शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

राजनीति और साहित्य के रिश्ते

उमेश चतु्र्वेदी
अभी हाल ही में एक साहित्यिक आयोजन में जाने का मौका मिला। जैसा कि आज आयोजनों की नियति बन गई है- सेटिंग-गेटिंग और ईटिंग, इस आयोजन में भी ये सारी चीजें देखने को मिलीं। अपनी दिलचस्पी इस सेटिंग और गेटिंग में नहीं थी। लेकिन उदारीकरण के दौर में हिंदी और उसके नियंताओं की नीयत और उनके ज्ञान को नजदीक से देखने का मौका जरूर मिला। जैसा कि हिंदी आयोजनों की एक और प्रवृत्ति है, राजनीति और राजनेताओं को गाली देना और अपने को उनकी तुलना में कहीं ज्यादा ऊंचा और बेहतर साबित करना, इस आयोजन में भी हुआ। लेकिन हकीकत में ऐसा कभी होता नहीं है। जैसे ही कार्यक्रम में राजनेता आता है, उसके पीछे गाली देने वाले साहित्यकार सबसे पहले लपक पड़ते हैं। अपने आयोजन को सफल बताने के लिए वे उस नेता का नाम ले लेकर उसके भाषण को उद्धृत करने लगते हैं। राजनेता की हैसियत जैसी हुई, अपने आयोजन को उतना ही कामयाब बताने में वह साहित्यकार जुट जाता है। तब वह अपनी महानता भूल जाता है। साहित्य की महानता भी उसकी नजर में पीछे छूट जाती है। राजनीति को गाली देना और उससे दूरी बनाने का दावा और फि र उसके पीछे चलने का पाखंड हिंदी की ही नियति रही है। यही वजह है कि यहां राजनेता भी साहित्यकार को अपने पैर की जूती समझने लगता है। उसे पता है कि पुरस्कारों, अनुदानों और नियुक्ति के लिए हिंदी साहित्यकार को उसके पास आना ही है। लिहाजा वह अपनी हैसियत और अपने सम्मान का लुत्फ उठाता रहता है। इसका असर यह होता है कि वह साहित्य को लेकर एक खास तरह का वैसा आदरभाव नहीं दिखा पाता, जैसा बंगला, मलयालम और मराठी या कन्नड़ में दिखता है। मराठी के वरिष्ठ रचनाकर कुसुमाग्रज को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब मंच पर उस जमाने के उप प्रधानमंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण बैठ गए थे। कुसुमाग्रज ने उनके साथ मंच पर बैठने से इनकार कर दिया था। हिंदी में ऐसा साहस दिखाने की हैसियत कितने लेखकों में हैं। ज्ञानपीठ संस्थान से एक प्रमुख पुरस्कार प्राप्त कर चुके हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक पुरस्कार समारोह के अगले दिन अपने मित्रों को समारोह में शामिल न होने का उलाहना इन शब्दों में दे रहे थे - भाई आप क्यों आने लगे समारोह में, लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह पुरस्कार खुद नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया। दिलचस्प बात यह है कि स्वर्गीय लेखक महोदय घोषित तौर पर फासीवाद के विरोधी थे। जैसी की धारणा है, वाजपेयी की बीजेपी भी फासीवादी पार्टी ही है। इन पंक्तियों के लेखक के सामने यह घटना घटी थी, क्योंकि तब उन लेखक महोदया का इंटरव्यू लेने के लिए वह उस वक्त लेखक महोदय के घर पर ही मौजूद था।
ऐसी हालत कम के कम दूसरी भारतीय भाषाओं में नहीं है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहते हुए रामकृष्ण हेगड़े दिल्ली की एलटीजी हॉल में पहुंच गए थे। तब साहित्य अकादमी का संवत्सर व्याख्यान चल रहा था। आयोजकों ने मुख्यमंत्री को अपने श्रोता समाज में देखा तो वे उनकी मिजाजपुरसी में जुट गए। उन्होंने आगे बैठने या मंच पर जाने से साफ मना कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि यह मंच साहित्यकारों का है, उनका नहीं। बंगला में अपने लेखकों को पढऩे और उनका व्याख्यान दिलवाने के लिए लोकसभा का स्पीकर बनते ही सोमनाथ चटर्जी अगर जुट जाते हैं तो उसकी वजह यह है कि यहां का लेखक राजनीति की सीमाएं ही नहीं जानता, बल्कि उसकी ताकत भी जानता है। वहां के संस्कृतिकर्मियों में कम से कम पाखंड तो नहीं है।
हिंदी साहित्यकार की नियति है कि वह राजनेता से आगे की सोचने का दावा करता है। लेकिन हकीकत तो यह है कि वह राजनीति की दुनिया से कम से कम पचास साल पीछे है। वह राजनीति की तरह आगे की नहीं सोच रहा, उसे अभी-भी ज्ञानकांड से परहेज है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की हालत तो और भी ख्रराब है। वे सूर-तुलसी-कबीर से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं। आज की राजनीति, मौजूदा समय की परेशानियां और उसके भावी निहितार्थ उसकी चिंताएं नहीं हैं। इसका असर यह हो रहा है कि अधिसंख्य हिंदी साहित्यकार और प्राध्यापक रूमानी दुनिया में खोए हुए हैं। उनकी रचनात्मकता में धार की लगातार कमी हो रही है। राजनीति से दूरी दिखाने का पाखंड तो है, लेकिन उसके साथ ही वे राजनीति के फायदे भी उठाना चाहते हैं। इसका असर यह हो रहा है कि राजनीति की सिर्फ गंदगी ही हमारे दौर में नजर आ रही है। साहित्यिक समाज पर उसका ही ज्यादा असर है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हिंदी के साहित्यकार इस पाखंड से दूर हो जाएं कि वे साहित्यकार के नाते राजनेताओं से अलग हैं। वे अपनी श्रेष्ठताग्रंथि से दूर हो जाएं। राजनीति की सीमाएं और ताकत स्वीकार कर लें। निश्चित तौर पर इससे हिंदी साहित्य का भला ही होगा।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

रामजी बाबू की याद

उमेश चतुर्वेदी
नियति ने लेखन और पत्रकारिता की दुनिया में ढकेलने का निश्चय कर लिया था, शायद यही वजह है कि पाठ्यक्रम से इतर किताबें और पत्रिकाओं के पढ़ने का चस्का कम ही उम्र में लग गया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में राजेंद्र प्रसाद के प्रतिभा प्रकाशन की वजह से देश-विदेश की अहम पत्रिकाएं मिलती रही थीं। इसी बुक स्टाल पर पहली बार हिंदी की स्थिति को लेकर शायद हिंदुस्तान में एक लेख पढ़ा था और उसके लेखक की भाषा ने जैसे मोह ही लिया था। बाद के दिनों में जब कादंबिनी से साबका पड़ा तो उस लेखक के सारगर्भित लेख गाहे-बगाहे पढ़ने को मिलने लगे। रामजी प्रसाद सिंह उर्फ रामजी बाबू से मानसिक परिचय की नींव ऐसे ही पड़ी। उन्हीं दिनों उनसे मिलने की इच्छा होने लगी थी। इसी बीच भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया और दिल्लीवासी हो गया। यहां पढ़ाई के दौरान पता चला कि रामजी बाबू यहां पढ़ा चुके हैं। लेकिन उनसे मुलाकात का सौभाग्य नहीं मिला। उनसे मुलाकात सबसे पहले 1995 में तब हुई, जब बनारस वाले रत्नाकर पांडे ने दिल्ली के विज्ञान भवन में राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन करवाया। जिसका तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्घाटन किया था। सुनहरीबाग मस्जिद के पास बस से उतरकर मैं जब मौलाना आजाद रोड पर विज्ञान भवन के लिए चला तो उसी वक्त मेरे आगे-आगे खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने एक बुजुर्ग शख्स चल रहे थे। मुझे तब तक पता नहीं था कि आगे-आगे चल रहे सज्जन वे रामजी बाबू हैं, जिनसे मिलने की इच्छा बरसों से मेरे मन में दबी हुई है। उनसे परिचय भी कुछ अजीब ढंग से हुआ। विज्ञान भवन में घुसते वक्त जैसी की रवायत है, एसपीजी वालों के रूखे व्यवहार का सामना करना पड़ा। बात इतनी तक होती तो गनीमत थी। लेकिन उस दिन तैनात एसपीजी वाले तकरीबन अपमानजनक व्यवहार ही कर रहे थे। इससे मेरा ठेठ गंवई मन उबाल खा गया और उनसे उलझ पड़ा। दिलचस्प बात यह है कि मेरे ठीक पहले हाथ में पास थामे रामजी बाबू के साथ भी एसपीजी वाले रूखा ही व्यवहार कर रहे थे। लेकिन जैसा कि उनका स्वभाव था, चेहरे पर हल्की मुस्कराहट लिए हुए इस अनपेक्षित व्यवहार को वे ऐसे टाल रहे थे, जैसे इस व्यवहार की उन्हें अपेक्षा ही थी। लेकिन मेरा उबाल खाना उन्हें थोड़ा असहज लगा और पीछे मुड़कर उन्होंने समझाया, ये तो पुलिस वाले हैं, आप क्यों अपना आपा खोते हैं और पीठ पर हाथ रखे मुझे लेकर अंदर चले गए। उनके इस अपनापाभरे व्यवहार ने मुझे अंदर तक भिगो दिया। उनकी सहजता और शालीनता मुझे अंदर तक भिगो गई। इसके बाद से उनका कायल हो गया। पत्रकारिता की दुनिया में वे कम ही विचरण करते थे। लेकिन कभी-कभी किसी मीटिंग-समारोह में आते तो मैं उनसे मिलने जाने की कोशिश कर ही रहा होता कि वे पास चले आते। हर बार मैं उनसे एक ही आग्रह करता था कि कुछ लिखिए। एक बार वरिष्ठ पत्रकार और भाई अवधेश कुमार ने मेरे आग्रह को सुनकर चुटीली टिप्पणी भी कर डाली थी- रामजी बाबू सन्यासी हो गए हैं। इसके जवाब में उनकी निश्छल मुस्कराहट ही रह गई थी।
बाद में जी न्यूज में जब ज्वाइन किया तो वहां एक अक्खड़ किस्म के सहयोगी से पल्ला पड़ा। शुरू के दिनों में उस शख्स से बचने की कोशिश करता। बाद में पता चला कि यह अक्खड़ सहयोगी रोहिताश्व तो अपने रामजी बाबू का ही बेटा है तो उनसे घनिष्ठता बढ़ गई। घनिष्ठता से ही पता चला कि रोहिताश्व की अक्खड़ता की असल वजह तो रामजी बाबू की सादगी और ईमानदारी ही है। जिसका उन्हें कम से कम कोई आर्थिक फायदा कभी नहीं मिला। ईमानदारी की राह पर चलते लोगों के सामने जब बेईमान लोग आगे बढ़ते हैं तो ईमानदार शख्स को भले ही परेशानी नहीं होती, लेकिन उसकी संतानों को ईमानदारी का औचित्य ही परेशान करने लगता है। सवालों का दिन रात का यह सामना ही उन्हें अक्खड़ और बदमिजाज बना देता है। बहरहाल रोहिताश्व से जानपहचान बढ़ने और तमाम वादों के बाद उसके घर नहीं जा सका। रामजी बाबू से उनके घर जाकर नहीं मिल पाया। पत्रकारिता जगत के इस मनीषी को घर जाकर देखने की इच्छा मन में ही रह गई। जो शख्स हिंदुस्तान समाचार जैसी एजेंसी का महाप्रबंधक रह चुका हो, इसके बावजूद वह मौजूदा सांसारिक माया से निर्लिप्त रह पाया हो, ऐसा कम ही होता है। रामजी बाबू उसी धारा के पत्रकार थे। भारतीय पत्रकारिता की आज भी अगर नाक ऊंची है तो उसमें रामजी बाबू जैसे पत्रकारों का योगदान और त्याग सबसे ज्यादा है।