मंगलवार, 11 जनवरी 2011

हिंदी में खबरों का व्यापार

उमेश चतुर्वेदी
2008 के गुजरात चुनावों की बात है। कांग्रेस के सचिव और महाराष्ट्र राज्य के सह प्रभारी मोहन प्रकाश को राज्य में मीडिया के जरिए पार्टी के प्रचार की जिम्मेदारी दी गई थी। इस सिलसिले में उन्होंने गुजरात के तकरीबन सभी जिला मुख्यालयों का दौरा किया और प्रेस कांफ्रेंस भी की। हर कांफ्रेंस के बाद उनके पास स्थानीय पत्रकारों का झुंड उनके पास आ जाता और वे उनसे घुमा-फिरा कर कुछ पूछने लगते। उन सवालों का लब्बोलुआब यही होता कि उनकी कांफ्रेंस को कवर करने के लिए कितने की थैली मिलेगी। हर बार वे स्थानीय पत्रकारों को टालते रहे और इसकी शिकायत करते रहे। उन्हें लगता था कि चुनाव के बहाने अपनी कमाई के लिए ये स्थानीय पत्रकारों की कारस्तानी है। लेकिन 2009 के आम चुनावों में उन्हें पता चला कि असल माजरा क्या था। दरअसल यह पेड न्यूज का एक तरीका था।
2009 के आम चुनावों में देश के तकरीबन सभी बड़े न्यूज चैनलों ने कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी से बुके में पैकेज की मांग रखी। सत्ता की दौड़ में शामिल रही दोनों प्रमुख पार्टियां इस चुनाव में हर मुद्दे पर एक-दूसरे का गलाकाट विरोध कर रही थीं। लेकिन एक मुद्दा ऐसा था, जिस पर दोनों की राय एक थी और वह मुद्दा था पेड न्यूज। दोनों ने तय किया था कि चैनलों की मनमानी और बुके में विज्ञापन जारी करने की जिद्दी मांग के आगे वे नहीं झुकेंगी। दोनों की मर्जी थी कि अपने लिए फायदेमंद चैनलों को ही वे विज्ञापन देंगीं। लेकिन पेड न्यूज पर निगाह गड़ाए चैनलों की जिद्दी मांग के आगे उन्हें झुकना पड़ा। जनता की अदालत को हर हाल पर अपने पक्ष में झुकाने के लिए दिन-रात एक कर रही दोनों पार्टियों ने समाचार चैनलों को करोड़ों की कीमत के विज्ञापन दिए। दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का खुलासा करते रहने का कथित नैतिक दावा करने वाले चैनलों ने यह पूरी की पूरी रकम चेक की बजाय नगद लिया और उसकी पक्की रसीद भी नहीं दी।
पुरानी धारा के राजनेताओं को लगता रहा है कि उनके बयान और उनकी प्रेस रिलीज प्रकाशित करना प्रेस का परम पुनीत काम है। लेकिन पिछले आम चुनाव ने हिंदी भाषी इलाके के नेताओं की आंखें खोल दीं। कोयला खदानों के लिए मशहूर झारखंड के धनबाद जिले के जनता दल यूनाइटेड के नेता अनिल कुमार सिंह को भी पिछले आम चुनाव में ही पता चला कि कभी-कभी खबर छापने के नाम पर पैसे मांगने वाले एक-आध भ्रष्ट पत्रकार थे। लेकिन उस दौरान पूरा मीडिया ही कमाई में जुटा हुआ था। अनिल सिंह की कांफ्रेंस को कवर के एवज में पूर्वी भारत के एक मशहूर अखबार के पत्रकार ने खुलेआम पैसा मांगा। इस मांग से बौखलाए अनिल ने उसके संपादक को कोलकाता में फोन किया। लेकिन उस रिपोर्टर का बाल बांका भी नहीं हुआ। हैरान अनिल जब खोजबीन में जुटे, तब जाकर उन्हें पता चला कि दरअसल उस अखबार के प्रबंधन ने ही अपने रिपोर्टरों को कमाई का लक्ष्य निर्धारित कर रखा था। ऐसे में उनसे पैसे की मांग नहीं रखी जाती तो क्या किया जाता। पिछले आम चुनाव में जिस तरह पूरे देश में पेड न्यूज का खुला खेल हुआ, वह राजनीति को हैरान करने वाला था। हैरान तो जनता भी हो रही थी। एक ही अखबार के एक ही पेज पर एक खबर में दूसरा शख्स जीतता नजर आ रहा था तो दूसरी खबर में उसका प्रतिद्वंदी जीतता नजर आ रहा था। अगर उसी सीट के दूसरे उम्मीदवार ने अखबार को पैसे नहीं दिए तो उसके खिलाफ हवा दिखाने में भी अखबार ने देर नहीं लगाई। जनता को पता नहीं चल रहा था कि अखबार किस मुद्दे पर सही है। दरअसल अखबारों ने अपनी यूनिटों के लिए कमाई का लक्ष्य तय कर रखा था। यूनिटों के प्रमुखों ने हर रिपोर्टर और हर पेज के प्रभारी को लक्ष्य बांट रखा था। लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिपोर्टरों और पेज प्रभारियों ने नेताओं पर जमकर दबाव बनाया और अपने-अपने अखबारों ने मोटी कमाई। इसके साथ उन्होंने खुद भी कमाई की। जिस रिपोर्टर और पेज प्रभारी ने इस कमाई में हिस्सेदार बनने में हिचक दिखाई, उसे किनारे कर दिया गया। पेड न्यूज की बात जब तक पूरी तरह प्रचारित नहीं हुई, तब तक हिंदी मीडिया में कथित तौर पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबार अपने को पाकसाफ बताते रहे। लेकिन जैसे-जैसे बात खुलती गई, पता चला कि राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण भी इस बहती गंगा में हाथ धोने में पूरी शिद्दत से जुटे थे। राष्ट्रीय अखबारों की इस मिलीभगत का ही परिणाम था कि प्रेस कौंसिल की मसविदा समिति ने इस पर 77 पेज की रिपोर्ट बनाई, लेकिन उन्होंने सदस्यों पर दबाव बनाकर इस रिपोर्ट को महज 13 पेज में सिमटा दिया और उसे ही अब प्रकाशित किया जा रहा है। हालांकि पुरंजय गुहा ठाकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी की तैयार की हुई यह रिपोर्ट मूल रूप में www.prabhashjoshi.in पर देखी जा सकती।
हिंदी में पेड न्यूज को लेकर सबसे ज्यादा हो-हल्ला बेशक 2009 के आम चुनावों में अखबारों की भागीदारी के सार्वजनिक खुलासे के बाद भले ही हुआ, लेकिन इसकी शुरूआत नब्बे के दशक में ही हो गई थी। जब मध्य भारत के एक हिंदी अखबार ने स्थानीय निकाय के चुनाव में अपने पत्रकारों को खबरों के लिए कमाई का लक्ष्य तय कर दिया था। तब यह रकम पिछले चुनाव की तरह ज्यादा नहीं थी। उस चलन के चपेटे में भारतीय जनता पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव का परिवार भी आया था। चूंकि वे इन पंक्तियों के लेखक से अपना नाम जाहिर नहीं करने का वचन ले चुके हैं, लिहाजा उनका नाम नहीं दिया जा रहा है। तब उनके परिवार का कोई सदस्य स्थानीय निकाय चुनाव में हिस्सा ले रहा था। जब उनसे उसके पक्ष में खबरें छापने के लिए पैसे मांगे गए थे। भारतीय जनता पार्टी के उस नेता ने तब इसे पेड न्यूज की बजाय स्थानीय पत्रकार की अपनी कारस्तानी समझा था। महाराष्ट्र से जुड़े रहे एक नेता ने भी बताया था कि 2005 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी कुछ अखबारों ने कमाई के लिए उम्मीदवारों की खबरें छापने का सौदा किया था। इसी दौरान पंजाब के चुनावों में भी खबरों को प्रकाशित करने के लिए खेल हुए थे। दिल्ली नगर निगम के 1995 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना से दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अखबार के संवाददाता ने खुलेआम पैसा मांगा था। जिसकी शिकायत उन्होंने अखबार के संपादक और मालिक से की थी। तब माना गया था कि यह संवाददाता ने अपनी कमाई के लिए रास्ता ढूंढा़ था। तब निश्चित तौर पर अखबार चुनावों को अपनी साख बढ़ाने का माध्यम मानते थे। उस वक्त हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के कुछ स्थानीय मुफस्सिल संवाददाता(स्ट्रिंगर) अपनी कमाई के लिए उम्मीदवारों से जरूर थैली लेते थे। बाद में अखबारों को उनके ही नाम पर कमाई होने की इस कुप्रवृत्ति पर निगाह पड़ी और उन्होंने इसे खुद की कमाई का साधन बनाकर इसे स्याह से सफेद धंधा बना दिया। बदले में स्ट्रिंगर और रिपोर्टर के लिए कमीशन भी तय कर दिया। जिसका चलन पेड न्यूज के तौर पर पिछले आम चुनाव में खुलेआम तौर पर दिखा।
अखबारों का तीन मुख्य काम माना जाता है, सूचना देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना। लोकतांत्रिक समाज में अखबारों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने पाठकों का इन्हीं कसौटियों पर खयाल रखेंगे और लोकतांत्रिक समाज के नैतिक पहरूआ की भूमिका निभाएंगे। लेकिन बड़े और नैतिक कहे जाने वालों ने भी पेड न्यूज की गंगा में डूब कर ही पार उतरने में ही खुद की भलाई देखी। ऐसे में अखबारों की इस नैतिक पहरूआ की भूमिका पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है। बावेला इसी लिए मचा है। सवाल यह भी है कि अनैतिकता की इस सीमा में कैद होने के बाद अखबार लोकतांत्रिक समाज की निगरानी कैसे कर पाएंगे और उनकी कथित निगरानी पर भरोसा कौन करेगा।