहे नामवर सिंह ने ही तो़ड़ दिया है। दिलचस्प बात यह है कि नामवर सिंह अपने समूचे सक्रिय और कार्यशील जीवन में प्रमुखत: अध्यापक ही रहे हैं। भोपाल के पत्रकार अजित वरनेकर की किताब ‘शब्दों का सफर’ के लोकार्पण और उस पर हिंदी के महत्वपूर्ण प्रकाशक राजकमल प्रकाशन की ओर से एक लाख का पुरस्कार अजित को देते वक्त नामवर सिंह ने जो कहा, उसे अध्यापकों को नोट कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिंदी को अध्यापकों ने नहीं, पत्रकारों ने गढ़ा है। इसके लिए हिंदी के सबसे पहले प्रतापी संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू बालमुकुंद गुप्त के बीच अनस्थिर शब्द को लेकर मचे बवाल का उल्लेख करते हुए नामवर सिंह ने जब यह स्थापना रखी तो उस समारोह में हिंदी पढ़ाने वाले ढेर सारे अध्यापक मौजूद थे। लेकिन उनके चेहरे पर स्यापा छा गया। अगर यह कथन नामवर सिंह की जगह किसी पत्रकार की जुबान से निकला होता तो विश्वविद्यालय के धुरंधर लोग उस पत्रकार का मजाक ही उड़ाते, चाहे वह पत्रकार कितना ही मूर्धन्य क्यों न रहा हो। लेकिन उनका दुर्भाग्य यह कि उनका पाला किसी पत्रकार से नहीं, हिंदी के ठेठ अध्यापक से पड़ा था। नामवर सिंह कितने सही है, इसका अंदाज इन पंक्तियों के लेखक को गाहे-बगाहे होता रहा है। हाल ही में दिल्ली के एक महाविद्यालय में न्यू मीडिया को लेकर एक गोष्ठी हुई। उदारीकरण के दौर में स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम शुरू करने की इजाजत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को दे रखी है। इसका फायदा उठाते हुए तमाम कॉलेजों ने अपने यहां पत्रकारिता का पाठ्यक्रम शुरू कर रखा है। हिंदी या अंग्रेजी विभागों के अधीन यह कोर्स चल रहा है। ये अध्यापक अब अपने को पत्रकारिता का अध्येता भी समझ बैठे हैं। उन्हें लगता है कि बाल मुकुंद गुप्त से लेकर अज्ञेय तक ही हिंदी में पत्रकारिता हुई है। प्रभाष जोशी तक तो उन्हें पता है। लेकिन उसके बाद राहुल देव, प्रणय राय, अच्युतानंद मिश्र. जैसे नाम तो इन विभाग प्रमुखों तक को पता नहीं है। हिंदी में सक्रिय नव पत्रकारों की बात तो इनके लिए बेमानी है। उनके लिए भाषा अब भी महादेवी वर्मा और अज्ञेय तक ही लटकी हुई है। उसके आगे भी हिंदी ने कुछ विकास किया है, उन्हें इसे जानने की जरूरत ही नहीं है। हिंदी की समकालीन पत्रकारिता की बात कौन कहे, समकालीन लेखन तक की तमीज नहीं है। ऐसे में उनसे भाषा के विकास की उम्मीद करना ही बेमानी है। न्यू मीडिया की गोष्ठी में भी अध्यापक गणों की चर्चा में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाल मुकुंद गुप्त या अध्यापक पूर्ण सिंह ही मौजूद थे। न्यू मीडिया यानी इंटरनेट क्या है , उसकी दुनिया कैसे बदल रही है, तकनीक भाषा के साथ कैसा खिलवाड़ कर रही है और उसके दबाव में भाषा कैसे बदल रही है, इसकी जानकारी शायद ही किसी अध्यापक को थी। जाहिर है कि वे अध्यापक सिर्फ जुगाली कर रहे थे और अपने परिचितों को बुलाकर इस जुगाली का आर्थिक और कथित ज्ञानाश्रयी फायदा उठा-लुटा रहे थे। ऐसे में पाठकगण अंदाज लगा सकते हैं कि विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ा रहे अध्यापक गण हिंदी का कितना विकास कर रहे हैं।
अब आते हैं नामवर सिंह की बात पर...हिंदी गद्य को गद्यपर्व निश्चित तौर पर महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे धुरंधर पत्रकारों ने ही बनाया। लेकिन हम मुंशी सदासुख लाल और लल्लू लाल जैसे अध्यापकों को कैसे भूल सकते हैं। अंग्रेज अधिकारियों को भारतीय भाषाओं की ट्रेनिंग देने के लिए स्थापित कोलकाता के फोर्ट बिलियम कॉलेज में हिंदी पढ़ाने वाले इन अध्यापकों ने हिंदी के विकास के लिए ही सुख सागर और प्रेम सागर जैसे ग्रंथ लिखे। जिनका प्रचार इतना हुआ कि उन्हें घर-घर में धार्मिक ग्रंथों की तरह रखा जाने लगा। यानी जरूरत पड़ी तो अध्यापकों ने भी हिंदी के विकास यज्ञ में हिस्सा बंटाया है। यह बात और है कि आज के ज्यादातर हिंदी अध्यापकों को सिर्फ विश्वविद्यालयी राजनीति से मतलब है। हिंदी पढ़ाने की बजाय उन्हें उसकी जुगाली ही पसंद है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि आज के हिंदी पत्रकार सिर्फ हिंदी को गढ़ ही रहे हैं। हिंदी के साथ जितना अनाचार नव हिंदी पत्रकार कर रहे हैं, वह भी क्षमा के काबिल नहीं है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

साहित्यिक चर्चाओं में गालियां

उमेश चतुर्वेदी
भाषा के अब तक दो ही रूप पढ़ाए जाते रहे हैं- लौकिक और साहित्यिक। संस्कृत चूंकि एक दौर में वेदों की पर्याय मानी जाती रही, लिहाजा यह भाषाई वर्गीकरण वहां लौकिक और वैदिक के तौर पर है। साहित्यिक समारोहों ही नहीं, औपचारिक माहौल में हमारे यहां गालियों के इस्तेमाल से परहेज रहा है। लेकिन पिछले दिनों जयपुर में हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भारतीय मूल के एक लेखक जीत तायल ने अपनी नई अंग्रेजी पुस्तक के कुछ अंश पढ़े तो उनकी किताब में इस्तेमाल हिंदी की ठेठ देसज गालियों के इस्तेमाल ने प्रबुद्ध लेखकों को भले ही नहीं चौंकाया, लेकिन स्थानीय पाठकों को हैरत जरूर हुई। गालियों का सार्वजनिक इस्तेमाल वह भी औपचारिक आयोजनों में होने का जयपुर वासियों के लिए शायद यह पहला अनुभव था। उनकी चिंताओं की वजह यही रही। वैसे अपने यहां मांगलिक कार्यक्रमों में गाली देने का रिवाज रहा है। शादी-विवाह के मौकों पर समधी और रिश्तेदारों की खातिरदारी तब तक पूरी नहीं मानी जाती रही है, जब तक उन्हें गालियों के माहौल में खिलाया-पिलाया न जाए। रामचरित मानस में राम विवाह के वक्त गालियों के इस्तेमाल का चित्रण तुलसीदास ने भी किया है। लेकिन उन गालियों में एक हद तक शिष्टता होती थी। अगर इन गालियों का सामाजिक अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि गालियों में शिष्टाचार दरअसल जातिगत आधार पर था। नीची जातियों में मंगल मौकों पर गाई जाने वाली गालियां उच्चतर जातियों की गालियों से कहीं ज्यादा फूहड़ होती थीं। तब माना जाता था कि शिक्षा के प्रसार के चलते उच्चतर जातियों में गालियों का शिष्टाचार कुछ दूसरे अंदाज में दिखता है। उत्तर भारत में होली के मौके पर गालियों की बौछार की परंपरा रही है। दुनिया के सबसे पुराने शहर के खिताब से नवाजे जाते रहे वाराणसी में होली का कवि सम्मेलन मशहूर है। इस सम्मेलन में ठेठ गालियों से ही समाज के कुल-शील लोगों का स्वागत होता रहा है। गालियों के स्वागत की साख ऐसी है कि अगर शहर के सम्मानजन्य लोगों का इस सम्मेलन में नाम नहीं लिया जाता तो उसका मतलब यही माना जाता है कि अब उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं रही। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी इलाके में गोंड़ऊ नाम लोकनृत्य का प्रचलन रहा है। डमरू जैसे बड़े वाद्य हुड़का और मंजीरे की थाप पर इस लोकनृत्य के प्रमुख कलाकार सामाजिक समस्याओं को उभारते रहे हैं। इन लोकनृत्य़ों में भक्ति की धारा भी बहती रही है। लेकिन उनका विदूषक ठेठ और गंदी गालियों से ही लोगों का स्वागत करता रहा है। इन विदूषकों के बारे में भी माना जाता रहा है कि अगर उन्होंने अपनी गालियों में गांव के प्रमुख लोगों का नाम नहीं लिया तो उसका मतलब यह है कि उनकी नजर में उस रसूखदार की कोई खास वकत नहीं है। जाहिर है कि भारतीय समाज में गालियों की परंपरा और गाहे-बगाहे की सामाजिक मान्यता रही है। लेकिन इन गालियों पर आज अगर चर्चा हो रही है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि अब इन गालियों ने नागर समाज की सामाजिक परिधि को तोड़ डाला है। वह लौकिक से साहित्यिक गढ़ों में सेंध लगाती जा रही है। इसकी शुरूआत आपको यथार्थवादी रचनाओं में दिखती है। नई कहानियों में जब गांवों और समाज के निचले तबके को रचना का आधार बनाना शुरू किया तो वहां गालियों की बौछार शुरू हो गई। निश्चित तौर पर हंस और कथादेश में छपी कहानियों से इसकी शुरूआत होती है। हिंदी फिल्मों में गालियों की शुरूआत फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित फिल्म बैंडिट क्विन में होती है। मां-बहन की गालियां इस फिल्म में धड़ल्ले से इस्तेमाल हुई। विवाद तो तब भी हुआ। कहानियों में गालियों की बौछारों को प्रकाशित करने वाले हंस ने भी इस फिल्म में आई गालियों पर बहस कराई। हाल के दिनों में आई फिल्म इश्किया में भी गालियों की जमकर इस्तेमाल हुआ। हाल के दिनों में आई फिल्म नो वन किल्ड जेसिका और ओंकारा तक में गालियों का जमकर इस्तेमाल हुआ है।
यथार्थवादी साहित्य और सिनेमा ने गालियों के देसज रूपों को भले ही स्वीकार कर लिया है, लेकिन अखबारों और मुख्यधारा की दूसरी पत्रकारिता में अभी इतना साहस नहीं है। हालांकि कौन नहीं जानता कि अखबारों और टेलीविजन के न्यूज रूमों में तनाव के वक्त गालियों का कितनी तेजी से इस्तेमाल होता है। लेकिन यह सिर्फ लौकिक ही रह जाता है, अखबार या पत्रिका के पन्ने और टीवी के पर्दे पर आकर साहित्यिक रूप धारण करने से बच जाता है। और ऐसा होता भी है तो इसलिए, क्योंकि माध्यमों के ये रूप अपने को कम से कम अब भी संस्कारित होने या दिखने का दबाव महसूस करते हैं। यह दबाव ही है कि फिल्मों या साहित्य में ठेठ गालियों की बाढ़ नैतिकता समेत तमाम दूसरे सवालों को उछालने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन यह भी सच है कि लोक संस्कृति का अंग रहने के बावजूद सभ्य समाज गालियों को अपना दैनंदिन साथी नहीं मानता रहा है। वह मांगलिक कार्यों या होली तक ही सीमित रही है। गोंड़ऊ लोकनृत्य में काम करने वाले विदूषक भी सामान्य जिंदगी में गालियों के इस्तेमाल से परहेज करते रहे हैं। कहना न होगा कि यह दबाव समाज पर काम करता रहेगा। इसीलिए साहित्य और फिल्मों में गालियों की बाढ़ पर सवाल उठते रहेंगे।